भारतगाथा-8: भरत: जिनसे मिला इस देश को अपना नाम भारतवर्ष, मत कई मगर मंजिल वही

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भारतगाथा-8:  भरत: जिनसे मिला इस देश को अपना नाम भारतवर्ष, मत कई मगर मंजिल वही

सूर्यकांत बाली । भारत का गुणगान करना तो एक तरह से अपना ही गुणगान करना हुआ। तो भी क्या हर्ज है? गुणगान इसलिए करना है क्योंकि उनको, उन पश्चिमी विद्वानों को जो हमें सिखाने का गरूर लेकर इस देश में आए थे, उनको बताना है कि हमारे देश का जो नाम है, वह वही क्यों है? वे जो अहंकार पाले बैठे थे कि उनके मुताबिक इस फूहड़ देश के बाशिंदों को उन्होंने सिखाया है कि राष्ट्र क्या होता है। राष्ट्रीय एकता क्या होती है। उन्हें बताना है कि इस देश के पुराने, काफी पुराने साहित्य में पूरी शिद्दत से दर्ज है कि भारत नामक राष्ट्र का मतलब क्या होता है और क्यों होता है? और उन तमाम इतिहासकारों को भी, जिन्हें पश्चिमी विद्वानों द्वारा पढ़ाए गए भारतीय इतिहास के आर— पार सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा नजर आता है, यह बताना है कि अपने देश का नाम रूप जानने के लिए उन्हें अपने देश के भीतर ही झांकना होता है।

नामकरण को लेकर कई कथाएं प्रचलित

महाभारत का एक छोटा सा सन्दर्भ छोड़ दें तो पूरी जैन परम्परा और वैष्णव परम्परा में बार-बार दर्ज है कि समुद्र से लेकर हिमालय तक फैले इस देश का नाम प्रथम तीर्थंकर दार्शनिक राजा भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष पड़ा। महाभारत (आदि पर्व-2-96) का कहना है कि इस देश का नाम भारतवर्ष उस भरत के नाम पर पड़ा जो दुष्यन्त और शकुन्तला का पुत्र कुरुवंशी राजा था। पर इसके अतिरिक्त जिस भी पुराण में भारतवर्ष का विवरण है, वहाँ इसे ऋषभ के पुत्र भरत के नाम पर ही पड़ा बताया गया है। वायु पुराण कहता है कि इससे पहले भारतवर्ष का नाम हिमवर्ष था जबकि भागवत पुराण में इसका पुराना नाम अजनाभवर्ष बताया गया है। हो सकता है कि दोनों हों और इसके अलावा भी कुछ नाम चलते और हटते रहे हों। आप खुश हों या हाथ झाड़ने को तैयार हो जाएं, पर आज पुराण-प्रसंगों को शब्दशः पढ़ना ही होगा। जिनमें इस देश के नाम के बारे में एक ही बात बार-बार लिखी है। अपने देश के नाम का मामला है न? तो सही बात पता भी तो रहनी चाहिए। भागवत पुराण (स्कन्ध-5, अध्याय-4) कहता है कि भगवान ऋषभ को अपनी कर्मभूमि अजनाभवर्ष में 100 पुत्र प्राप्त हुए, जिनमें से ज्येष्ठ पुत्र महायोगी भरत को उन्होंने अपना राज्य दिया और उन्हीं के नाम से लोग इसे भारतवर्ष कहने लगे। विष्णु पुराण (अंश 2, अध्याय-1) कहता है कि जब ऋषभदेव ने नग्न होकर गले में बाट बाँधकर वन प्रस्थान किया तो अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को उत्तराधिकार दिया, जिससे इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ गया। इसी बात को प्रकारान्तर से वायु और ब्रह्माण्ड पुराण में भी कहा गया है।

