राहुकाल से लोकतंत्र के निकलने की शेषकथा!

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राहुकाल से लोकतंत्र के निकलने की शेषकथा!

"इमरजेन्सी के काले धब्बे इतने गहरे हैं कि भारत में जब तक लोकतंत्र जिंदा बचा रहेगा तब तक वे बिजुरके की भांति टंगे दिखाई देते रहेंगे"





चाटुकारिता भी कभी-कभी इतिहास में सम्मान योग्य बन जाती है। आपातकाल के उत्तरार्ध में यही हुआ। पूरे देश भर से चाटुकार कांग्रेसियों और गुलाम सरकारी मशीनरी ने इंदिरा गांधी को जब यह फीडबैक दिया कि आपकी लोकप्रियता चरम पर है, जनता आपको अपना भाग्यविधाता मानने लगी है, तब इंदिरा गांधी का मानस बना कि क्यों न लगे हाथ आम चुनाव करा लिए जाएं। संजय गांधी के हठ के बावजूद वे चुनाव करवाने के फैसले पर डटी रहीं। यदि वे संजय गांधी के चुनाव न करवाने व इमरजेन्सी जारी रखने की राय को मान लेतीं तो संभवतः आज भी हम हिटलरी युग में जी रहे होते। पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अपनी किताब "द जजमेंट" के लिए एक इंटरव्यू में संजय गांधी ने बेबाकी से ये बातें कहीं थी। यद्यपि नैय्यर ने उस इंटरव्यू के अंश "द जजमेंट" की बजाय "बियांड द लाइंस" में छापे हैं।





कुलदीप नैय्यर लिखते हैं- इमरजेंसी पर मैं एक किताब लिख रहा था, एक दिन कमलनाथ मुझसे मिले उन्होंने कहा कि संजय गांधी से मिले बिना इमरजेन्सी के बारे में कैसे लिख सकता था। कमलनाथ मुझे 1 सफदर जंग ले गए और संजय से अकेले में मुलाकात कराई। उन्होंने मुझसे पहले जनता पार्टी के भविष्य के बारे में बात की फिर इमरजेन्सी को लेकर बातें हुईं। नैय्यर की "बियांड द लाइंस" में इंटरव्यू का सार संक्षेप जस का तस कुछ यूँ है-" मेरा पहला प्रश्न यह था कि उन्हें इतना भरोसा क्यों था कि उन्हें इमरजेन्सी, अधिकारवादी सत्ता और इनसे जुड़ी ज्यादतियों का फल नहीं भुगतना पड़ेगा? संजय गांधी ने जवाब दिया- उन्हें कोई चुनौती दिखाई नहीं दे रही थी। वे 20-25 साल या इससे भी ज्यादा वर्षों तक इमरजेन्सी को जारी रख सकते थे, जब तक कि उन्हें भरोसा न हो जाता कि लोगों के सोचने का तरीका बदल गया है। संजय ने मुझसे कहा- उनकी योजना के अनुसार कभी कोई चुनाव न होते और वे बंशीलाल जैसे क्षेत्रीय सरदारों और आग्याकारी प्रशासनिक अधिकारियों की मदद से दिल्ली से ही पूरा देश चलाते रहते। यह एक अलग तरह की सरकार होती और सबकुछ दिल्ली से ही नियंत्रित होता। मुझे याद आया कि इमरजेंसी के दौरान कमलनाथ ने मुझे एक किताब की पांडुलिपि दी थी, जिसमें इसी तरह के विचारों को व्यक्त करते हुए इस शासनतंत्र का विस्तार से वर्णन किया गया था। तो फिर आपने चुनाव क्यों करवाए? मैंने संजय गांधी से पूछा। उनका कहना था "मैंने नहीं करवाए"।  वे शुरू से इसके खिलाफ थे, लेकिन उनकी माँ नहीं मानी। आप उन्हीं से पूछिए। संविधान और मौलिक अधिकारों को देखते हुए इस तरह की व्यवस्था कैसे चल सकती थी? मैंने संजय से पूछा। उन्होंने कहा इमरजेन्सी हटाई ही न जाती और मौलिक अधिकार स्थगित ही रहते।"





