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डॉ. वेदप्रताप वैदिक। 30 जनवरी का दिन महात्मा गांधी की पुण्य तिथि है, लेकिन इस दिन दिल तोड़ने वाली दो घटनाएं हुईं। एक तो ग्वालियर में गोडसे-आप्टे दिवस मनाया गया और दूसरे गुजरात के किशन भारद्वाज के हत्यारों की खबर सामने आई। किशन की हत्या इसलिए कर दी गई थी कि उसने इस्लाम के बारे में कोई निंदाजनक राय सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दी थी। आजादी के 75वें साल में यदि भारत में ऐसी घटनाएं होती रहती हैं तो इसका अर्थ क्या है?
हत्यारों का स्मृति दिवस कैसे मनाया जा सकता है: दोनों ही घटनाएं संख्या के हिसाब से नगण्य हैं, लेकिन फिर इनका होते रहना क्या इस बात का सूचक नहीं है कि सांप्रदायिकता, असहिष्णुता और अतिवाद के जहरीले बीज आज भी भारत में हरे हैं। उन्हें जरा-सा खाद-पानी मिला नहीं कि वे वटवृक्ष बनने को तैयार रहते हैं। यह तो सत्य है कि हिंदुत्व और इस्लाम के नाम पर ऐसा कुकर्म करने वालों को देश के ज्यादातर हिंदू और मुसलमान गलत मानते हैं और दबी जुबान से उनकी निंदा भी करते हैं, लेकिन असली सवाल यह है कि जो लोग इस जहरीले अतिवाद को फैलाते हैं, उनकी ऐसी मनोवृत्ति क्यों बन जाती है? इसका मूल कारण यह है कि वे किसी धर्म के मर्म को ठीक से समझे ही नहीं होते। उन्हें पोंगा-पंडित या मुल्ला-मौलवी जो भी घुट्टी पिलाते हैं, उसे वे आंख मींचकर निगल जाते हैं। वे यह जानने की कोशिश भी नहीं करते कि सारे धर्मध्वजी अपने आप को प्रायः बादशाहों, शासकों, राजाओं और सरकारों के चमचे बना देने में जरा भी संकोच नहीं करते। उन्हीं के इशारों पर वे धर्मग्रंथों के मंत्रों, वर्सों और आयतों की मनचाही व्याख्या कर डालते हैं। ये शासकगण अपनी सत्ता-पिपासा को शांत करने के लिए धर्मों, मजहबों, संप्रदायों आदि को सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल करते हैं। मज़हबी लोग सोचते हैं कि हम अपना पंथ फैलाने के लिए इन शासकों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इन दोनों के बीच यह सांप-सीढ़ी का खेल पूरी दुनिया में चलता रहा है। इसी खेल को हमने भारत, यूरोप, एशिया और अफ्रीका में सदियों से चलता हुआ देखा है। धर्म या मजहब के नाम पर जितना खून बहा है, वह सत्ता के लिए बहे खून से कम नहीं है। जो सच्चा धार्मिक व्यक्ति है और जो परमात्मा को सबका पिता मानता है, वही उसके नाम पर किसी की हत्या कैसे कर सकता है? ऐसे हत्यारों का वह स्मृति-दिवस कैसे मना सकता है? भारतीय परंपरा में तो ऐसा होना असंभव ही है, क्योंकि हमारी परंपरा तो कहती है कि परमात्मा एक ही है लेकिन विदत्जन उसे अनेक रुप में देखते हैं (एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति)। हत्याओं से कोई मतभेद हल नहीं होते। गांधी की हत्या से क्या पाकिस्तान खत्म हो गया और किशन भारद्वाज की हत्या से क्या इस्लाम की रक्षा हो गई? क्या इन प्रश्नों का जवाब इन हत्याओं के समर्थकों के पास है?