दर्द और दवा सब आपकी ही कृपा, विधि व्याख्या और सुलगते सवाल

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Shivasheesh Tiwari
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दर्द और दवा सब आपकी ही कृपा, विधि व्याख्या और सुलगते सवाल

सरयूसुत मिश्र, मध्यप्रदेश में 13 साल पहले एक मेडिकल छात्रा की हत्या पर उच्च न्यायालय द्वारा आरोपी को दोष मुक्त किए जाने के फैसले पर खुशी का माहौल है। 13 साल से जेल में बंद आदिवासी युवक चंद्रेश मसकोले का परिवार रोते-रोते हंसने लगा है। उनका मन अभी भी यह सोचकर रो रहा है कि निर्दोष होने के बाद उसके बेटे को सजा क्यों दी गई? अदालत के फैसलों पर कभी कोई सवाल नहीं उठाता। यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि निचली अदालत के फैसले को उच्च अदालत में न केवल बदल दिया है, बल्कि जांच प्रक्रिया पर ही सवाल उठा दिया है। 



जांच प्रक्रिया में जो कमियां ऊपरी अदालत ने देखी वह निचली अदालत में कैसे छूट गई? जिसके कारण एक नौजवान जेल में अधेड़ हो गया। हर क्षेत्र में स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (SOP) होता है न्यायालय में भी निश्चित होगा। किसी भी आपराधिक प्रकरण में साक्ष्यों का मूल्यांकन करते हुए इस प्रोसीजर को फॉलो किया जाता होगा। 

 

इस मामले में कैसे चूक हो गई? जांच एजेंसी पुलिस चार्ज शीट एवं साथियों का तब तक हमारी न्याय प्रणाली में महत्व नहीं है, जब तक उसको किसी न्यायालय द्वारा स्वीकार न किया जाए। ऊपरी अदालत अपने फैसले में यह कह रही है कि इस प्रकरण में जांच की पूरी प्रक्रिया द्वेषपूर्ण थी। 



किसी को बचाने और किसी को फसाने की नियत से जांच की दिशा, जांच प्रक्रिया को ग़लत दिशा में मोड़ा गया। फैसले से जांच से जुड़े संपूर्ण तंत्र पर सवालिया निशान उठ गया है। जिस अदालत द्वारा इस मामले में आरोपी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। उसके द्वारा पुलिस की जांच प्रक्रिया को साक्ष्यों को स्वीकार किया गया। आज उन्हीं एविडेंस के पुनर्मूल्यांकन के बाद ऊपरी अदालत ने आरोपी को न केवल बरी कर दिया है बल्कि पूरी प्रक्रिया को द्वेषपूर्ण बताया है।अदालत के फैसले पर सवाल उठाना विधि सम्मत नहीं है लेकिन ऐसी बातें लोगों को बिचलित करती है।



न्यायिक तंत्र और प्रणाली में लगातार सुधार किया जाता रहा है। आज भारतीय न्याय व्यवस्था विश्वसनीयता के मामलों में दुनिया में एक मिसाल मानी जाती है। आपराधिक मामलों में अक्सर यह देखने को मिलता है जब निचली अदालतों के फैसले उच्च अदालतों द्वारा बदल दिए जाते हैं, यह स्वाभाविक है।



लेकिन जब ऐसे फैसले आते है जिनमें निचली अदालत के फैसलों को ना केवल पलटा जाता है बल्कि पूरी प्रक्रिया को द्वेषपूर्ण बताया जाता है। ऐसे प्रकरणों के कारण आम नागरिकों के मन में यह सवाल उठता है कि अदालत ने ही सजा का दर्द दिया था और दूसरी अदालत ने दोषमुक्त मानकर जीवन के लिए दवा दी है।



भारत में अदालतों को भगवान का दर्जा दिया जाता है। हमारे देश में पंच परमेश्वर की मान्यता है। न्यायाधीशों में परमेश्वर का बास माना जाता है। जिस देश में अदालतों के प्रति इतना विश्वास और सम्मान हो, उस देश में कोई भी निर्दोष अगर सजा भोगता है तो अदालतों की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगता है।



चंद्रेश मसकोले के मामले में जितने भी तथ्य सार्वजनिक रूप से प्रकाश में आए है उसमे तत्कालीन आईजी स्तर के अधिकारी की भूमिका पर सवाल मीडिया में आए है। इस केस के इन्वेस्टिगेटिंग ऑफीसर और सुपरवाइजरी ऑफिसर की भूमिका सामने नहीं आई है।



निश्चित रूप से उच्च न्यायालय ने आरोपी को दोष मुक्त किया है और प्रक्रिया को द्वेषपूर्ण बताया है तो जांच अधिकारी और सुपरवाइजरी अधिकारी इसके लिए जिम्मेदार माने जाएंगे। हमारी न्याय प्रणाली इस ध्येय पर आधारित है कि सबूतों के अभाव में भले आरोपी छूट जाएं लेकिन एक भी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए।



जब भी ऐसी स्थितियां सामने आती है तो न्याय प्रणाली में सुधार की जरूरत महसूस होती है। अभी हाल ही में प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के संयुक्त सम्मेलन में न्याय प्रणाली को त्वरित और लोकल भाषा में न्याय देने के लिए सुधार प्रक्रिया को तेज करने का आह्वान किया है। अभी पूरी न्याय प्रणाली अंग्रेजी में ही काम करती है। बहस और फैसले भी अंग्रेजी में ही होते है। आम आदमी की पहुंच से न्यायिक प्रणाली शायद इसीलिए दूर रहती है क्योंकि उसे ज्यादा कुछ समझ ही नहीं आता, वकीलों पर निर्भर रहता है।



चंद्रेश मसकोले के मामले में सिस्टम सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने का प्रयास अवश्य करेगा। आरोपी छूट गया इससे तंत्र को कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन तंत्र को इस बात से फर्क पड़ता है कि उसकी प्रक्रिया पर सवाल उठाए जाएं। इस पूरे फैसले में जो भी तंत्र पर सवाल उठाए गए है। उनको सर्वोच्च न्यायालय से खत्म कराने का प्रयास जरूर किया जाएगा।



सूत्रों से भी ऐसी जानकारी मिल रही है कि सरकार विधि विभाग से परामर्श कर इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करेगी। हमारी अदालतों की यह खूबी है कि किसी न किसी स्तर पर अन्याय पकड़ लिया जाता है। आदिवासी युवक के साथ भी अदालत ने ही न्याय किया है।



इस युवक के जीवन में जो कुछ भी घटा है उसमें अभी निर्णायक मोड़ आएगा। वह खुशहाल जिंदगी जीने के लिए बेहतर नागरिक बनने की कोशिश करेगा। कल्याणकारी राज्य सरकार को भी इस आदिवासी युवक के जीवन को संवारने के लिए आगे आना चाहिए।



अच्छा समाज तभी बनेगा जब न्याय जल्दी होगा, न्याय में इतना विलंभ नहीं होना चाहिए कि वह अन्याय जैसा लगने लगे।कवि क्रिस्टोफ़र हिचन्स ने कहा है कि “कभी भी अन्याय और मुर्खता को मौन साधे मत देखना, कब्र में मौन रहने के लिए बहुत समय मिलेगा"।

 


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