उत्तरप्रदेश में सामाजिक न्याय की लड़ाई का नारा केवल दलितों के लिए ही नहीं, बल्कि पिछड़े वर्ग के लिए भी था। चुनाव में अखिलेश यादव ने ये दिखाने की कोशिश की कि यादव और मुस्लिम के साथ- साथ सारा ओबीसी वोट बैंक भी उसके पास आने वाला है, लेकिन चुनाव नतीजों ने साबित कर दिया है कि बीजेपी को ओबीसी के नेता के बिना भी वोट मिलते हैं। इधर बीजेपी के ओबीसी उपमुख्यमंत्री भी हार गए...
संदीप सोनवलकर । उत्तरप्रदेश में भाजपा की भारी जीत और मायावती की बीएसपी के पतन के बाद सबसे बड़ा सवाल तो सामाजिक न्याय की लड़ाई और दलित वोटों पर होगा। मायावती की तुलना अब यूपी में कांग्रेस से होने लगी है। बीएसपी का वोट भी घटकर 12 प्रतिशत तक आ गया है। उनका ज्यादातर वोट खिसककर बीजेपी के पास चला गया तो साफ है कि अब दलित वोट और उनके सामाजिक न्याय की लड़ाई सीधे कमजोर हो जाएगी।
चुनाव में बीएसपी का वोट खुद मायावती ने नहीं मांगा तो लगा कि शायद ये वोट सरकार के खिलाफ भी जा सकता है, लेकिन चुनाव के अंतिम चरण आते— आते जिस तरह से गृहमंत्री अमित शाह ने बीएसपी की वकालत की उससे साफ हो गया कि दोनों की अंदर खाने मिलीभगत थी और बहनजी ने अपना वोट बैंक बीजेपी में जाने दिया। यही वजह रही कि बीजेपी का यूपी में वोट बैंक दो प्रतिशत तक बढ़ गया। जाहिर है, अब ये वोट बैंक मायावती का नहीं रहेगा।
लाभार्थी बन गए मायावती के वोटर
पिछले दो साल से जब लोग बेरोजगारी और पलायन से परेशान थे, तब बीजेपी ने लोगों को घर और मुफ्त अनाज देकर मायावती के वोट बैंक को लाभार्थी बना दिया। ये वही वोट बैंक है, जिसे कांशीराम और उनके साथ मायावती ने आत्मसम्मान और सामाजिक न्याय जैसी अस्मिता दी थी, लेकिन ये लाभार्थी बनकर अब बीजेपी के साथ चले गए। सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हाथरस में जब दलित लड़की के बलात्कार और रात में जलाने पर भी मायावती नहीं बोली थीं तो लगा कि उन्होंने गलती कर दी और चुनाव में साबित हो गया कि उनके वोटर को लगने लगा है कि सब नेता अपनी— अपनी देखते हैं तो वो भी जो मिल रहा है या दे रहा है, उसे ही क्यों न चुनें? इतना ही नहीं बीएसपी का विकल्प बनने का सपना देख रहे आजाद पार्टी के चंद्रशेखर रावण के सफाये से भी बात साफ हो गई कि दलित वोट पर अब मायावती या रावण की नहीं बीजेपी की पकड़ है।
जाति की राजनीति का सफाया
उत्तरप्रदेश में सामाजिक न्याय की लड़ाई का नारा केवल दलितों के लिए ही नहीं, बल्कि पिछड़े वर्ग के लिए भी था। चुनाव में अखिलेश यादव ने ये दिखाने की कोशिश की कि यादव और मुस्लिम के साथ— साथ सारा ओबीसी वोट बैंक भी उसके पास आने वाला है, लेकिन चुनाव नतीजों ने साबित कर दिया है कि बीजेपी को ओबीसी के नेता के बिना भी वोट मिलते हैं। इधर बीजेपी के ओबीसी उपमुख्यमंत्री भी हार गए।
अब आगे क्या
अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या बीजेपी को लगने लगेगा कि वो बिना मुस्लिम, ओबीसी या दलित नेताओं के भी चुनाव जीत सकती है! जिस तरह से अखिलेश ने यादव, मुस्लिम वोट बैंक बनाया तो क्या चुनाव के बाद उनको वोट देने वाले यादव, मुस्लिम इलाकों को नुकसान देखना होगा! एक बात तो साफ है कि चुनाव में भाजपा के साथ पूरा ब्राह्मण और अपर कास्ट खड़ा रहा। तो क्या यूपी में फिर से अपर कास्ट की राजनीति वापस लौट आएगी और जाहिर है अगर ऐसा होगा तो वर्ग संघर्ष बढ़ेगा...
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)