सूर्यकान्त बाली। कृतयुग के भारतीयों का, चाहे वो आम लोग रहे हों या फिर राज परिवारों के लोग, सोमयाग बहुत ही प्रिय यज्ञ रहा है। यज्ञ के नाम पर जिस संस्था से हमारा परिचय रहा है वह क्रमशः काफी मंहगी और जटिल होती चली गई थी। मनु महराज ने जब प्रकृति के प्रति समर्पण की भावना से प्रेरित होकर यज्ञ नामक पद्धति की शुरुआत की थी, उसमें शुद्धभाव से यह निहित था कि जो प्रकृति हमें इतना दे रही है, हम भी उसे बदले में अपना कुछ दें। अर्थात वह हमारी रक्षा कर रही है, हमारा पालन पोषण कर रही है, हमें जीवन दे रही है तो हम भी उसकी रक्षा की सोचें, उसके जीवन का विस्तार करें।
सोमयाग की शुरुआत: अग्नि को प्रकृति का प्रतिनिधि मानकर, उसमें डाली जाने वाली आहुति को हमारे समर्पण भाव का प्रतीक मानकर जो यज्ञ शुरू हुआ उसमें क्रमशः फैलाव होता गया। यानी यज्ञ नामक एक सरल प्रक्रिया क्रमशः कर्मकाण्ड बन गया। प्रारंभ में ही इस यज्ञ संस्था के साथ दो चीजें अचानक जुड़ गईं। एक ओर जहां अग्नि में आहुति डालते वक्त कुछ बोलना भी चाहिए, इस स्वाभाविक इच्छा-पूर्ति की जगह यजुष मन्त्रों की रचना और यज्ञों में उनके उच्चारण के रूप में हुई। वहां सोमरस का भी आहुति के रूप में उपयोग काफी पहले शुरू हो गया। चूंकि जिसके प्रति पूरा समर्पण हो, लगाव हो उसे हम अपना अतिमहत्वपूर्ण, सर्वस्व दे देना चाहते हैं, इससे पता चलता है कि सोम का स्थान हमारे पूर्वजों के जीवन में काफी महत्वपूर्ण था कि यज्ञ संस्था के शुरू होते ही जो यज्ञ सबसे पहले कुछ आकार ग्रहण कर सका उसका नाम था सोमयाग।
सोम का पहले यज्ञ के रूप में प्रचलन: आज हम नहीं जानते की सोम शब्द का अर्थ क्या है। इसलिए हम उसे किसी नशीले पेय के साथ जोड़कर देखते हैं। ऐसा कुछ नहीं है। पर सोम एक ऐसा पेय जरूर रहा होगा, जो थकान दूर करने में मदद करता होगा और अत्याधिक प्रयोग के बावजूद जो सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक रहा होगा। इसीलिए जहां अग्नि को कुछ समर्पित करने की इच्छा पैदा हुई तो सबसे पहली निगाह सोम पर पड़ी और सोमयज्ञ हमारा सबसे पहला यज्ञ बन गया। जो हमे पसन्द है, वह हमारे देवताओं को भी पसन्द है, इस आधार पर हम देवताओं को सोम अर्पित करने लगे। जैसे-जैसे यज्ञों में इन्द्र की स्तुति का महत्व बढ़ा तो कुछ एसी छवि बना दी गई कि इन्द्र को सोम बहुत पसन्द है। बात यहां तक बढ़ गई कि सोम को ही एक देवता मानकर उसके बारे में मन्त्र लिखे जाने लगे और यह बात इस कदर रेखांकित हुई कि मुनि वेदव्यास ने जब वेदों को अन्तिम आकार दिया तो ऋग्वेद के नौंवे मंडल को ही सोममंडल बनाकर उसमें सोम संबंधी सभी सूक्त लिखे।
कैसी थी सोम की बेल: ऋग्वेद का नौंवा मंडल, जिसमें कुल 113 सूक्त सोम के उपर लिखे गए हैं। जिसका एक मन्त्र 9.5.4 कहता है कि सोम एक लता या घास जैसा होता और काफी समय से देवताओं की बलप्राप्ति का साधन रहा है। नौंवे मंडल में अनेक स्थानों पर सोम के बेल को हरे रंग का और कहीं - कहीं उसे भूरे या लाल रंग का भी कहा गया है। सोम के इस हरे रंग की बेल को, जो कई बार पककर भूरे रंग या लाल रंग की हो जाया करती थी। सोम को हाथों की उंगलियों से ही पीसते और निचोड़ते थे। इन दस उंगलियों के कई तरह के आलंकारिक वर्णन इस नौवें मंडल में दिए गए हैं। चूंकि इस काम में दसों उंगलियों की जरूरत पड़ती है, इसलिए कहीं इन दस उंगलियों को सोम की माताएं तो कहीं इसकी बहने कह दिया गया है।
