मित्रता के मिथ : कर्ण और दुर्योधन की मित्रता यानी कि परस्पर विश्वास की पराकाष्ठा!

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The Sootr CG
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 मित्रता के मिथ : कर्ण और दुर्योधन की मित्रता यानी कि परस्पर विश्वास की पराकाष्ठा!

 पुराण कथाओं से लेकर लोक-शास्त्र में मित्रता के उदाहरण भरे पड़े हैं। कृष्ण, सुदामा की मित्रता को उत्कृष्ट आदर्श माना जाता है, लेकिन एक मित्रता ऐसी भी जो कथाक्रम में हेय दिखती है पर लोकमानस में वह गेय बन गई। वह मित्रता है दुर्योधन और कर्ण की।



वेदव्यास ने महाभारत में कर्ण के चरित्र को खलनायक से भी बढ़कर गढ़ा है। भीष्म,  द्रोण, कृप, विदुर, धृतराष्ट्र, गांधारी और यहाँ तक कि स्वयं वेदव्यास कर्ण को ही कौरवकुल के कलह का कारण मानते हुए हर क्षण उपेक्षित और कुल, जाति, नस्ल को लेकर अपमानित व लांक्षित करते हैं, लेकिन दुर्योधन को कर्ण पर भरोसा है...भाग्य और कर्म से ऊपर, उसकी मित्रता, उसके पौरुष का। दुर्योधन की दुनिया में कोई है तो सिर्फ कर्ण है। कर्ण इस विश्वास का निर्वाह करता है, श्रीकृष्ण द्वारा यह बताए जाने के बावजूद.. कि तुम हो कुंती के ज्येष्ठ पुत्र..। कुंती स्वयं कर्ण को बताती है कि पांडव पाँच नहीं.. छह हैं। सूर्य भी कर्ण को बताते हैं कि तुम मेरे पुत्र हो और तुम्हें तजने तुम्हारी माँ कुंती का कोई अपराध नहीं, वह सब मेरी ही मंशा से हुआ। कौरवकुल के गुरु, पुरोहित और ज्योष्ठों द्वारा बार-बार हर अवसर पर अपमानित व लांक्षित किए जाने के बावजूद कर्ण दुर्योधन के साथ अपनी मैत्री पर आँच नहीं आने देता...।



कर्ण पर बनी हर फिल्म रही सुपरहिट 



 कर्ण की यही महानता उसे मृत्युंजयी बनाती है और आज लोकमानस में दानवीर कर्ण किसी विलक्षण दैवीय पात्र की तरह अजर और अमर है। कर्ण को केन्द्र पर रखकर हिन्दी व अन्य भाषाओं में जितनी फिल्में बनीं प्रायः सभी सुपरहिट रहीं। साहित्यकारों के लिए भी कर्ण का चरित्र प्रिय विषय रहा। शिवाजी सावंत को जिस मृत्युंजय, उपन्यास से ख्याति मिली वह भी कर्णचरित्र ही है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कर्ण को समर्पित रश्मिरथी, खंडकाव्य ही लिख दिया जो आज भी सबसे ज्यादा उद्धृत व प्रस्तुत की जाने वाली काव्य कृति है।



 दिनकर ने कुरुक्षेत्र के एक प्रसंग में कर्ण व दुर्योधन के मैत्रीय चरित्र को बड़ी खूबसूरती से रेखांकित किया है। आज फ्रेंडशिप डे पर पढ़िए, उसके कुछ अंश...



कुरुक्षेत्र - कर्ण दुर्योधन,मित्रता की पराकाष्ठा



अपना विकास अवरुद्ध देख,

सारे समाज को क्रुद्ध देख 

भीतर जब टूट चुका था मन,

आ गया अचानक दुर्योधन 

निश्छल पवित्र अनुराग लिए

मेरा समस्त सौभाग्य लिए।।



कुन्ती ने केवल जन्म दिया,

राधा ने माँ का कर्म किया 

पर कहते जिसे असल जीवन,

देने आया वह दुर्योधन 

वह नहीं भिन्न माता से है

बढ़ कर सोदर भ्राता से है।।



राजा रंक से बना कर के,

यश, मान, मुकुट पहना कर के 

बांहों में मुझे उठा कर के

सामने जगत के ला करके 

करतब क्या क्या न किया उसने

मुझको नव जन्म दिया उसने।।



है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,

जानते सत्य यह सूर्य-सोम 

तन मन धन दुर्योधन का है,

यह जीवन दुर्योधन का है 

सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,

केशव! मैं उसे न छोडूंगा।।



सच है मेरी है आस उसे,

मुझ पर अटूट विश्वास उसे 

हाँ सच है मेरे ही बल पर,

ठाना है उसने महासमर 

पर मैं कैसा पापी हूँगा

दुर्योधन को धोखा दूँगा।।



रह साथ सदा खेला खाया,

सौभाग्य सुयश उससे पाया 

अब जब विपत्ति आने को है,

घनघोर प्रलय छाने को है 

तज उसे भाग यदि जाऊंगा

कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा।।


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