जयराम शुक्ल. बाजार ने रिश्तों और भावनाओं के भी मार्केटिंग का हुनर सीख लिया है। प्रतिदिन किसी न किसी के नाम से 'डे' होता है। जैसे आज 8 मई को मदर्स डे है। वैसे हम भारतीय वर्ष में दो बार नौ-नौ दिन का मातृशक्ति का पर्व मनाते हैं, शक्ति स्वरूपा माँ दुर्गा की आराधना करते हैं। वैभव की देवी लक्ष्मी मैय्या की रोज आरती उतारते हैं। सरस्वती माता सदा सहाय करें लिखने के बाद शिक्षारंभ करते हैं।
यह सनातन काल से करते आ रहे हैं और आगे भी इसी उत्साह और पवित्रता के साथ करते जाएंगे। दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती, यही तीन नाम हैं जो हम लोग अपनी बच्चियों के सबसे ज्यादा रखते हैं। नए जमाने में इन नामों के पर्यायवाची ढूंढकर नामकरण किया जाता है। एक शक्ति की देवी, मधुकैटभविध्वंसिनी, महिषासुरमर्दनी, रूप, यश, शक्तिदायनी। दूसरी ऐश्वर्य, वैभव की देवी गरीबों को छप्पर फाड़कर धनधान्य से भर देने वाली। तीसरी ज्ञान, मेधा, बुद्धि, चातुर्य की अधिष्ठात्री। वेद, पुराण कथाओं में अद्भुत बखान है इन देवियों का। कथाओं में तो ये ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों को अपनी अँगुलियों में नचाए रखती हैं। यह सब कहानियां युगों से चली आ रही हैं।जिस देश में मातृशक्ति की इतनी महत्ता रही हो उस देश को तो कायदे से स्वर्ग होना चाहिए। महिलाओं की स्थिति हर दृष्टि से विश्व में सर्वोपरि होना चाहिए। पर है क्या..? चलिए ये भी जानें।
हमें महिलाओं पर बुरी नजर वाला मानती है दुनिया
विश्व के प्रायः सभी समर्थ देशों ने पर्यटन पर जाने वाली अपनी महिला नागरिकों को यह एडवाइजरी जारी कर रखी है कि यदि वे भारत जाएं तो जरा संभल के। दूर देशों में हमारी ख्याति महिलाओं पर बुरी नजर रखने वालों की है, यानी कि वे हमें अव्वल दर्जे का दुष्कर्मी मानते हैं।
भगवान के नाम से ही शोषण करते हैं भगवा वस्त्रधारी
कब क्या घटित हो जाए भगवान जाने। और अब तो भगवान के आगे ही उनके नाम से घटित हो जाता है। जेल में बंद आसाराम, रामपाल गुरमीत उर्फ राम उर्फ रहीम उर्फ सिंह उर्फ इंशा से लेकर फलाहारी बाबा, इच्छाधारी बाबा, नृत्यानंद बाबा, सीताराम बाबा और भी छोटे—बड़े नामाजादिक बाबाओं की पूरी जमात ही बंद है। ये सबके सब भगवान के आगे ही मातृशक्ति का उद्धार करते पकड़े गए। अभियान चले तो नब्बे फीसदी जेल पहुंच जाएं। एक बाबा प्रवचन दे रहे ..यत्र नारी पूज्यन्ते रमंते तत्र देवताः..हम लोगों को देवता ही समझो..नारी में रमने का हमें आदियुग से अधिकार प्राप्त है। अब हम देख रहे हैं कि जेल जाने से पहले तक ये सब अपनी अपनी गुफाओं में कैसे रमे रहते हैं।
हम जिस मातृ को शक्ति का प्रतीक मानते है, वह इतनी निर्बल, बेबस! इतने लाचार तो जानवर भी नहीं हैं। अभी भी स्त्रीधन, भोग की वस्तु है। कहीं भी, कभी भी, कोई भी। मधु-कैटभ, महिषासुर, गली-गली, सड़क-सड़क, दफ्तर-दफ्तर, बस, ट्रेन, हवाई जहाज, हर जगह मिल जाएंगे। इन राक्षसों की माटी की प्रतिमा को शेरों से नुचवाइए या त्रिशूल से छेदिए। असली तो सड़क पर घूम रहे हैं, मठमंदिरों,आश्रमों में घात लगाए बैठे हैं। बड़े दांत,नाखून और सींग वाले नहीं, रेशमी अंगवस्त्रम से सुसज्जित। कहां बचकर जाएंगे।
इनसे कौन बचाएगा उस अजन्मी मातृशक्ति को