सोमरस का निर्माण: सोम का रस निकालने के बाद इसमें दूध से बने पदार्थ और शहद मिलाकर इसे स्वादिष्ट बनाते थे। नौवें मंडल के मन्त्रों में दूध से बने पदार्थों और शहद को सोमरस में मिलाने की बात है।
सोमरस से इन्द्र का नाता: इन्द्र हमारे पूर्वजों का प्रिय देवता रहा है। किसी भी अन्य देवता की तुलना में इन्द्र को सोमरस बहुत प्रिय था, ऐसा बार बार आता है। बल्कि अकेले इन्द्र को सोमरस इस कदर पसन्द था, कि इस देवता को आगे चलकर ब्राह्मणग्रन्थों और पुराणों में बहुत ही घटिया चरित्र वाला बताया गया। ऐसे इन्द्र के परित्याग की शुरुआत द्वापर युग के अन्त में खुद कृष्ण ने ही कर दी थी। जिन्होंने इन्द्र पूजा को छोड़ गोवर्धन पूजा की परम्परा का सूत्रपात किया था।
कैसा पेय था सोमरस: सोमरस मादक जरूर था और खुद ऋग्वेद बार-बार यह कहता है। आज जैसी शराब न होने पर भी अगर सोमरस में नशा था। तो उसका हश्र क्या हो सकता है, यह ऋग्वेद के आखिरी रचना-वर्षों में लिखे सूक्तों(10.119) से और कृष्ण द्वारा एक झटके में इन्द्र की पूजा सफलता पूर्वक बन्द करवा देने से मालूम पड़ जाता है। कभी सोमयाग, जो शुरू में सिर्फ सुबह के वक्त होता था, फिर बढ़ते बढ़ते एक दिन, दो दिन, तीन दिन तक फैल गया था।
कहां पाई जाती थी यह बेल: वेद में सोम को इन्दु कहा गया है, दोनो शब्द पर्यायवाची हैं। दोनो इस हद तक पर्यायवाची हो गए हैं कि जब इन्दु का अर्थ चन्द्रमा हो गया तो सोम का अर्थ भी चन्द्रमा हो गया। जहां यह बेल मिलती थी वहां इसे सोम कहते थे और चूंकी हम इसे निचोड़ते थे, इसलिए हम इसे इन्दु (निचुड़ा हुआ) कहते थे। सोम बेल चूंकि बाहर से लाई जाती थी। ऋषि कवष ऐलूष ने ऋग्वेद के सूक्त 10.34.1 में सोम को मौजवत यानी मूजवान पर्वत से प्राप्त हुआ कहा है। जो लोग यहां से सोम लेने मुजवान पर्वत जाते थे उन्हे इन्दु खरीदने वाले या इन्दु कह दिया जाता होगा और यह बात बिल्कुल स्वाभाविक नजर आती है। इस आधार पर कुछ शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि हम भारतियों के लिए हिन्दू शब्द सिन्धु के आधार पर बाद में और इस इन्दु के आधार पर पहले ही चल पड़ा होगा। ठीक इसी आधार पर यह निष्कर्ष भी निकाला गया है कि जिसे आज हम हिन्दूकुश पर्वत कहते हैं वह कभी मूजवान रहा होगा।
कैसे बन्द हुआ सोमरस का चलन: हम इन्दुओं के सोम प्राप्ति के लिए मूजवान पर्वत बार बार जाने के कारण उसका नाम इन्दु के साथ जुड़ गया होगा। बस इसमें एक ही आशंका बाकी बचती है कि वह हिन्दूकुश कब बना? यहां कुश का अर्थ है संहार। यानी उस पर्वत पर कभी इन्दु लेने गए हिन्दुओं ने वहां के लोगों का संहार किया या वहां के लोगों ने इन्दुओं का संहार किया जिससे तीन बातें हुई होंगी। एक पहाड़ का नाम हिन्दूकुश पड़ गया। दो इस घटना के बाद इन्दू यानी सोम का भारत आना बन्द हो गया होगा और तीन खरीदार न रहने से सोमबेल की देखरेख बन्द हो गई और वह लुप्त हो गई। ये सब अनुमान हैं, जो सही लगते हैं। पर सही ही हैं इसके लिए शोध चाहिए। सोमयाग पर शोध हुए तो निष्कर्ष इस हद तक महत्वपूर्ण होंगे।