नीतीश कुमार, राहुल गाँधी, तेजस्वी लालू यादव, अखिलेश मुलायम यादव क्या महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर के नाम व आदर्शों की दुहाई नहीं देते? लगातार देते हैं, फिर बिहार व उत्तर प्रदेश की सत्ता की राजनीति और विकास के रथ के आगे जातीय जन गणना की मांग के अंगारे क्यों उछाल रहे है? बिहार तो गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी के तीर्थ स्थानों का केंद्र शताब्दियों से है। जैन, बौद्ध और सिख धर्म का आधार ही जाति व्यवस्था का उन्मूलन है। इसी तरह ईसाई धर्म में जाति का कोई प्रावधान नहीं है। भारत देश के मूल वैदिक ग्रंथों के श्लोकों में जातियों का उल्लेख नहीं मिलता। वर्तमान दौर में हिन्दू धर्म और हिंदुत्व के प्रबल समर्थक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक (वर्तमान और पूर्व भी) जाति व्यवस्था के बजाय सम्पूर्ण समाज ( अल्पसंख्यक को भी ) केवल हिंदू और भारतीय कहे जाने के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं।
जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया के आदर्शों पर आंदोलन करने वाले नेता नीतीश, लालू, मुलायम आदि सत्ता में आने और रहने के लिए समय समय पर अपनी जाति— बिरादरी के वोट बंटोरने के लिए जातीय सशक्तिकरण के मद्दे उठाने लगते हैं। महात्मा गांधी, नेहरू, इंदिरा गांधी की तस्वीर और कांग्रेस के सिद्धांतों का दावा करने वाले कांग्रेसी भी गठबंधन से सत्ता सुख के लिए सारे आदर्श भुला जातीय दर्शन बखान करने लगते हैं। आज़ादी के बाद जातीय आग को भड़काने में कांग्रेस की सीढ़ियों से चढ़े और भटके वीपी सिंह की भूमिका सबसे भयावह और शर्मनाक अध्याय के रूप में याद की जाती रहेगी। अब बिहार में नीतीश कुमार और जद (यू) के पास पर्याप्त बहुमत नहीं हैं, लेकिन अधिसंख्य भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से मुख्यमंत्री पद मिला हुआ है। अपनी राजनीतिक और सरकार की कमियों से आने वाले संकट से बचने के लिए नीतीश कुमार ने एक बार फिर जातीय जन गणना पर बैठकें बुलाकर मांग को तेज कर दिया है। यह मांग कुछ अन्य राज्यों में पहले भी उठती रही है। इस कारण कांग्रेस की मनमोहन सोनिया नेतृत्व वाली सरकार ने सहयोगी दलों को खुश रखने के लिए 2011 की जन गणना जातीय आधार पर कराने की कोशिश की थी। वैसे भी मनमोहन सरकार आधे मन से काम करती थी। इसलिए बाद में सरकार ने कह दिया कि जन गणना रिपोर्ट में कई गड़बड़ियां है और उसे प्रकाशित ही नहीं किया गया।
सत्ता का समीकरण सुधारने का फार्मूला
यह विवाद सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया। पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने अपना पक्ष रखते हुए स्पष्ट कह दिया कि जातीय आधार पर जन गणना संभव ही नहीं है। लगभग 110 वर्ष पहले यानी 1931 में ब्रिटिश सरकार द्वारा की गई जन गणना में करीब 4147 जातियों का उल्लेख था, लेकिन आज़ादी के बाद 2011 में हुई जन गणना में जातियों की संख्या कई गुना अधिक बताई गई। इसका कारण यह है कि विभिन्न प्रदेशों - क्षेत्रों में एक ही जाति के अलग—अलग नाम से जाना जाता है। यही नहीं अलग ढंग से बोला और लिखा जाता है। जाति - उप जाति के आधार पर पार्टी, नेता, चुनावी उम्मीदवार और घोषणा पत्र तथा उनके लिए अधपके वायदे होते हैं। जातीय सम्मेलनों में नेता पगड़ी, दुपट्टा, तलवार आदि से सम्मान करवाकर जय—जयकार करवाते हैं। सत्ता में आने के बाद सबके कल्याण का संकल्प करते हैं, लेकिन सत्ता का समीकरण गड़बड़ाने पर नहीं, जातीय फार्मूला याद आ जाता है।
जाति के मुद्दे पर हो रही केवल राजनीति
बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने नीतीश की कमजोर नस दबाने के लिए जातीय आधार पर जन गणना की मांग कर दी तो बेबस नीतीश के जनता दल (यू) ने भी समर्थन कर दिया और किनारे बैठी राहुल गांधी की कांग्रेस के नेता भी समर्थन में अपना कन्धा दे दिया। अब इस पर बिहार सरकार औपचारिक बैठकें करती रहेगी। संभव है कि प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार और राष्ट्रपति को भेजा जाए। इस राजनीतिक दांव पेंच का एक दिलचस्प पहलु भी है। केंद्र सरकार में जद (यू) के मंत्री हैं। जब केंद्र सरकार कोई पक्ष रखती है तो सामूहिक जिम्मेदारी के नाते वे मंत्री भी भागीदार होते हैं। इसी तरह बिहार सरकार में भाजपा शामिल है। नीतीश के फैसले में उसके मंत्री शामिल हैं। फिर जातीय जन गणना पर दोनों दलों के विरोधाभासी रुख सामने आ रहे हैं। यह साबित करता है कि इस मुद्दे पर केवल राजनीति हो रही है। जनता को भ्रमित करने का खेल बिहार की समस्याओं के समाधान और प्रगति में रोड़े अटकाने वाला ही है।
संघ साफ कर चुका है अपना नजरिया
जहां तक भाजपा और राष्ट्रीय स्ववयं सेवक संघ की बात है, वह अपने घोषित हिंदुत्व के सिद्धांत और मुद्दे को नहीं बदल सकती है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने जीवन का अधिक समय संघ के साथ रहकर बिताया है। संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने स्पष्ट शब्दों में कह रखा है कि " जाति व्यवस्था पर विचार करने का कोई कारण नहीं है, वह जाने वाली है। उसे खत्म करने का प्रयास निरंतर करना होगा।" संघ भाजपा और पहले कांग्रेस भी आरक्षण के मुद्दे पर क्षेत्रीय जातीय दलों से असहमत रही है। इसलिए जन गणना में जातीय आधार के बजाय नागरिकों - परिवारों की आमदनी का विवरण रखा जाना चाहिए। इससे सामाजिक आर्थिक स्थितियों में सुधार के लिए पर्याप्त तथ्य रहेंगे। जैसे पिछड़े वर्ग में आरक्षण का लाभ कुछ प्रभावशाली जातियों के परिवारों को मिल जाता है तथा अन्य जातियों के लोग पीछे ही रह जाते हैं।
अब समय आ गया है नीति में बदलाव का
एक समय था जब राजीव गांधी ने प्रधान मंत्री बनने के बाद मुझे एक इंटरव्यू (2 मार्च 1985 ) के दौरान आरक्षण के विरुद्ध तीखी टिप्पणी करते हुए कहा था ' आरक्षण की पूरी नीति पर ही नए सिरे से विचार होना चाहिए। सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए यह व्यवस्था की गई थी, लेकिन पिछले वर्षों के दौरान इसका राजनीतिकरण हो गया। अब हमारा समाज बहुत बदला है और तरक्की हुई है। अब समय आ गया है, जब हमें इस नीति और सुविधाओं पर विचार करना है। हमें वास्तविक दबे कुचले पिछड़े गरीब लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था रखना होगी, लेकिन यदि इसका विस्तार किया गया तो योग्य लोग कहीं नहीं आ पाएंगे। हम अति सामान्य बुद्धू लोगों को बढ़ा रहे होंगे और इससे पूरे देश को नुकसान होगा।" यह बात प्रमुखता से छपी, लेकिन कोई विरोध नहीं हुआ। आज शायद किसी पार्टी का नेता ऐसी बात सार्वजनिक रूप से नहीं कहेगा। बाद में तो राजीव गांधी मंत्रिमंडल के सहयोगी वीपी सिंह ने विद्रोह कर बोफोर्स तोप खरीदी के सौदे में कमीशन और भ्रष्टाचार के मुद्दे के साथ मंडल आयोग की सिफारिश और आरक्षण को लेकर सत्ता की राजनीति का लाभ दो वर्ष अवश्य उठाया, लेकिन फिर उनकी सरकार ही चली गई। अब बिहार में तेजस्वी यादव का साथ लेने के लिए अग्रसर राहुल गांधी के सहयोगी कांग्रेसी जातीय जन गणना और आरक्षण का समर्थन करने लगे हैं। इसलिए इस तरह के अनावश्यक मुद्दों पर भटकाने से क्या कुछ राजनीतिक दल व्यापक जन समर्थन और चुनावी लाभ पा सकेंगे ?
( लेखक आई टी वी नेटवर्क इंडिया न्यूज़ और दैनिक आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं )