भेड़िए हांक रहे भेड़ों के काफिले!

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भेड़िए हांक रहे भेड़ों के काफिले!

जयराम शुक्ल। हाल ही हमारे आसपास घटी दो घटनाएं किसी भी विवेकी व्यक्ति को विचलित कर देने वाली हैं। पहली- रामकथा का प्रवचन करने आए एक महंत जी व्यासगादी में बैठने के कुछ घंटे पहले ही एक तरुणी का शील हरण कर रावण बन गए। दूसरी- चार बेबस और लाचार महिलाओं को अपनी वृद्धा मां/सास की लाश को एक चारपाई में रखकर पांच किलोमीटर तक अपने कंधों से ढोना पड़ता है। ये घटनाएं इसलिए भी और विचलित करती हैं क्योंकि अपने माननीयों के भाषणों में इनदिनों 'बागों में बहार है' व उनकी मुस्कुराती तस्वीरों से सजे विज्ञापनों में सुराज का स्वप्निल संसार है। 



महंत ने किया दुष्कर्मः पहली बात से शुरुआत करते हैं। युवा महंत जी रीवा शहर में एक बड़े व्यवसायिक प्रतिष्ठान के सौजन्य से रामकथा का प्रवचन देने बुलाए गए थे। पूरा शहर उनकी तस्वीरों के कट्साउट से अटा पड़ा है। यदि बीती रात उनका रावणरूप प्रकट न हुआ होता तो आज मैं इन पंक्तियों को लिखने की बजाय अपने घर के छज्जे से उनकी विशाल शोभायात्रा देखने का पुण्यलाभ ले रहा होता। महंतजी और उनके चेलों ने पंद्रह वर्षीय तरूणी के साथ रीवा के उस राजनिवास में यह दुष्कर्म किया जिसमें विन्ध्यप्रदेश के जमाने में राज्यपाल निवास करते थे। अब वह सर्किट हाउस है तथा मुख्यमंत्री, गवर्नर, मंत्री, आला अफसर विश्राम किया करते हैं। यही निवास साजसज्जा के साथ अगले दिन पधारने वाले मुख्यमंत्री के सत्कार के लिए भी तैय्यार था। महंत जी ने शराब-कबाब के साथ राजनिवास के जिस कमरे में उस युवती को शबाब बनाया उसके ठीक बगल के सूइट में ही सीएम-गवर्नर रुका करते हैं। यह उल्लेख इसलिए किया ताकि आप भी जान लें कि महंतजी कितने पहुँचे हुए तुपक थे। आईजी, कलेक्टर्स और न जाने कितने खेवनहारों के वे गुरू-ईश्वर की भाँति थे जिन्हें वे अक्षय-अभय होने का वरदान दिया करते थे। 



क्या महंत के आश्रम पर चलेगा मामा का बुलडोजरः ऐसे गुरू-ईश्वर के सानिध्य में महापापी अजामिल कसाई भी आकर संत बन जाता है। यह अतिविशिष्ट निवास जिस बंदे के नाम से बुक था वह एक गैंग का सार्पशूटर है जिसपर हत्या, हत्या के प्रयास, डकैती, रहजनी के चालीस से ऊपर मुकदमे हैं, हाल ही वह जेल से जमानत या पैरोल से छूटकर बाहर आया था। महंत के स्वागत में सजी कई होर्डिंग्स में उसकी भी श्रद्धावनत तस्वीरें हैं। फिलहाल वही पुलिस की पकड़ में है महंतजी फरार हैं। हमारे जैसे बहुत से लोग अब यह उम्मीद पाले बैठे हैं कि मामा का बुल्डोजर अब महंत के आश्रम और उसके अपराधी साथी-संगियों के घर को नेस्तनाबूद करने के लिए निकल चुका होगा। अधिकारियों के हाथ में रातों-रात वे कागज आ चुके होंगे जिससे यह साबित किया जा सके कि इन्होंने किस तरह सरकारी भूमि हड़पी और अवैध कब्जा करके मकान खड़ा कर लिया। और यही मकान ही तमाम अपराधिक गतिविधियों के अड्डे हैं। मामा अब बुलडोजर मामा हैं पड़ोस के बुल्डोजर बाबा की तरह और इन्होंने भी नर्मदा तीरे ..."निश्चरहीन करहुँ महि भुज उठाइ प्रण कीन्ह" का संकल्प ले लिया है।



