संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति अपनी अनुकम्पा से किसी को भी एक बार प्रधान मंत्री बना सकता है और अधिक उत्तेजित होने पर बर्खास्त भी कर सकता है| स्पष्ट बहुमत नहीं होने पर उसकी इच्छा का महत्व बड़ जाता है|
आलोक मेहता । खेल का मैदान हो या व्यापार के लिए बाजार का, दूरगामी सफलता की तैयारी होने पर ही शिखर पर पहुँचने का लाभ मिल सकता है| इसी तरह राजनीति में दूरगामी हितों को ध्यान में रखकर निरंतर प्रयास करने पर ही लक्ष्य पूरे हो सकते हैं| नरेंद्र मोदी उन नेताओं में से हैं, जो तात्कालिक लाभ हानि के साथ अधिक दूरगामी लक्ष्य और परिणामों को ध्यान में रखकर तैयारियां करते रहते हैं| इस दृष्टि से यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि उत्तर प्रदेश और पंजाब विधान सभा के आगामी चुनाव के परिणाम केवल उनकी और भाजपा की जयकार वाली सत्ता से अधिक कुछ ही महीनों में होने वाले राष्ट्रपति के चुनाव , फिर 2024 में वही राष्ट्रपति नई सरकार बनाने के लिए बहुमत साबित कर सकने वाले नेता को आमंत्रित कर सकता है| कुछ हद तक राजनीति के सबसे पुराने खिलाड़ी , शरद पवार, प्रतिपक्ष को एकत्र करने में जुटी ममता बनर्जी भी इसी रणनीति पर काम कर रहे हैं|
राजनैतिक पुस्तकों से प्रभावित राजनीति भारतीय राजनीति में बहुत पहले एक पुस्तक आई थी -" हु आफ्टर नेहरू " | लेकिन 1980 में दुबारा सत्ता में आने के बाद इंदिरा गाँधी दिग्गज नेताओं के रहने के बावजूद कोई पुस्तक नहीं आई कि ' इंदिरा के बाद कौन "? 1984 में उनकी नृशंस हत्या के बाद जल्दबाजी में केबिनेट के वरिष्ठतम मंत्री के नाते प्रणब मुखर्जी का जीवन परिचय हम जैसे पत्रकारों को बटवा दिया गया| लेकिन कांग्रेस के अन्य नेताओं और तत्कालीन राष्ट्रपति जैलसिंह ने राजीव गाँधी को प्रधान मंत्री बना दिया| वी पी सिंह, चंद्र शेखर और नरसिंह राव के प्रधान मंत्री बन सकने पर कोई पुस्तक नहीं आई थी| हाँ, 1993 में मेरी एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी - " राव के बाद कौन "| किताब में मैंने राव के विकल्प हो सकने वाले प्रमुख नेताओं में शरद पवार, अर्जुन सिंह, माधव राव सिंधिया, राजेश पायलट, चंद्र शेखर और अटल बिहारी वाजपेयी पर एक - एक अध्याय उनकी राजनीतिक ताकत और कमजोरियों पर लिखे थे| हिंदी की यह पुस्तक अधिक बिकी भले ही न हो, राजनीतिक गलियारों में सर्वाधिक चर्चित हुई| पुस्तक से थोड़े खिन्न नरसिंह रावजी ने तो एक समारोह में कह भी दिया " राव के बाद कौन जैसी और किताबें लिख ली जाएं, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता| " फिर अलग से भेंट होने पर मुझसे कहा - " आपके मित्र सिंधिया और राजेश को प्रधान मंत्री बनने की जल्दी क्या है ? " मैंने विनम्रता से इतना ही उत्तर दिया कि आपको प्रसन्न होना चाहिए कि आपके युवा सहयोगी भी प्रधान मंत्री बनने की क्षमता रखते हैं| ' बहरहाल बाद में सिंधियाजी और उनके कुछ सहयोगी यह आशंका करते रहे कि इस किताब में नाम आने के कारण ही राव ने उन्हें हवाला कांड के आरोप में फंसा दिया| यह बात अलग है कि बाद में इस विवाद के सभी आरोपी अदालत ने दोषमुक्त करार दिए| लेकिन राव के रवैयों से कांग्रेस विभाजित हो गई| 1996 के लोकसभा चुनाव में किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने संख्या बल के आधार और कुछ हद तक अपनी पसंद के अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का निमंत्रण देकर प्रधान मंत्री बना दिया| इसके बाद तो संख्या बल, जोड़ - तोड़ और गठबंधन से दो - तीन बार केंद्र में सरकार बनी| राष्ट्रपति की भूमिका हमेशा महत्वपूर्ण रही|
