भाषाई समन्वय का आधार बन सकती है आधुनिक हिंदी

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The Sootr CG
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भाषाई समन्वय का आधार बन सकती है आधुनिक हिंदी

र्षों तक  हिंदी दिवस, सप्ताह, पखवाड़ा औपचारिकता की तरह मनाया जाता रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने विभिन्न स्तरों पर हिंदी का अनिवार्य ढंग से उपयोग कर इसे भाषाई समन्वय का आधार बना दिया है। गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट आदेश देकर अपने मंत्रालय का सारा कामकाज पहले हिंदी में करवाना शुरू कर दिया। विदेश मंत्री सुब्रमण्यम जयशंकर दक्षिण भारतीय होकर जितने प्रभावशाली ढंग से हिंदी में अपनी बातें रखते हैं, वह लोगों के लिए प्रेरक बन रही है। नई शिक्षा नीति में हिंदी और भारतीय भाषाओं को सर्वाधिक प्राथमिकता दिए जाने से हिंदी के उपयोग के विस्तार में महत्वपूर्ण सहायता मिलने वाली है। हाँ, कुछ राजनीतिक तत्व निहित स्वार्थों के कारण इस नीति का विरोध कर रहे हैं, लेकिन देश के किसी हिस्से में सामाजिक विरोध देखने सुनने को नहीं मिल रहा है।





वास्तव में सारी विविधताओं के बावजूद सम्पूर्ण भारत का चिंतन एक जैसा रहा है। इसी चिंतन के आधार पर हिंदी को समन्वय भाषा के रूप में अधिकाधिक बढ़ाने का काम किया जा सकता है। आज़ादी के आंदोलन के समय से राष्ट्रीय नेताओं की मान्यता रही कि भारत में राष्ट्र की भावना सुदृढ़ करने के लिए एक भाषा से समन्वय जरूरी है। इसीलिए लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी ने हिंदी को देश की एकता और उन्नति के लिए आवश्यक बताया।





राष्ट्र को एकता में बांधने वाली भाषा





जो लोग आज मोदीजी या भाजपा सरकार द्वारा हिंदी के उपयोग को राजनीति से प्रेरित बताते हैं, वे भूल जाते हैं कि इस पार्टी और सरकार से बहुत दशकों पहले हिंदी को महत्व देने वाले संत, नेता, विद्वान अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के रहे हैं। राजा राममोहन राय ने जब कलकत्ता से बंगदत्त साप्ताहिक निकाला, तो उसमें हिंदी की रचनाओं को स्थान दिया। केशवचन्द्र सेन ने 1875 में सुलभ समाचार में लिखा कि हिंदी को भारत की भाषा स्वीकारे जाने पर सहज में एकता हो सकती है। सुभाष बोस ने हिंदी को आज़ाद हिन्द फ़ौज की भाषा बनाया। गांधी तो गुजराती के साथ निरंतर हिंदी का उपयोग करते रहे। गुजराती स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में लिखा। सुब्रहण्यम भारती ने राष्ट्रीय एकता की भावना से प्रेरित होकर हिंदी की कक्षाएं संचालित की। विनोबा भावे मराठी भाषी थे। उनके समय में कुछ इलाकों में हिंदी विरोधी राजनीतिक आंदोलन भी हुए, लेकिन उन्होंने देश भर में भूदान आंदोलन का सन्देश हिंदी माध्यम से पहुँचाया। हिंदी पत्रकारिता के पितामहा बाबू विष्णुराव पराड़कर मराठीभाषी थे।





हिंदी के विकास में दक्षिण भारत का भी अहम योगदान





हिंदी के विकास में केवल उत्तर भारत ही नहीं, दक्षिण भारत का बड़ा योगदान रहा है। वहां की हिंदी को दक्खिनी दक्षिणी हिंदी कहा गया। दक्खिनी हिंदी का विकास 14 वीं से 19 वीं सदी तक बहमनी,  कुतुबशाही और आदिलशाही सुलतानों के संरक्षण में हुआ। इतिहासकार फरिश्ता ने लिखा है कि राजकीय कार्यालयों में फारसी के बजाय हिंदी चलती थी। 17 वीं सदी में तंजावूर के शासक शाहजी महाराज ने हिंदी भाषा में दो यक्ष गानों की रचना की थी। 1942 के आंदोलन में अल्लुरी सत्यनारायण राजू ने जेल में रहकर हिंदी सीखी और महान विद्वान राहुल सांकृत्यायन के उपन्यास  वोल्गा से गंगा तक  का तेलुगु में अनुवाद किया। केरल के महाराजा स्वाति तिरुनाल ने ब्रज भाषा में अनेक गीत लिखे। 1942 में केरल के त्रिचूर से पहली हिंदी पत्रिका हिंदी मित्र निकली, जिसके संपादक केजी नीलकंठन नायर थे।





