अफसरों के हाथ ताकत, अधिकारों के लिए संघर्ष करते निर्वाचित प्रतिनिधि

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Shivasheesh Tiwari
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अफसरों के हाथ ताकत, अधिकारों के लिए संघर्ष करते निर्वाचित प्रतिनिधि

मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में नगरीय निकाय (Urban Bodies) और पंचायतों के चुनाव (panchayat elections) की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई है। राजनीतिक दल (Political Parties) और प्रत्याशी चुनावी रस्साकशी में जुट गए हैं। टिकट पाने के लिए मारामारी चल रही है। पंचायतों और नगरीय निकाय के पिछले चुनाव 2014 में हुए थे। अब 8 साल बाद फिर से चुनाव हो रहे हैं। इस बीच प्रदेश में कांग्रेस की सरकार (Congress Government) आई और गई लेकिन पंचायतों और नगरीय निकाय चुनाव नहीं हो सके। इसी से ऐसा लगता है कि इन संस्थाओं के विकास और सुशासन में संविधान वाली भागीदारी कागजों पर ज्यादा है वास्तविक राज तो अफसरों का ही चलता है। 





कहने के लिए तो पंचायतों को जिला सरकार और नगरीय निकायों को नगर सरकार की संज्ञा दी जाती है। हर राजनीतिक दल और सरकार इन संस्थाओं को राजनीतिक महत्व तो देती है लेकिन विकास और सुशासन में उनकी भूमिका कमजोर ही मानी जाती है। अन्य राज्यों में अगर हम नगरीय निकायों और पंचायतों की स्थिति देखें तो मध्यप्रदेश की संस्थाओं की हालत तो सोचनीय है। 





बृहन्मुंबई महानगरपालिका जिसे बीएमसी कहा जाता है, उसकी और भोपाल के बीएमसी की हालात की तो कोई तुलना ही नहीं की जा सकती। केवल संसाधनों की दृष्टि से नहीं बल्कि कामकाज की दृष्टि से भी भोपाल म्युनिसिपल कॉरपोरेशन (Municipal Corporation) की कोई तुलना नहीं हो सकती। मुंबई महानगर पालिका की स्थिति महाराष्ट्र के सरकार के अनुरूप मानी जाती है। देश की आर्थिक राजधानी होने के कारण उनके रिसोर्स बहुत ज्यादा हैं। इसके साथ ही नगर में गवर्नेंस बहुत प्रभावी दिखाई पड़ता है। 





मध्यप्रदेश में इंदौर महानगर पालिका ने जरूर अपनी भूमिका को सही ढंग से अंजाम देकर अपना एक महत्वपूर्ण स्थान देश में बनाया है लेकिन बाकी नगर निगम की स्थिति तो चिंतनीय है। सारे नगर निगम आर्थिक दृष्टि से जर्जर स्थिति में हैं। वेतन भत्तों के भुगतान में ही सारे संसाधन चले जाते हैं। विकास के मामले तो पिछड़ते ही चले जाते हैं। अगर हम संसाधनों की बात छोड़ दें तो मुंबई महानगरपालिका और भोपाल महानगर पालिका की संवैधानिक स्थितियों और नियम कानूनों में क्या अंतर है? लेकिन मुंबई में स्थानीय शासन की गुणवत्ता देखिए और भोपाल स्थानीय शासन की गुणवत्ता देखिए। 



 



इसी तरह के हालात पंचायतों को लेकर भी हैं। दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) सरकार में पंचायतों को जिला सरकार का दर्जा देते हुए बड़ी बड़ी राजनीतिक घोषणाएं की थीं लेकिन जमीन पर कुछ भी हासिल नहीं हो सका। पंचायतों की सर्वोच्चता बताने के लिए पंचायत गजट जैसे प्रकाशन प्रारंभ किए गए थे। हर पंचायत में ऐसे कार्यक्रम आयोजित किए गए थे, जिसमें पंचायत के अंतर्गत सभी सरकारी संपत्तियां चाहे वह स्कूल हों, स्वास्थ्य भवन हों स्टॉप डेम या अन्य कोई संसाधन हो, उनकी लागत को जोड़कर पंचायतों को करोड़ों की सरकारी संपत्तियां सौंपी गई थीं। लेकिन यह सब केवल प्रचार और घोषणा तक सीमित रहा और इसका गवर्नेंस में कोई महत्व स्थापित नहीं हो पाया था। 





कमोबेश ऐसी ही हालत जनपद पंचायत, ग्राम पंचायत में निर्वाचित प्रतिनिधियों की बनी रहती है। निर्वाचित प्रतिनिधि पूरे 5 साल अपने अधिकार के लिए संघर्ष करते रहते हैं। उन्हें जो अधिकार दिए जाते हैं वह भी लालफीताशाही में भटक जाते हैं। निर्वाचित प्रतिनिधियों को वह तो नहीं मिल पाता जो अफसरशाही उपयोग करती रहती है। 





