संवेदनाओं की मरुभूमि में हमारी पत्रकारिता

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संवेदनाओं की मरुभूमि में हमारी पत्रकारिता

जयराम शुक्ल। अतीत की जुगाली अमूमन हताशा की परिचायक होती है लेकिन वर्तमान की नापजोख के लिए उससे प्रामाणिक पैमाना दूसरा नहीं हो सकता। समाज के मूल्य और कीमतों को नापने के लिए वक्त को पीछे पलटना ही पड़ता है। मशीन के दखल ने मनुष्य की संवेदनाओं को उत्तरोत्तर भोथरा किया है। आज के हालात यह हैं कि संवेदनाएं ह्रदयहीन सूचनाओं में बदल गई हैं। आजादी के बाद मशीनीकरण ने आदमी का जितना सशक्तिकरण किया है संवेदनाएं उसी दर से भोथरी होती चली गईं, हर क्षेत्र में।



अपनी ही खोज पर दुखी हुए आंइस्टीन: बीआर चौपड़ा की दिलीप कुमार अभिनीत फिल्म नयादौर में देश के भविष्य की झाँकी थी। मशीन और आदमी के बीच संघर्ष की। अंतत: मशीन जीत जाती है। मशीन अपने आविष्कारक को ही परास्त कर देती है। गोया कि यह नए जमाने की भष्मासुर कथा हो। कवि कलाकार को इसीलिए विग्यान विशारद और भविष्य दृष्टा कहा गया है।वह आगे की भाँप लेता है। पुराण कथाओं में भविष्य के संकेत छुपे होते हैं। शंकरजी ने भष्मासुर पैदा किया फिर उसी के डर से भागते फिरते रहे। तब अंतिम व्यवस्था विष्णुजी के पास थी उन्होंने अपने कौशलयुक्ति से शंकरजी को मुक्ति दिलाई। इस युग के भष्मासुरों से कौन मुक्ति दिलाए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं। दुनिया में जब पहले परमाणु बम का परीक्षण हुआ तो सबसे दुखी-क्लांत आइंस्टीन ही हुए। उन्हें अपनी थ्योरी पर अफसोस  हुआ, लेकिन तीर तो कमान से निकल ही चुका था। बाद में हिरोशिमा-नागाशाकी में जो नरसंहार हुआ दुनिया आज भी उसके स्मरण मात्र से सिहर उठती है। 



शांति के प्रवर्तक गांधी को नहीं मिला शांति का नोबेल: अमेरिका-सोवियत शीतयुद्ध काल में जितने भी शांति के नोबेल पुरस्कार विजेता थे, सभी ने संयुक्त हस्ताक्षर के साथ एक अपील जारी की थी कि दुनिया को सिर्फ गाँधी के शांति-अहिंसा के आदर्शों, सिद्धांतों से ही बचाया जा सकता है। युद्ध तो सृष्टि के विनाश का आखिरी विकल्प है। यह भी जोरदार बात है कि उन्हीं गाँधी को उनके जीतेजी शाँति के नोबेल पुरस्कार लायक नहीं समझा गया था, और  उनके समकालीन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल को यही सम्मान बख्शा गया। उसी कोटि के नेताओं में हाल-फिलहाल युद्धप्रेमी बराक ओबामा को नोबल का शांति पुरस्कार दिया गया। जबकि गाँधी और उनके विचार आज भी भष्मासुरों से दुनिया की वैसी ही रक्षा कर सकते हैं जैसे पुराण कथा में विष्णुजी ने किया था। व्यवहारिक तौर पर देखें तो सबसे ज्यादा अवहेलना आज गाँधी और उनके विचारों की ही हो रही है। यह बात अलग है कि सबसे ज्यादा योजनाएं और कार्यक्रमों को उन्हीं के नाम समर्पित किया गया है। ये लगभग वैसा ही है जैसे कि अदालत में गीता-कुरान की शपथ लेकर झूँठी गवाही देना। गाँधी संवेदनाओं का मोल समझते थे, उनके लिए स्वतंत्रता संग्राम और आश्रम की घायल बकरी का इलाज करना एक जैसी ही बात थी। वे सतर्क और चिंतित थे कि मशीनयुग मनुष्य की संवेदनाओं को सोख लेगा। हिंद स्वराज में उनकी यह चिंता है। वे ग्राम्यवासिनी भारत माता के आराधक थे जबकि नेहरू ठीक इसके उलट। स्वाभाविक रूप से नेहरू की चली और यहां तक पहुँचते-पहुँचते हम लगभग वो सबकुछ खोते-खाते चले गये जिसे सहेजने की बात गाँधीजी करते रहे।