गैर हिंदी भाषियों ने बढ़ाया हिंदी का मान





हिंदी साहित्य और भाषा में गुजरात का योगदान भी महत्वपूर्ण है। स्वामी दयानन्द के अलावा नरसिंह मेहता, केशवराम जैसे संत कवियों ने गुजराती के साथ हिंदी में रचनाएं लिखी। कच्छ, सौराष्ट्र और राजकोट के शासकों ने हिंदी कवियों को आश्रय दिया तथा हिंदी सिखाने की सुविधाएं प्रदान की। मध्य काल में भक्त कवियों ने उड़िया तथा ब्रज भाषा में आदान प्रदान किया। वंशी वल्लभ, जगबंधु हरिचंदन, रामदास तथा प्रह्लाद राय आदि उड़िया कवियों ने ब्रज भाषा में रचनाएं लिखी। गुरूनानक देव ने पंजाबी के साथ हिंदी में काव्य लिखे। लाला लाजपत राय, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा हेमराज, पंडित गुरुदत्त तथा भाई परमानन्द ने स्वयं हिंदी सीखी और लोगों को सिखाई। असम के संत कवि शंकर देव और माधव देव के नाटकों और गीतों में ब्रजबुलि भाषा का प्रयोग मिलता है। बाद में नाथ पंथियों और वैष्णव संतों ने असमिया के साथ हिंदी को आगे बढ़ाया।





बोलने-समझने की दृष्टि से दुनिया की तीसरी भाषा 





 गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन में हिंदी भवन की स्थापना की। हिंदी भवन की स्थापना के अवसर पर गुरुदेव टैगोर ने हिंदी के विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी से कहा था - " तुम्हारी परम्परा शक्तिशाली है। बड़े-बड़े पदाधिकारी तुमसे कहेंगे कि हिंदी में कौन सा रिसर्च होगा भला, लेकिन तुम उनकी बात में कभी न आना। मुझे भी लोगों ने बंगला में न लिखने का उपदेश दिया था। तुम कभी अपना मन छोटा न करना। कभी दूसरों की और मत ताकना। साहस अधिक जरूरी है। लग पड़ोगे तो सब हो जाएगा। हिंदी के माध्यम से तुम्हें ऊँचे से ऊँचे विचारों को व्यक्त करने का प्रयत्न करना होगा "। जापान के बौद्ध भिक्षु फुजी गुरूजी 1933 में गांधीजी से मिलने आए और भारतीयों के बीच काम करने की इच्छा व्यक्त की। तब गांधीजी ने उन्हें सलाह दी कि वे अपना काम शुरू करने से पहले हिंदी और हिंदुस्तानी सीख लें। गांधीजी के प्रयासों के कारण 1918 में होमरूल कार्यालय में सीपी रामास्वामी आयंगर की अध्यक्षता में एनी बेसेंट ने पहले हिंदी वर्ष का उद्घाटन किया था। फादर कामिल बुल्के ने बहुत पहले लिखा था - हिंदी न केवल देश के करोड़ों लोगों की सांस्कृतिक और संपर्क भाषा है वरन बोलने और समझने की दृष्टि से दुनिया की तीसरी भाषा है। भारत के सभी धर्मों और विभिन्न भाषा भाषियों ने हिंदी के विकास में योगदान दिया है। यह किसी वर्ग, प्रदेश या समुदाय की भाषा न होकर भारतीय जनता की भाषा है।





अन्य नदियों के मिलने से कम नहीं होती गंगा की गरिमा





इस गौरवपूर्ण पृष्ठभूमि के बाद वर्तमान दौर मैं हिंदी को सर्वाधिक प्रतिष्ठित यानी देश भर में उपयोग के लिए केवल सरकार पर निर्भर रहने के बजाय पत्रकारिता, शिक्षा, विधि और न्याय से जुड़े लोगों को निरंतर अभियान के रूप में योगदान देना होगा। हिंदी के साथ सभी भारतीय भाषाओं को सम्मान और ज्ञान की दृष्टि से विदेशी भाषा की शिक्षा के प्रति उदार रुख अपनाने से कट्टरता का भय भी नहीं रहेगा। गंगा में अन्य नदियों के सम्मिलन से गंगा की गरिमा काम नहीं होती, हिंदी के लिए उसी पवित्र भाव से संकल्प और प्रयासों की आवश्यकता है।



(लेखक आई टी वी नेटवर्क इण्डिया न्यूज़ और आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं)



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