जिला पंचायत अध्यक्ष इस बात के लिए हमेशा संघर्ष करते रहते हैं कि जिला पंचायतों के मुख्य कार्यपालन अधिकारियों की गोपनीय चरित्रावली लिखने का अधिकार उनके पास होना चाहिए। यह तर्कसंगत भी है कि जो अधिकारी उनके अंतर्गत ही कार्य करता है, उसके कार्य का मूल्यांकन तो उनके द्वारा ही किया जाना चाहिए लेकिन यह मांग हमेशा विवादों तक ही सीमित हो जाती है। ऐसी ही स्थिति जनपद पंचायतों (Janpad Panchayat) में बनी रहती है। ग्राम पंचायतों में जरूर ग्राम सचिव काम करते हैं। कई जगह तो वह भी नियमित कर्मचारी नहीं है। पंचायतों की भूमिका वास्तविक रूप से होने की बजाय दिखावटी ज्यादा प्रतीत होती है। 



 



जब मंत्री और मुख्यमंत्री द्वारा अपने अधीनस्थ आईएएस अधिकारियों की गोपनीय चरित्रावली, कार्य का मूल्यांकन करते हुए की जाती है तो फिर जिला पंचायत के निर्वाचित प्रतिनिधियों को यह अधिकार देने में दिक्कत क्यों होना चाहिए? ग्राम पंचायत के सरपंच और पंच तो पॉवर और विकास के पैसे के लिए अफसरों के मुंह ताकते रहते हैं। ऐसे हालात में पंचायतों और नगरीय निकायों को सुशासन की स्थानीय इकाई बनाने के लिए किए गए संविधान संशोधन की भावनाओं को पूरा कैसे किया जा सकेगा?





मध्यप्रदेश में अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों में पंचायत अधिकार तो अभी तक नहीं दिए गए हैं। इस बीच में 10 साल तक कांग्रेस की सरकार रही और उसके बाद बीजेपी की सरकार चल रही है लेकिन आदिवासी क्षेत्र की पंचायतों को संविधान के अंतर्गत दिए गए अधिकार अभी तक नहीं दिए गए हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अभी हाल ही में यह घोषणा की है कि आदिवासी अंचलों की पंचायतों को पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996 ‘पेसा एक्ट’ के तहत निर्धारित सारे अधिकार दिए जाएंगे।  





आदिवासियों को उनके विकास का निर्णय लेने का अधिकार संविधान के अंतर्गत दिया गया है लेकिन अभी तक प्रदेश में आदिवासी अंचलों और पंचायतों को अधिकार नहीं मिल सके। जो अधिकार 26 साल तक नहीं मिले अब यह अधिकार मिल जाएंगे, यह सुखद कल्पना ही की जा सकती है। 





पंचायतों और नगरीय निकाय की कल्पना स्थानीय शासन में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए की गई थी। अगर चार-चार साल तक इन संस्थाओं के चुनाव ही नहीं होंगे तो इन संस्थाओं की उपयोगिता अपने आप समझी जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय हस्तक्षेप नहीं करता तो शायद अभी भी चुनाव होने में संदेह था। 





निर्वाचित जनप्रतिनिधि लोकतंत्र में गवर्नमेंट की भूमिका में होते हैं। अफसरशाही निर्णयों के क्रियान्वयन और नियमानुसार कार्य संचालन के लिए जिम्मेदार होती है। निर्णायक अधिकार निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के पास होते हैं। संवैधानिक रूप से यह बात सही है लेकिन व्यवहारिक रूप से अक्सर इसका उल्टा ही होता है। जिन शक्तियों के हाथ योजनाओं का पैसा खर्च करने के अधिकार होते हैं जिनके हस्ताक्षर से सरकार के खजाने से योजनाओं के क्रियान्वयन की राशि आहरित होती है, असली पॉवर उन्हीं के पास माने जाते हैं। ऐसा ही नगरीय निकायों और पंचायतों के साथ हो रहा है।





क्षेत्रों में जो भी योजनाएं चल रही हैं इनमें जनता की मंशा कितनी शामिल है इस पर कई सवाल हैं? अफसर योजनाएं बनाते हैं और लागू कर देते हैं। इसीलिए कई बार योजनाएं क्रियान्वित हो जाती है लेकिन उनका शहर में जो महत्व होना चाहिए, वह नहीं हो पाता। मध्यप्रदेश में पंचायत राज और नगरीय निकाय कानून 1994 से लागू है। इतने वर्षों के बाद भी आज यह दोनों संस्थाएं अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं। 





बाकी राज्यों की तुलना में मध्यप्रदेश में इन संस्थाओं की स्थिति ज्यादा दयनीय है। इसका कारण शायद प्रदेश में इन संस्थाओं को मजबूत करने के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी मानी जाएगा। इसके साथ ही इन संस्थाओं पर लालफीताशाही हावी होने के कारण भी यह संस्थाएं मजबूती से खड़ी नहीं हो सकी। फिर से चुनाव हो रहे हैं, फिर पॉवर और विकास के पैसे के लिए संघर्ष शुरू हो जाएगा। पूरे 5 साल यही चलता रहेगा कि जनप्रतिनिधि की चलेगी या अफसरशाही ही हावी रहेगी।



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