पार्टी अध्यक्षों के लिए राष्ट्रपति चुनाव कितना महत्वपूर्ण राष्ट्रपति की शक्ति के सन्दर्भ में एक और घटना क्रम का उल्लेख उचित होगा| राजीव गाँधी से बहुत नाराज होने के बाद राष्ट्रपति जैलसिंह ने एक बार मेरी उपस्थिति में ही उनके करीबी पुराने कांग्रेसी विद्याचरण शुक्ल से यह तक कह दिया कि " तुम पचास सांसदों से दस्तखत कराकर ले आओ, तो मैं तुम्हें ही प्रधान मंत्री की शपथ दिला दूंगा बाद में तुम बहुमत जुटा लेना। " उस समय राष्ट्रपति राजीव गाँधी को बर्खास्त करने की सोचने लगे थे| लेकिन न तो शुक्ल ऐसा प्रयास कर सके और फिर कई दबाव और सलाह से जैलसिंह उन्हें बर्खास्त नहीं कर सके| मतलब यह कि संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति अपनी अनुकम्पा से किसी को भी एक बार प्रधान मंत्री बना सकता है और अधिक उत्तेजित होने पर बर्खास्त भी कर सकता है| स्पष्ट बहुमत नहीं होने पर उसकी इच्छा का महत्व बड़ जाता है| ममता बनर्जी भी 2024 में एक गठबंधन के बल पर किसी अनुकूल नेता को राष्ट्रपति के रुप में देखना चाहती हैं |
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में ममता और उनके समर्थक नेताओं को लगता है कि पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, ओड़िसा, तमिलनाडु, केरल, झारखंड, महाराष्ट्र, राजस्थान और दिल्ली विधान सभा के सदस्यों और ऐसे ही क्षेत्रीय दलों के सांसदों के बल पर यदि प्रतिपक्ष का संयुक्त उम्मीदवार होने से उनकी पसंद का राष्ट्रपति बन सकता है| यही कारण है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा और उनके समर्थक किसी भी कीमत पर उत्तर प्रदेश और पंजाब सहित अन्य राज्यों की विधान सभाओं में सर्वाधिक संख्या में अपने विधायक लाना चाहते हैं| पांच विधान सभाओं में करीब 690 विधायक चुने जाने हैं| फिर आबादी के अनुसार उत्तर प्रदेश के 403 और पंजाब के 117 विधायकों के मत राष्ट्रपति चुनाव में छोटे राज्यों से अधिक उपयोगी होंगे|
अब कौन होगा अगला राष्ट्रपति इस मुद्दे से जुड़ा दूसरा सवाल है - कोविन्दजी के बाद राष्ट्रपति कौन ? परम्परानुसार डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के बाद किसी को दुबारा राष्ट्रपति पद नहीं मिला| मोदीजी की पसंद से भाजपा के किसी नेता के राष्ट्रपति बनने की सम्भावना पर इस समय कोई शायद सही नाम नहीं बता सकता, क्योंकि 2017 में किसी ने भी नहीं कल्पना की थी कि मोदीजी थोड़ा पहले ही राज्यपाल बने रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बना देंगें| वैसे डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा और श्रीमती प्रतिभा पाटिल को राज्यपाल रहने के बाद यह पद मिला था| लेकिन वे दोनों कई दशकों से विधायक, सांसद, मंत्री रह चुके थे| इस समय भाजपा सरकार द्वारा नामजद राज्यपालों में कलराज मिश्रा, भगत सिंह कोश्यारी पुराने अनुभवी और संघ से जुड़े नेता हैं| भाजपा के केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्यों अथवा सांसदों या मुख्यमंत्री में एक लम्बी सूची इच्छुकों की बन सकती है| लेकिन अन्य दलों के सहयोग की जरुरत होने पर राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान, गुलाम नबी आज़ाद जैसे नाम भी सामने आ सकते हैं| आख़िरकार, भाजपा ने डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाया था| कश्मीर के नाम पर गुलाम नबी के अलावा पुराने दावेदार, हिंदुत्ववादी और कांग्रेसी डॉक्टर कर्णसिंह भाजपा के लिए अनुकूल हो सकते हैं| जबकि कश्मीर के ही पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला वर्षों से इस दौड़ में हैं| ममता खेमा तो शरद पवार, फारूक के अलावा नवीन पटनायक जैसा कोई नाम आगे बढ़ाने की कोशिश कर सकती हैं| इसलिए वह स्वयं विभिन्न राज्यों की राजनीति, पार्टियों और नेताओं से सम्बन्ध बढ़ाने में लगी हैं| स्वाभाविक है - चुनाव के दूरगामी नतीजों वाला खेल तो अब शुरू हो रहा है|