संजय की मंडली से इंदिरा को था अज्ञात भय





इमरजेन्सी के दरम्यान ऐसा पहली बार हुआ जब इंदिरा गांधी ने संजय गांधी के हठ के सामने सरेंडर नहीं किया। सुदीर्घ अनुभव से वे जानती थीं कि वे वास्तव में शेर की सवारी कर रही हैं और इसका कहीं न कहीं तो कोई मुकाम तय है। दूसरे संभवतः उन्हें संजय की मंडली से अज्ञात भय भी लगने लगा था कि बेटे की ये चंडाल-चौकड़ी न जाने देश को कहां ले जाकर छोड़ेगी। नैय्यर "बियांड द लाइंस" में लिखते हैं-इंदिरा गांधी इस आधिकारिक खुफिया रिपोर्ट से प्रभावित थीं कि उनकी लोकप्रियता अपने चरम पर है। संजय गांधी ने जब सुना कि वे चुनाव करवाने की सोच रहीं हैं तो वे आगबबूला हो गए। वे आने वाले कई वर्षों तक चुनाव नहीं चाहते थे। माँ बेटे के बीच इस विषय को लेकर काफी गरमागरमी भी हुई, लेकिन इंदिरा तो इंदिरा थीं, जो ठान लिया सो किया। संजय गांधी ढीले पड़ गए। नैय्यर लिखते हैं -चुनाव कराने की जो भी बाध्यताएं रही हों, लेकिन इस बात की स्वीकृति थी कि कोई भी व्यवस्था लोगों की सहमति और प्रोत्साहन के बिना नहीं चल सकती थी।





संजय ने इसलिए छीन लिया गुजराल का मंत्री पद





संजय गांधी सत्ता के समानांतर केंद्र नहीं बल्कि धुरी बन चुके थे इसलिए वे समय-समय पर यह अहसास दिलाने से नहीं चूकते थे कि पीएमओ उनके इशारे पर चलता है। पीएन हस्कर पीएमओ में सचिव व एएन धर प्रमुख सचिव थे। ये दोनों ही जब संजय के प्रभाव में नहीं आए तो इन्हें सबक सिखाया गया। हस्कर को न सिर्फ पीएमओ से दफा करवा दिया अपितु उनके रिश्तेदारों के यहां छापे भी डलवाए। दरअसल संजय ने इमरजेंसी घोषित होने के साथ ही लगाम अपने हाथों में ले ली थी। पहला सफल दांव सूचना प्रसारण मंत्री इंद्रकुमार गुजराल पर आजमाया। इमरजेन्सी लागू होने के 24 घंटे के भीतर ही उन्हें "प्रेस को ठीक" करने का सबक दिया। गुजराल ने दो टूक जवाब देते हुए कहा कि वे उनकी माँ के सहकर्मी हैं न कि उनके गुलाम। गुजराल के इस जवाब के बाद उन्हें कैबिनेट से हटवाने में बारह घंटे भी नहीं लगे। 28 जून को विद्याचरण शुक्ल देश के सूचना प्रसारण मंत्री बन गए। फिर प्रेस संस्थाओं का जो हाल हुआ वह दुनिया ने देखा। संजय के दूसरे पट्ठे बंशीलाल थे, जिन्हें हरियाणा से लाकर उनके मुँह मांगा रक्षामंत्री पद दे दिया। साथ ही बनारसी दास को हरियाणा के मुख्यमंत्री बनाते हुए कहा कि वास्तविक निर्देश बंशीलाल के ही चलेंगे।





रातों रात ​बदल दिए गए एमपी के मुख्यमंत्री





देश के गृहमंत्री थे ब्रह्मानंद रेड्डी, पर चलती थी ओम मेहता की, जो इसी मंत्रालय में राज्यमंत्री थे। देश के बड़े प्रशासनिक अधिकारियों का इंटरव्यू आरके धवन और संजयगांधी खुद लेते थे तथा स्वामिभक्ति के संकल्प के अनुसार उन्हें प्रभावी पदों पर बैठाया जाता था। राज्यों के मुख्यमंत्रियों पर लगाम कसने का काम यशपाल कपूर का था, जो इंदिरा जी के ओएसडी थे। कुल मिलाकर संजय गांधी, विद्याचरण शुक्ल, बंशीलाल, ओम मेहता, आरके धवन और यशपाल कपूर ही देश के नियंता थे, और मोहम्मद यूनुस इंदिराजी के एम्बसडर एट लार्ज जो इंदिरा जी के निजी दुश्मनों की खबर रखा करते थे। कैबिनेट के अन्य सदस्य इस कदर भयभीत थे मानों बस उनकी गिरफ्तारी होने ही वाली है। अस्सी साल के  उमाशंकर दीक्षित अपमानित कर कैबिनेट से निकाले जा चुके थे। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पीसी सेठी पर किसी बात को लेकर संजय गांधी का नजला गिरा, उन्हें रातों रात हटाकर श्यामाचरण शुक्ल को मुख्यमंत्री बना दिया गया। इमरजेंसी का डर कांग्रेस के भीतर भी गहराई से बैठ गया था। सबके सब संजय गांधी से डरे और सहमें हुए थे उन्हें यह मालूम था कि इंदिरा गांधी संजय के सामने विवश हो चुकी हैं।





सरकार तय करने लगी अखबारों के संपादक





इमरजेन्सी काल में लोकतांत्रिक संस्थाओं की जो गत की गई यदि संविधान मनुष्य रूप में जीवंत होता तो निश्चित ही संसद भवन के कंगूरे से कूदकर आत्महत्या कर लेता। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका सभी की भूमिका किसी सामंत के दरवाजे पर खड़े कारिंदों जैसी थी। प्रेस झुके ही नहीं अपितु रेंग रहे थे। इंडियन एक्सप्रेस और रामनाथ गोयनका जरुर कुछ दिनों तक तने रहे। बिडला का हिंदुस्तान टाइम्स समूह इमरजेन्सी का प्रवक्ता बन चुका था। टाइम्स आफ इंडिया और स्टेट्समैन जैसे समूह संजय की चौकड़ी के सामने हुक्का भरते थे। कौन संपादक हो यह विद्याचरण शुक्ल तय करते थे। देश की चारों न्यूज़ एजेंसियों पीटीआई, यूएनआई, समाचार भारती, हिंदुस्तान समाचार को विलोपित कर सरकार नियंत्रित एजेंसी "समाचार" बन चुकी थी। बड़े अखबार समूह खुद ही पाँवों में बिछ चुके थे जो खड़े थे उन्हें अधिग्रहित करने की पूरी तैय्यारी थी। प्रेस कौंसिल आफ इंडिया को भंगकर निष्प्रभावी बनाया जा चुका था। सबकुछ संजय गांधी की योजना के अनुरूप ही चल रहा था जिसपर इंदिरा गांधी की पूरी सहमति थी। जनता सरकार आने के बाद सूचना प्रसारण मंत्री बने लालकृष्ण आडवाणी ने ठीक ही फटकारा था-आपको झुकने के लिये कहा गया तो आप रेंगने लगे।





ज्यूडीशियरी भी बना ली गई थी बंधक





संसद में 42वां संशोधन लाकर हाईकोर्ट को रिट पिटीशन जारी करने के अधिकार सीमित कर दिए गए। आर्टिकल 368 में बदलाव करके यह व्यवस्था बना दी कि संविधान के बदलाव पर ज्यूडिशियल रिव्यू न किया जा सके। इमरजेन्सी की घोषणा ही अपने आपमें संसद नाम की लोकतांत्रिक संस्था पर संहातिक प्रहार था। इंदिरा गांधी ने 25 जून को शाम 5 बजे राष्ट्रपति से भेंट की। रात 11.30 बजे इमरजेन्सी की घोषणा कर दी गई। पत्र में राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को कैफियत दी गई कि कैबिनेट बुलाने का वक्त ही नहीं मिला पाया, जबकि बात यह नहीं थी। दूसरे दिन 26 जून को 90 मिनट की सूचना पर कैबिनेट आहूत की गई जिसमें इमरजेन्सी लागू करने की स्वीकृति ली गई, किसी के चूं चपड़ करने की हिम्मत तक न हुई। पिछले दिनों राजनीति से ज्यूडीशियरी के प्रभावित होने की तल्ख बहस व चर्चाएं गूँजती रहीं। सुप्रीम कोर्ट के चार जजों की ऐतिहासिक प्रेस कान्फ्रेंस हुई। कांग्रेस ने सीजेआई दीपक मिश्र के खिलाफ महाभियोग की मुहिम चलाई। राजनीतिक गलियारों में राजनीतिक सहूलियत के हिसाब से जजों की नियुक्ति और पदोन्नति की भी अनुमानित खबरें चर्चाएं भी चलती रहीं। इनके बरक्स  इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलेगा इमरजेंसी काल में तो लगभग समूची ज्यूडीशियरी ही बंधक बनी हुई थी। तबादले, नियुक्तियों और पदोन्नतियों का ऐसा भी कुत्सित खेल हुआ यह जानने के लिए बीती बातों को सामने लाना और भी जरूरी हो जाता है।





