एसआर रावत. हम लोग कान्हा नेशनल पार्क का भ्रमण करने उस समय पहुंचे जब एमपी (मलियाकल पॉल) चाको वहां फॉरेस्ट एसडीओ के पद पर पदस्थ थे। एमपी चाको का पिछली किश्त में उल्लेख किया गया था कि कैसे वे ड्राफ्ट्समैन के पद से रेंजर के पद पर चुने गए और एसडीओ बने। हम लोग सिवनी से कान्हा रात के समय पहुंचे। हम लोगों को पहाड़ी पर स्थित रेस्ट हाउस में ठिकाना मिला। रेस्ट हाउस के बाहर घुप अंधेरा था और चारों ओर सूखी पत्तियां बिखरी हुई पड़ी थीं। इन पत्तियों पर जंगली जानवरों की लगातार पदचाप की आवाज आ रही थी। हम लोगों ने जैसे ही जीप की लाइट जलाकर सामने देखा तो बहुत सारे चीतल रेस्ट हाउस के चारों ओर विचरण कर रहे थे। बाघ व तेंदुआ के डर से चीतल रात के समय सुरक्षा दृष्टि से गांव के घरों के पास विचरण करते रहते थे।
चारों ओर सघन जंगल
अगले दिन जब हम कान्हा पार्क का भ्रमण करने निकले तो जंगल को देखकर आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह सके। जंगल पूर्ण रूप से सुरक्षित रखने के कारण काफी घना हो चुका था। सभी आयु के विभिन्न प्रजातियों के पेड़ बड़ी संख्या में चारों ओर फैले हुए थे। चारों ओर हरियाली व प्रदूषणरहित खुली हवा होने से ताजगी का अनुभव हो रहा था। खुले मैदानों को छोड़कर शेष जंगल क्षेत्र पूर्ण रूप से घना था। यहां का जंगल सामान्य तौर पर पाए जाने वाले जंगलों से बिल्कुल भिन्न व दर्शनीय था। चारों ओर सघन जंगल ही दिखाई देता था। जिसमें नमी वाले स्थानों पर हरी एवं ढलान और चट्टानी क्षेत्रों में सूखी हुई घास चारों ओर भरी हुई दिखाई दे रही थी। नेशनल पार्क के भीतर गांव नहीं होने के कारण पशुओं की चराई और मनुष्यों द्वारा जंगलों को पहुंचाने वाली हानि नगण्य थी। वैसे जंगलों को सबसे अधिक नुकसान आग, पशुओं की चराई व मनुष्य से ही पहुंचता है। जब जंगलों में आग लगती है तो घास, झाड़ियां व छोटे-छोटे पौधे जलकर नष्ट हो जाते हैं। इन्हीं छोटे-छोटे पौधों से भविष्य में बड़े पेड़ बनने की संभावना रहती है। बड़े पेड़ों की जड़ के पास बार-बार आग की तीव्र गर्मी के कारण खोखलापन विकसित हो जाता है, जो पेड़ की गुणवत्ता को सर्वाधिक प्रभावित करता है।
पशु और मनुष्य ने कैसे पहुंचाया जंगलों को नुकसान
पशुओं के झुंड और उनके खुरों के दबाव के कारण जमीन सख्त व कड़ी होती रहती है। इस वजह से जमीन पर पड़े बीज अंकुरित नहीं हो पाते या अंकुरित हुए पौधे चराई में नष्ट होते रहते हैं। पशुओं की अधिक चराई के कारण शाकाहारी वन्य प्राणियों के लिए घास व अन्य वनोपज की उपलब्धता कम होती रहती है। पशुओं की तुलना में बकरे-बकरियों द्वारा जंगलों को अत्यधिक हानि पहुंचाई जाती है। बकरे-बकरियां पिछले दो पैरों पर खड़े होकर 8-10 फीट की ऊंचाई तक के छोटे पेड़ पौधों को लगभग समाप्त कर देते हैं। ये बड़े पेड़ों की डालियों को नीचे खींचकर भी नुकसान पहुंचाते हैं। मनुष्य जंगलों की कटाई व सफाई खेती के लिए करते हैं। कुछ जंगल क्षेत्र में शिफ्टिंग कल्टीवेशन के लिए सभी पेड़-पौधों को काटकर या जलाकर खेती की जाती है। कुछ जंगल क्षेत्र में तेंदूपत्ता की अच्छी फसल प्राप्त करने या अन्य कारणों से जान-बूझकर जंगल में आग लगाई जाती है। मनुष्य पेड़ों की कटाई इमारती व जलाऊ लकड़ी प्राप्त करने के लिए भी करता है। जड़ी बूटियों, फल, फूल, पत्तियों व कंद आदि का अधिक मात्रा में दोहन कर मनुष्य जंगलों को नुकसान पहुंचाते हैं। मनुष्य ने जंगलों में पाए जाने वाले वन्य प्राणियों, चिड़ियों व अन्य छोटे जानवरों का शिकार कर प्रकृति को असंतुलित करने का काम किया है।
जमीन का कटाव न होने से कान्हा का प्राकृतिक जल स्त्रोत मटमैला नहीं
