राजीव खण्डेलवाल, पूर्व केन्द्रीय मंत्री असलम शेर खान ने आज सुबह मुझे मैसेज कर प्रशांत किशोर के बाबत् राय पूछी। तदानुसार उन्हें अपनी बेबाक राय लिखते-लिखते वह एक लेख के रूप में ही परिवर्तित हो गई, जो रूबरू प्रस्तुत है।
प्रशांत किशोर राजनीति के खेल में ‘‘ब्रांडिंग’’ लाने के लिए जाने जाएंगे। 2014 के चुनाव में प्रथम बार चुनाव के परिणाम के बाद प्रशांत किशोर का नाम सार्वजनिक रूप से आया व चर्चित हुआ। मोदी की जीत में प्रशांत किशोर की नई नीति ब्रांडिग की रणनीति का महत्वपूर्ण योगदान माना गया। तब से प्रशांत किशोर भारतीय राजनीति में ‘‘विभिन्नता में एकता’’ लिए हुए ‘‘नीतिगत मूल्यों की सिंद्धान्त की राजनीति से दूर’’ एक रणनीतिकार के रूप में चल निकले हैं। उन्होंने बहुत ही चतुराई से उन्हीं राजनीतिज्ञ व राजनीतिक दलों (भाजपा, जेडीयू, आप, तृणमूल कांग्रेस, वाईएसआर कांग्रेस, से डीएमके तक) के लिए रणनीतिकार होकर रणनीति बनाई, जिनकी राजनीतिक जमीनी धरातल काफी मजबूत रही है। इसलिए वे राजनैतिक ‘‘दलों व व्यक्तियों’’ के चुनाव करने की अपनी ‘नीति’ (रण नीति नहीं?) में वे असफल नहीं रहे, और विजय पथ पर पूर्व से चली आ रही विजया पार्टी की सफलता का श्रेय अपने सिर लेते रहे।
परंतु जब वे कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश में वर्ष 2017 में रणनीतिकार बने तो कांग्रेस का जमीनी आधार लगभग समाप्त की ओर हो जाने के कारण प्रशांत किशोर उत्तर प्रदेश कांग्रेस में कोई नई परिणामोंन्मुख जान नहीं ड़ाल पाए। अतंतः वे कांग्रेस को सफलता नहीं दिला पाए व बुरी तरह से असफल हो गए। पिछले आम चुनावों से भी कम सीटें मिली। परन्तु यह असफलता का ‘ठीकरा’ न तो कांग्रेस ने और न ही राजनैतिज्ञ विश्लेषकों व पंडितों ने उनके सिर पर फोड़ा। वो इसलिए कि कांग्रेस की जमीनी सच्चाई को सब जानते थे कि रेत से तेल निकालना आसान काम नहीं है। इसलिए मैं प्रशांत किशोर को शुद्ध रणनीतिकार के रूप में स्वयं के लिए मानता हूं; दूसरों के लिए रणनीतिक सलाहकार के रूप में नहीं। क्योंकि उन्होंने रणनीतिकार बनते समय राजनीतिक दलों को चुनने की सही रणनीति अपनाई, जहां उनकी रणनीति से ज्यादा पूर्व से ही पार्टियों की मजबूत जमीन जीत का आधार थी।
आज की भारतीय राजनीति में सिर्फ एक ‘‘कला’’ (रणनीति) से राजनैतिक युद्ध नहीं जीता जा सकता है। साम, दंड, भेद रण (युद्ध) जीत के पुराने हथियार रहे हैं, जो आज भी उतने ही प्रासंगिक है। ‘‘चार एम’’ अर्थात मनी पावर, मसल पावर, मांब पावर व मीडिया पावर के साथ ही अच्छी रणनीति सफल हो सकती है, यह आज की राजनीति की कड़वी सच्चाई है। प्रशांत किशोर ने 2 अक्टूबर गांधी जयंती से पूर्वी चंपारण के गांधी आश्रम से तीन हजार किलोमीटर की सुराज पद यात्रा शुरू करने की घोषणा की है। जब वे यात्रा पर निकलेंगे और जनता से सीधे रूबरू होंगे, तब वह स्थिति, अभी तक की उनकी कार्यप्रणाली के बिल्कुल विपरीत होगी। क्योंकि रणनीतिकार तो बंद कमरों के अंदर अपने कुछ सलाहकारों के साथ बैठकर ही रणनीति बनाता है। इसलिए प्रशांत किशोर के जनता के बीच जाने पर ही वे धरातल की राजनीतिक सच्चाई को जान पाएंगे, जो उनके लिए एक नया अनुभव भी होगा। और तब वे यदि आगे राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में काम करेंगे, तो ज्यादा सफल हो पाएंगे।