चाटुकारिता से मिलने लगे बड़े-बड़े पद





12जून 1975 को इलाहाबाद के हाईकोर्ट जगमोहनलाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के निर्वाचन के खिलाफ फैसला दिया था। अपील की मियाद 15 दिन की रखी। कुलदीप नैय्यर अपनी किताब में लिखते हैं -फैसले के कई महीनों बाद जब मैं जस्टिस सिन्हा से मिला तो उन्होंने बताया कि एक कांग्रेस के सांसद ने इंदिरा गांधी के पक्ष में फैसला देने के लिए रिश्वत की पेशकश की थी। इसी तरह न्यायालय के एक सहकर्मी ने भी उन्हें उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनाने का प्रलोभन दिया था। इमरजेंसी के दरम्यान जस्टिस सिन्हा किस यातना से गुजरे ये तो एक अलग कहानी है, लेकिन खुद को इंदिरा गांधी का वफादार साबित करने के लिए दिल्ली के एक स्थानीय वकील वीएन खरे ने खुद ही सुप्रीम कोर्ट में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील दायर कर दी। इसी अपील को स्वीकार करते हुए जस्टिस कृष्णा अय्यर ने स्टे दे दिया। बाद में खेर साहब के ऐसे भाग्य खुले कि वे भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद तक पहुंच गए। कुलदीप नैय्यर जो कि स्वयं इमरजेन्सी में गिरफ्तार किए गए थे, उनकी गिरफ्तारी को दिल्ली हाईकोर्ट की जिस खंडपीठ ने अवैध घोषित किया था उसके जज रंगराजन साहब को गोवाहाटी स्थानांतरित कर दिया गया। दूसरे जज आरएन अग्रवाल को पदावनत कर पुनः सेशन जज बना दिया गया। नैय्यर के अनुसार यह इनकी सत्ता की मंशा के खिलाफ गुस्ताखी की सजा थी।





जब तक रहेगा लोकतंत्र, गहरे रहेंगे आपातकाल के काले धब्बे





इमरजेंसी की वैधता का सवाल भी सुप्रीम कोर्ट में आया। सीजेआई एएन रे ने एक पीठ गठित कर उसे यह मामला सौंपा। इस पीठ में एचआर खन्ना, एमएच बेग, वायबी चंद्रचूड़ और पीएन भगवती थे। खन्ना को छोड़ सभी ने इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेन्सी के पक्ष में अपने मत दिए। बाद में परिणाम यह हुआ कि एचआर खन्ना को सुपरसीड कर बेग को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया। अन्य भी बारी-बारी से देश के प्रधान न्यायाधीश बने। इमरजेन्सी में न्यायपालिका का जो भी न्यायाधीश आड़े आया उसे ठिकाने लगाया गया। ग्यारह जजों के तबादले किए गए। इमरजेन्सी में लोकतांत्रिक संस्थाओं की जैसी गति बनाई गई और जिस पार्टी की स्वेच्छाचारी सरकार ने ऐसा किया, कम-से-कम उसका हक तो नहीं ही बनता कि वह सुचिता की दुहाई दे। इमरजेन्सी के कंलक के काले धब्बे इतने गहरे हैं कि भारत में जब तक लोकतंत्र जिंदा बचा रहेगा तब तक वे काले धब्बे बिजुरके की भांति टंगे दिखाई देते रहेंगे। इमरजेंसी वाकई दूसरी गुलामी थी, इसकी दास्तान को जीवंत बनाए रखना इसलिए भी जरूरी है ताकि आने वाली सरकारों को कभी ऐसा कदम उठाने की हिम्मत न पड़े।



जयराम शुक्ल Jairam Shukla आपातकाल की यादें भारतीय लोकतंत्र के काले धब्बे गुजराल का छीना पद चाटुकारों को बना दिया जज संजय की मंडली से डरीं इंदिरा Memories of Emergency dark spots of Indian democracy Gujral's snatched post sycophants made judge Indira scared of Sanjay's troupe