शुरुआत ही कुछ ऐसी है। अंकुरण के साथ ही मशीन से पता लगाया पेट में है..गर्भ में पल रही है..। वहीं मार दो। सुपारी लेने के लिए सफेद कोट पहने आला लटकाए डॉक्टर खड़े हैं। कौन भगवान है यहां जो नृसिंह की तरह आपरेशन थिएटर फाड़ के प्रकट हो जाए और प्रह्लाद की तरह बचा ले उस नन्ही अजन्मी 'मातृशक्ति' को..। जो बच भी गई उनमें न जाने कितनी दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती नाम वाली होंगी। और उन्हीं के पीछे बचपन से न जाने कितने मधु-कैटभ पड़े होंगे। कितने ढोंगी हैं हम। कोख में ही दुर्गा वध्य। राक्षस सड़क पर आजाद। यही चल रहा है, यही चलेगा। और ये कोई नई बात, नया ज्ञान नहीं। इन सबके बावजूद ..फिर भी जयकारा लगाते जाइए बोलिए दुर्गा मैय्या की जय..। और हर साल मदर्स डे मनाते जाइए।
जितना बड़ा शहर, उतना बड़ा दुष्कर्मी
हर साल नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट जारी होती है। प्रदेशों में होड़ सी मची रहती है कि महिलाओं के साथ अत्याचार में कौन आगे..? भ्रूणहत्या कहां ज्यादा होती है। एक प्रदेश के मुखिया ने कैफियत दी कि चूँकि महिलाओं के मामले में हम संवेदनशील हैं, थाने में रिपोर्ट दर्ज करते हैं, इसलिए आँकडे़ हमें ऊपर बताते हैं, ज्यादा दुष्कर्मी त़ो वो प्रदेश है जहाँ अत्याचार भी होता है और कोई रिपोर्ट भी दर्ज नहीं होती। वे शायद सही कहते हैं। महिला अत्याचार के आधे से ज्यादा मामले गरीबी और लोकलाज की वजह से दबे ही रहते हैं। महिलाओं पर जुल्म वहां ज्यादा हैं जहाँ सभ्य लोग रहते हैं। जो जितना बड़ा शहर वो उतना ही बड़ा दुष्कर्मी। दिल्ली में सत्ता का सिंहासन है, यहीं कानून बनता है,यहीं लागू होता, न्याय की सर्वोच्च पीठ भी यहीं, सबसे बड़े मानवाधिकारवादी भी यहीं बैठते हैं, पर क्राइम ब्यूरो बताता है कि हर मिनट इस महानगर में कहीं न कहीं किसी की इज्ज्त उतरती है। इससे बेहतर तो वो असभ्य गांव हैं, जहाँ शिक्षा और संस्कृति नहीं पहुंच पाई।
मुखिया बनाने में भी हम काफी पीछे
वनवासियों के बीच अभी भी महिलाओं का रसूख है। ग्रामीण क्षेत्रों के परिवारों में महिला मुखियागीरी का औसत 36 प्रतिशत है, जबकि शहरों में मात्र 9 प्रतिशत। विधायी संस्थाओं, यानी ल़ोकसभा, विधानसभाओं में हर नौ निर्वाचित पुरुष के बाद एक महिला है। यह औसत वैश्विक पैमाने पर 20 प्रतिशत कम है। महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में बांग्लादेश और श्रीलंका हमसे आगे हैं। नारी अर्धांगिनी कही जाती है। भवानीशंकर जब एकाकार होते हैं तो अर्धनारीश्वर बनते हैंं। नरनारी समानता ई्श्वरीय आदेश है। हर देवी देवता से पहले। राधाकृष्ण, सीताराम, लक्ष्मीनारायण, गौरीशंकर। इस संस्कृति की दुहाई देने वाले देश में नारी अभी तक पुरुष के घुटने से ऊपर नहीं आ पाई। नगरीय और पंचायत चुनावों में जहाँ इन्हें थोड़ा प्रतिनिधित्व मिला, वहां पतियों ने इन्हें अपनी छाया से ही मुक्त नहीं किया। नाम के साथ पुछल्ला तो है ही काम में भी यही दल्ला हैं।
सोचिए, पितृवाचक क्यों नहीं होती गालियां...
हमारा भारत विश्व का ऐसा अनुपम देश है, जहां औसतन लोगों की जुबान से हर सेकंड मां, फिर बहन और बेटी के नाम की गालियां झड़ती हैं और तकियाकलाम बनकर बैठी हैं। सोचिए, यहां हर गंदी गाली मातृवाचक है..पितृवाचक क्यों नहीं? पता लगाइए क्या किसी दूसरे देश में भी यही चलन है..? यदि हम ये चलन नहीं बदल सकते तो फिर काहे का मदर्स डे। इस पर विचार करिएगा !