प्रशांत किशोर ने पत्रकारवार्ता में नीतीश कुमार पर निशाना साधते हुए बेरोजगारी व ध्वस्त होती शिक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिंह लगाया। एक रणनीतिकार के रूप में व जेडीयू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के रूप में उन्होंने तब नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने की पूरी रणनीति बनाते रहे। पिछले 15 दिनों से 600 से ज्यादा स्लाइड़ दिखाकर वे कांग्रेस के लिए मुख्य रणनीतिकार बनने के लिए शर्तो के साथ बातचीत कर रहे थे। लेकिन अंततः बात बन नहीं पाई। नई पार्टी और वे रणनीतिकार से राजनेता बनने की और स्वयं की रणनीति बनाने में जुट गए है। यहां प्रशांत किशोर का दोहरा परस्पर विरोधी ‘चेहरा’ दिखता-सा है। स्पष्ट है, राजनीति में आने की संभावना टटोलते व बनाते हुए उन्हे कमरे के अंदर की ब्रांडिग की रणनीति के बजाय जनता के बीच राजनैतिक मुद्दों को तलाशने की रणनीति बनानी होगी।
प्रशांत किशोर ने फरवरी 2020 में ‘‘बात बिहार की’’ कार्यक्रम की घोषणा की थी लेकिन वे शुरू नहीं कर पाए जो उनकी विश्वसनीयता पर एक प्रश्नचिंह अवश्य लगाता है। क्योंकि इस संबंध में उनका स्पष्टीकरण बेहद घिसा-पिटा व गुणदोष (मेरिट) पर आधारित नहीं है।
राजनीति में एक राजनीतिज्ञ रणनीतिकार दूसरों को सफलता अवश्य दिला सकता है, परंतु वह स्वयं के लिए रणनीति लागू करके राजनीति में सफलता दिला दें, ऐसा अवश्यंभावी होना संभव नहीं हो पाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे घर का वकील और डॉक्टर सामान्यतया स्वयं के ‘प्रकरण’ और ‘रोगी’ को देखने की बजाय दूसरे विशेषज्ञों की सहायता अपने आत्मविश्वास को बल देने के लिए लेते हैं। ऐसा ही राजनीति में भी कुछ विशिष्ट योग्य लोग दूसरों को तो ‘‘राजा’’ बनाने की क्षमता रखते है, परन्तु स्वयं नहीं बन पाते है, ‘‘प्रजा’’ ही बने रहना पड़ता है।
राजनैतिक युद्ध के पटल में रणनीति एक हिस्सा अवश्य होती है। परन्तु यदि आपके पास युद्ध लड़ने के समस्त साधन, संसाधन, शस्त्र-अस्त्र, तंत्र नहीं है तो, न तो रणनीतिकार रणनीति बना पाएगा और न ही रण में विजय दिला पाएगा। प्रशांत किशोर की यही सच्चाई व वास्तविक स्थिति है। पर्दे के पीछे काम करना अलग बात है और पर्द से निकालकर जनता के बीच सीधे जाकर काम करना अलहदा कार्य प्रणाली है। इस सच्चाई से प्रशांत किशोर जल्दी ही वाकिफ और रूबरू हो जाएंगे। ईश्वर प्रशांत किशोर को इस नई पारी खेलने के लिए पहली पारी समान ही सफलता प्रदान करें। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ!
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व सुधार न्यास अध्यक्ष हैं)