हम दशकों से बाबा के वेश में भेड़ियों को झेल रहे हैंः बचपन से एक कहावत सुनता आ रहा हूँ 'भेडिया धसान' उसका अर्थ अब समझ में आ रहा है। यह मुहावरा भेंडों की उस बेवकूफाना मति की वजह से सिरजा है जिसके चलते वे बिना सोचे गड्ढे में इसलिए गिर जाती है क्योंकि आगे वाली गिर चुकी है। क्या आपको नहीं लगता कि यह भेडिया धसान प्रवृत्ति हमारे समाज की सामूहिक चेतना में स्थायी तौरपर घर कर चुकी है। धर्म और राजनीति दोनों ही समाज को आठोंयाम मथती हैं और इन दोनों पर ही 'भेंडियाधसान' प्रवृत्ति दिनोंदिन गाढ़ी होती जा रही है। अब धरम-करम के ही मामले को लें। आसाराम, रामपाल, रामरहीम, नित्यानंद और न जाने कितने ऐसे अब जेल में हैं जो वस्तुतः भेड़िए थे और जनता को भेंड़ समझकर हांक रहे थे।  धर्मभीरु जनता भेड़ नहीं तो क्या.. एक की पोल खुली, वह जेल गया कि उधर पालकी में दूसरे बिराज दिया। उसे तब तक ढोएंगे जब तक कि वह भी भेड़िया नहीं साबित होता। ये सिलसिला हम दशकों से देख रहे हैं। मिथ्याचार के ढोलढमाके ने हमारे विवेक को कहीं छीन लिया है। 



धर्म का धंधा करते महंतः विवेकानंद, नरेन्द्र से विवेकानंद इसलिए बने कि उन्होंने अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस से सवाल पर सवाल किए। हम धर्म को क्यों माने? काली की पूजा क्यों करें? भगवान के अवतार और उनकी सत्ता पर क्यों विश्वास करें? जब उन्हें इन सभी सवालों के तर्क संगत जवाब मिल गए तब वे नरेन्द्र से विवेकानंद बनने को तैयार हुए। हम देखते हैं कि धर्म के नामपर हर तरफ उल्लू बनाने का काम चल रहा है। कथावाचक संत-महंत लाखों रूपयों के पैकेज और दुकानों के साथ आते हैं, प्रवचन देते हैं धन हाथ का मैल है, लोभ करना पाप है, संयम नियम से रहना हमारी संस्कृति है। बेचारा जजमान सात दिन में सूखकर काँटा हो जाता है इधर पीते-खाते महंत जी के बदन की लालिमा और बढ़ जाती है। आठवें दिन सब चढ़ावा और पैकेज के रूपए लेकर किसी अगले ठिकाने की ओर निकल पड़ते हैं। फिर जब राजनिवास में भोग-संभोग करते हुए पकड़े जाते हैं तब कहीं पता लगता है कि ये तो वही महंत जी हैं जिन्होंने अपने प्रवचन में 'काम को पाप' का मूल बताते हुए हमारे सात दिन खराब किए थे। 