पत्रकारिता में घटनाएं बनी त्यौहार: समाज के हर क्षेत्र में संवेदनाएं एक गति से भोथरी हुईं और सूखी हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अब बड़ी से बड़ी घटनाएं भी महज एक इवेंट होती हैं। खबरों की जगह सूचनाओं का दौर शुरू है। अखबार फास्टफूड जैसे हैं। आज का पत्रकार शायद ही अपने संदर्भ में कतरनों को अचार की तरह सहेज कर रखता हो। खबरें बेजान होती जा रही हैं इसलिए उनका अब समाज पर कोई दीर्घकालिक असर नहीं पड़ता। उनकी विश्वसनीयता गर्त में चली गईं। मजे की बात यह कि हर साल मीडिया समूह अपने-अपने विग्यापन अभियानों में दावा करते हैं कि उनके अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ रही है। अखबार अब प्रथमतः खबरों के लिए नहीं निकाले जाते। इसलिए उनके लक्ष्य से वह वर्ग खारिज होता जा रहा है जिसके प्रति व्यवस्था या समाज को चिंतित होना चाहिए। देश में सबसे तेजी से बढ़ने का दावा करने वाले एक समूह के टारगेट ग्रुप में गाँव-गरीब नहीं हैं। इन पर लिखने की घोषित पाबंदी है। यह मीडिया का नया दौर है। पाँच साल पहले टाइम्स आँफ इंडिया के मालिक समीर जैन ने एक विदेशी अखबार को दिए इंटरव्यू में बड़ी ईमानदारी से कहा था-हम अखबार स्पेश सेल का बिजनेस करने के लिए निकालते हैं। 



पत्रकार पक्षकार में बदले: अखबार का स्पेश खरीदना तो अडानी-अंबानी, टाटा-बिरला माल्या और नीरव मोदी के बस की ही बात हो सकती है। वैसे इनमें से ज्यादातर अब प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मीडिया समूहों के मालिक संचालक भी हैं। देश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका के पिछले कई अंकों को गौर से पढ रहा हूँ, एडिटोरियल और एडवरटोरियल के बीच जो बारीक सी रेखा थी वह भी संपादन के इरेजर से मिटती जा रही है। स्पेश खरीदकर झूँठ की तिजारत करना अब कितना आसान हो गया है आप देख सकते हैं। टीवी चैनल्स टाइम बेचते हैं। कोई भी घपलची इसे खरीद सकता है, आज का मीडिया खुला सेल है बिलकुल। सरकार पोषित मीडिया तो हमेशा से ही प्रपोगंडा का औजार रहा है। अब इस तरह के घालमेल में संवेदनाओं के लिए स्पेश कहाँ?



सत्तर के दशक की पत्रकारिता: सत्तर- अस्सी के दशक की अखबारों और पत्रिकाओं की कई रिपोर्टिंग आज भी झिंझोड़कर रख देती हैं। 1978 में गीता-संजय चौपड़ा हत्याकांड हुआ था। एक नेवी अफसर के दो मासूम बच्चों को दिल्ली के दो दरिंदों ने अपह्रित किया फिर नृशंसता के साथ कत्ल कर दिया था। उन दिनों मैं स्कूल का छात्र था फिर भी मेरे अवचेतन में वह घटना कभी-कभार प्रगट हो जाती है। इस ह्रदयविदारक घटना की जिस मार्मिकता के साथ क्रमबद्ध स्टोरीज आईं उनसे संवेदनाओं का देशव्यापी ज्वार सा उमड़ आया था। हर माँ-बाप की प्रार्थना में उन बच्चों की सलामती की गुजारिश रहती थी मानों एक दुख ने समूचे देश को एक डोर में बाँध दिया हो।  इंडियन एक्सप्रेस के अश्वनी सरीन की कमला वाली स्टोरी जिसमें इस बात का परदाफाश किया गया था कि ऐसी भी मंडियां हैं जहां मवेशियों से भी सस्ती कीमत में महिलाओं को खरीदा जाता है। अश्वनी सरीन ने कमला को ढाई हजार रुपये में धौलपुर की मंडी से बोली बोलकर खरीदा था। ऐसा भी होता है..देश ने पढ़ा और देखा।..बागपत की माया त्यागी जिसकी इज्जत सियासत ने लूटी..रविवार के उदयन शर्मा की यह कारुणिक रपट आज भी मेरे समकालीन मित्रों को याद होगी। 



जब आइस्क्रीम के लिए युवक को चाकू से गोदा: स्मृतियों में जमी कुछ वर्ष पूर्व लखनऊ की वो खबर आज भी विचलित कर देती है कि किस तरह एक बारात में नाचते गाते कुछ युवा रास्ते में ठिठककर एक आइसक्रीम पार्लर को बेवक्त खुलवाने की जिद करते हुए उस दूकानदार की चाकू मारकर हत्या कर देते हैं और अगले ही क्षण बारात में फिल्म नया दौर के जोशीले तराने...ये देश है वीर जवानों..की बैंडधुन पर नाचते गाते आगे बढै जाते हैं। आज हम वाकय संवेदनाओं की मरुभूमि में खड़े हैं।


जयराम शुक्ल Jairam Shukla nehru Gandhi गांधी पत्रकारिता journalism नेहरू Mechanization Einstein Nobel Barack Obama मशीनीकरण आंइस्टीन बराक ओबामा