हिंदू परंपरा: भरत के तीन जन्मों का वर्णन

अब बताइए कि जो विदेशी लोग और हमारे अपने सगे उनके मानस पुत्र किन्हीं आर्यों को कहीं बाहर से आया मानते हैं, फिर यहाँ आकर द्रविड़ों से उनकी लड़ाइयाँ बताते हैं, उन्हें और क्या बताएँ? और क्यों बताएँ? क्यों न उन लोगों के लिए कोशिश करें जो जानना चाहते हैं और जिनके इरादे नेक हैं? पर सवाल यह है कि ऋषभ-पुत्र भरत में ऐसी खास बात क्या थी कि उनके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ गया? भरत के विशिष्ट चरित्र का वर्णन करने के लिए इस देश के पुराण साहित्य में उनके तीन जन्मों का वर्णन है और प्रत्येक जन्म में दो बातें समान रूप से रहीं। एक, भरत को अपने पूर्व जन्म का पूरा ज्ञान रहा और दो, हर अगले जन्म में वे पूर्व की अपेक्षा ज्ञान और वैराग्य की ओर ज्यादा से ज्यादा बढ़ते चले गए। इनमें दूसरा जन्म हिरण का बताया गया है। तीन जन्मोंवाली बात पढ़कर तार्किक दिमाग की इच्छा होती होगी कि ऐसी कल्पनाएँ भी भला क्या पढ़नी हुई? कुछ लोग कहना चाहेंगे कि कई बार तर्क का रास्ता ऐसे अतार्किक बीहड़ में से भी निकल आता है। 

जैन परंपरा: ममता के कारण हिरण का जन्म

इस संबंध में जैन परम्परा तर्क के नजदीक ज्यादा नजर आती है जहाँ उनको एक ही जन्म में परम दार्शनिक अवधूत के रूप में चित्रित किया गया है। भरत अपने पिता की ही तरह दार्शनिक राजा थे, बल्कि उनसे भी दस कदम आगे निकल गए थे। जब भरत अपने पुत्रों को राज्य देकर तपस्या के लिए वन गमन कर गए तो आत्मज्ञान में लीन होकर सब कुछ भूल बैठे, लेकिन हिरण के एक छोटे बेशक से बच्चे पर उनकी तमाम ममता टिक गई और इसलिए उन्हें अपने अगले जन्म में हिरण बनना पड़ा। दार्शनिक राजा भरत के बारे में जितनी कथाएं पुराणों में दर्ज हैं वे जाहिर है कि हमें कहीं पहुँचाती नहीं। पर उनके नाम के साथ 'जड़' शब्द जुड़ा होने और उनके नाम पर इस देश का नाम पड़ जाने में जरूर कोई रिश्ता रहा है जिसे हम भूल चुके हैं और जिसे और ज्यादा खंगालने की जरूरत है। 

भरत विलक्षण होंगे, तभी देश को उनका नाम दिया

आज चाहे हमारे पास वैसा जानने का कोई साधन नहीं है और न ही जैन परम्परा में मिलने वाला भरत का वर्णन इसमें हमारी कोई बड़ी सहायता करता है। पर राजा भरत ने खुद को भुलाकर, जड़ बनाने की हद तक भुलाकर देश और आत्मोत्थान के लिए कोई विलक्षण काम किया कि इस देश को ही उनका नाम मिल गया। चूँकि मौजूदा विवरण काफी नहीं, आश्वस्त नहीं करते, कहीं पहुँचाते भी नहीं, पर अगर जैन और भागवत दोनों परम्पराएं भरत के नाम पर इस देश को भारतवर्ष कहती हैं तो उसके पीछे की विलक्षणता की खोज करना विदेशी विद्वानों के वश का नहीं, देशी विद्वानों की तड़प ही इसकी प्रेरणा बन सकती है। पर क्या कहीं न कहीं इसका संबंध इस बात से जुड़ा नजर नहीं आता कि यह देश उसी व्यक्तित्व को सिर आँखों पर बिठाता है जो ऐश्वर्य की हद तक पहुँच कर भी जीवन को सांसारिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक साधना के लिए होम कर देता है?

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