पापी धर्म की ओर ऐसे खिंचे चले आते हैं जैसे गुड़ की ओर मक्खीः पापी धर्म के पास पतंगे की तरह खिंचा जाता है। हमारे धर्मशास्त्र में कर्म को ही धर्म का पर्याय बताया गया है। दिनभर पाप करने और शाम को संझाबाती करके हरिनाम की माला जपने से पापी कभी नहीं तरते यह समझ लेना चाहिए। एक बार परसाई जी ने लिखा-थाने के परिसरों में बजरंगबली का मंदिर बना देने से क्या पुलिस वाला साधू हो जाता है। क्या वह रपट लिखने की एवज में रिश्वत लेना बंद कर देता है। क्या मंदिर परिसर में होने वाले उसके सभी धतकरम पवित्र हो जाते हैं। नहीं न। दूसरे शब्दों में कहें तो पापी धर्म की ओर वैसे ही खिंचे चले आते हैं जैसे कि गुड़ की ओर मक्खी। पापी व्यक्ति धर्म में भी स्वार्थ ढूँढता है। जीवन भर पाप करने के बाद मोक्ष का शार्टकट। जिन्दगी शार्टकट नहीं है, उसे तो फुललेंथ तक ही भोगना पड़ेगा भाई। महाभारत में कई ऐसे दृष्टान्त हैं जो धर्म के मर्म को समझने में काम आएंगे। एक दृष्टान्त ब्याध-ब्राह्मण का है। ब्याध यानी बधिक जो उसकी वृत्ति है लेकिन जिस मनोयोग से वह कसाई का काम करता है उसी मनोयोग से अपने वृद्ध मां-बाप की सेवा। समाज में सत्कार्य। वह बताता कि यदि धर्म नाम की कोई वस्तु, कोई प्रवृति है तो यही है- मां-बाप-गुरु की सेवा। व कथावाचक अहंकारी ब्राह्मण ब्याध को अपना गुरु मान लेता है। 



मानवता से ऊपर धर्म को नहीं रखा जा सकताः दूसरी घटना पर चर्चा करें उससे पहले महाभारत का एक और दृष्टान्त। युधिष्ठिर के राजसूय यग्य में सोने का आधा बदन लिए हुए एक नेवला वहां की पवित्र भूमि पर लोटने लगा। किसी ने पूछा तो उसने बताया एक पुण्यभूमि पर लोटा था तो आधा शरीर सोने का हो गया सोचा यहां-वहां से ज्यादा पुण्य हुआ है सो लोटलपेटकर पूरे शरीर को सोने का बना लूं पर ऐसा कुछ हो नहीं रहा। युधिष्ठिर ने राजसूय में करोड़ों-अरबों की मुद्राएं, सोना-चांदी, हीरे, जवाहरात दान दिए थे यहां ज्यादा पुण्य होना चाहिए उस गृहस्थ के बनस्बद। उस गृहस्थ ने अकाल में भी भूखे रहकर यहां तक कि सपरिवार प्राणार्पण करके आए हुए अतिथियों को अपने हिस्से का भोजन अर्पित कर दिया था। अन्न के बचे दानों पर से गुजरने मात्र से नेवले का आधा शरीर सुवर्ण हो गया उसके मुकाबले युधिष्ठिर का राजसूय कहां टिकता है। यह कथा इसलिए उद्धृत की क्योंकि एक ओर हमारा समूचा शहर उस महंत की कथा सुनने के लिए सजा था। कोई बीस लाख रूपये से ऊपर पंडाल और होर्डिंग्स में खर्च हुए होंगे वही यहां से बमुश्किल 17 किलोमीटर दूर चार महिलाएं जो हमारी बहू हैं, बेटी हैं  कन्धों पर चारपाई उठाए पांच किलोमीटर तक अपने वृद्ध मां की लाश ढ़ोने के लिए विवश हैं। इस दृश्य को देखने वालों में वह धर्मालु भी होंगे जिनका धन मंहत के कथा-पंडाल बनाने में शामिल है। उनके मन में चढ़ावे का भी संकल्प रहा होगा। जहां यह घटना घटी उसके पांच किलोमीटर की परिधि में ही कहीं न कहीं कथा-भागवत जरूर चल रही होगी। इस दृष्य पर न जाने कितने धरम-धुरंधरों, श्रद्धालुओं की नजर पड़ी होगी पर कोई नहीं पसीजा। मोबाइल से वीडियो बनाया, वायरल किया और सरकार को गरियाया। क्या यह जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की है? यदि उस महंत के प्रवचन पंडाल के एक होर्डिंग का खर्च के बराबर की ही राशि से कोई उन बदनसीबों की मदद कर देता तो समाज और मानवता को शर्मसार करने वाला यह दृष्य देखने को न मिलता। और हाँ रही बात सरकार की तो कहिए फिर वही दुहरा दूं - अपने माननीयों के भाषणों में इनदिनों 'बागों में बहार है' व उनकी मुस्कुराती तस्वीरों से सजे विज्ञापनों में सुराज का स्वप्निल संसार है।


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