कान्हा नेशनल पार्क में साल प्रजाति के ऊंचे-ऊंचे परिपक्व अवस्था के मोटे पेड़ के छोटे-छोटे समूह खूब देखने को मिले। पेड़ के इन समूह के नीचे बैठने मात्र से शांति व प्रकृति से एकात्म होने का आनंद मिलता है। कान्हा में साल के जंगल क्षेत्र होने के साथ ही मिश्रित प्रजाति के जंगल व घास के मैदानी क्षेत्र उपलब्ध थे। जंगल में ये समन्वय विभिन्न वन्य प्राणियों की जरूरत की पूर्ति के आवश्यक होता है। जंगलों में पाए जाने वाले पेड़ों के फल, फूल, पत्तियां, घास व कंद आदि शाकाहारी वन्य प्राणियों का भोजन होते हैं। मांसाहारी वन्य प्राणी जैसे बाघ, तेंदुआ आदि का भोजन सांभर, चीतल व अन्य छोटे जंगली जानवर कान्हा में प्रचुर मात्रा में हैं। कान्हा नेशनल पार्क के भीतर जो भी नदी-नाले या झरने थे, उनमें स्वच्छ व साफ पानी बहता हुआ दिखाई दे रहा था। यहां तक कि वर्षा ऋतु में भी इन नदी नालों में मटमैला पानी नहीं बहता। इसका मुख्य कारण भूमि का कटाव कान्हा नेशनल पार्क क्षेत्र में लगभग नगण्य है। वास्तव में इसी तरह के जंगल क्षेत्र ही वन्य प्राणियों के मूल निवास स्थान होते हैं, जहां सभी के लिए भोजन, पानी, प्रजनन व सुरक्षित विचरण करने की सुविधा उपलब्ध रहती है।
कान्हा बैलेंस ऑफ नेचर का उत्कृष्ट उदाहरण
कान्हा नेशनल पार्क में न केवल जंगलों की कटाई पर पूर्ण प्रतिबंध है बल्कि यहां वानिकी कार्य की गतिविधियों को छोड़कर अन्य प्रकार की सभी गतिविधियों पर पूर्णता रोक लगी हुई थी। यहां से तेंदूपत्ता, जड़ी-बूटियां और जलाऊ लकड़ी को निकाला नहीं जा सकता और न ही अन्य प्रकार का कोई दोहन कार्य किया जा सकता है। यहां तक की यदि कोई पेड़ आंधी-तूफान में गिर जाता है तो उसे वहीं पड़ा रहने दिया जाता है। उसमें कीड़े-मकोड़ों को अपना घर बनाने दिया जाता है। यही कारण है कि वन्य प्राणियों को यहां सुरक्षित वातावरण मिलता है और भयमुक्त होकर विचरण करते रहते हैं। वर्षों पूर्व ऋषि-मुनियों के आश्रम में भी यही वातावरण रहता था। वहां प्राणी बिना किसी भय के विचरण करते रहते थे। आश्रमों के आसपास जंगलों में उसी तरह का संरक्षण प्राप्त रहा होगा, जो वर्तमान में देश के नेशनल पार्कों में होता है। नेशनल पार्क बैलेंस ऑफ नेचर और इकोलॉजिकल बैलेंस के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। कान्हा नेशनल पार्क के भ्रमण के दौरान जब तक यात्रा सफल नहीं मानी जाती जब तक वहां कोई वन्य प्राणी न दिख जाए। वैसे यात्रा इस रूप में सफल मानी जाती है कि प्रकृति वहां जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपने मूल स्वरूप में दर्शन देती है। इसको देखने व महसूस करने का आनंद अनूठा है। इसको प्रत्येक व्यक्ति आत्मसात कर प्रफुल्लित व तरोताजा होकर वहां से वापस लौटता है।
बायसन को घेरकर मारते हैं खतरनाक जंगली श्वान
एमपी चाको द्वारा हम लोगों को कराया गया कान्हा भ्रमण यादगार रहा। जिप्सी वाहन से जब भ्रमण प्रारंभ किया गया तब नाचते हुए मोर, चीतल, सांभर, चौसिंगा, बायसन तुरंत देखने को मिल गए। कान्हा की विशिष्ट पहचान बारहसिंघा के साथ बड़ी मात्रा में जंगली श्वान देखने को मिले। जंगली श्वानों की संख्या यहां बहुत है, लेकिन उनके दर्शन सामन्यत: होते नहीं हैं। श्वान झुंड में रहते हैं और ये कई बार बड़े जानवर बायसन को घेरकर मारने में सफल हो जाते हैं। कान्हा के भ्रमण के दौरान एमपी चाको को वायरलेस पर संदेश मिला कि टाइगर को एक नाले में देखकर पालतू हाथियों के समूह ने उसे वहीं रोक लिया है। चाको हम लोगों को लेकर उस स्थान की ओर तुरंत रवाना हो गए। टाइगर देखने की बात सुनकर हम लोग रोमांचित हो गए। वैसे भी कान्हा यात्रा उसी अवस्था में सफल मानी जाती है कि वहां भ्रमण करने वाले यदि टाइगर की एक झलक ही देख ली हो।
( लेखक मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक रहे हैं )