आर्थिक, सामरिक और मिशनरी शक्तियों का मिश्रित अभियान है वैलेन्टाइन

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आर्थिक, सामरिक और मिशनरी शक्तियों का मिश्रित अभियान है वैलेन्टाइन

रमेश शर्मा। इन दिनों भारत में वैलेन्टाइन उत्सव की धूम मची है । यह उत्सव पहले यह एक दिन का हुआ करता था, फिर तीन दिन का हुआ, फिर सात दिन का और अब यह सोशल मीडिया पर पूरे दस दिवसीय धूम मचाये हुए है। इन दस दिनों में किस दिन क्या करना चाहिए इसका भी बाकायदा विवरण दिया गया है और इस विवरण के अनुसार बाजार गिफ्ट पैक से भर गये हैं । कुछ कंपनियाँ तो ऑनलाइन डिलेवरी भी कर रहीं हैं । पूरी दुनियाँ में कोरोना संकट के बावजूद पिछले वर्ष लगभग सवा सौ करोड़ गिफ्ट पैक बिके थे । इस वर्ष यह आकड़े क्या होंगे यह फरवरी के अंत तक पता चलेगा । इसको विस्तार देने और व्यापक बनाने में विश्व की तमाम मार्केटिंग एजेंसियां जुटी हुई हैं । अनुमान है कि इसके पीछे पश्चिमी मिशनरी और आर्थिक शक्तियों की युति है जो संसार की युवा पीढ़ी को आकर्षित करके अपने रंग में रंगना चाहती हैं और गिफ्ट पैक का व्यापार करना चाहतीं हैं ।







भारत में त्यौहारों के पीछे विशेष महत्व:  उत्सव मनाना बुरा नहीं है । भारत में तो प्रतिदिन किसी न किसी उत्सव की परंपरा है । किंतु उन सब उत्सवों के पीछे कोई न कोई दर्शन है, उद्देश्य होता है, समाज को कोई संदेश होता है । उत्सवों के आयोजनों के इस सिद्धान्त के संदर्भ में हम देखें कि वैलेन्टाइन उत्सव का ध्येय क्या है । इस वर्ष जो दस दिवसीय आयोजनों का विवरण जारी हो रहा है उससे कौन जुड़ेगा और और जुड़ने वाले को संदेश क्या है । इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं हैं । बस एक वाक्य यह है कि "छोड़ो पुरानी बातें, आधुनिकता से जुड़ो"। इस वाक्य के आगे तमाम युवा पीढ़ी एकजुट हो जाती है और वह आधुनिक बनने की दौड़ में शामिल होकर अपने "वैलेन्टाइन" की खोज में लग जाती है । चूँकि यह खेल मनौवैज्ञानिक है । जिस ऋतु में यह दस दिवसीय वैलेन्टाइन का प्रोपेगंडा किया जा रहा है । यह बसंत ऋतु है, प्रकृति के परिवर्तन की ऋतु है । पुराने पत्ते झड़ते हैं और नयी कोपले फूटती हैं । नाचने का मन करता है । विचारों में भावनात्मक ज्वार सा उठता है । एक बारीक अंतर यह होता है कि विवेक का भाव कम और भावना का भाव प्रबल होता है । इसीलिये भारतीय चिंतकों ने इस ऋतु में तीर्थाटन, प्रकृति की विशेष सेवा और  सकारात्मक कार्य आरंभ करने की परंपरा डाली थी। जिस किसी ने भी वैलेन्टाइन उत्सव की परंपरा आरंभ की उसने इसी प्राकृतिक मनौविज्ञान का अध्ययन किया और युवा पीढ़ी के बीच में अपनी पैठ बनाना आरंभ कर दी।





शुरू अमेरिका से हुआ बाजार पर कब्जा चीन का: इस वर्ष सोशल मीडिया पर जो दस दिवसीय कार्यक्रम विवरण घूम रहा है उसमें दो प्रकार का मनोविज्ञान काम कर रहा है एक तो बसंत ऋतु की प्राकृतिक विशेषता और दूसरी सहज मानवीय आकर्षण। चींटी से लेकर हाथी तक सभी प्राणियों में जोड़ा बनाने का आकर्षण होता है। मनुष्य में थोड़ा ज्यादा ही है। इसलिये इस वैलेन्टाइन आयोजन में इन दोनों मनोविज्ञान का पूरा उपयोग किया गया है। इस दस दिवसीय आयोजन में यह स्पष्ट नहीं है कि तिथियों का यह निर्धारण किसने किया है, पर इसके निहितार्थ में दो बातें बहुत स्पष्ट हैं। पहली तो यह कि चॉकलेट, टेडीवियर, ग्रिटींग आदि गिफ्ट का बाजार और दूसरा युवा पीढ़ी सब काम छोड़कर दस दिनों तक इन्हीं सब में लगी रहे। इन दोनों बातों से आज की दुनियाँ में चीन को सबसे अधिक लाभ है। आज चीनी गिफ्ट सबसे सस्ता है और पूरी दुनियाँ में छाया है। इन दिनों चीन से सर्वाधिक विचलित भारत और अमेरिका जैसे देशों के बाजार भी चीनी गिफ्ट सामान से भरे पड़े हैं। यह सही है कि वैलेन्टाइन परंपरा न ही चीन से आई है और न  ही इसका चीन से कोई संबंध है। इतिहास में पाँच वैलेन्टाइन पादरियों का उल्लेख मिलता है और पांचो का संबंध रोम से है, लेकिन उत्सव रोम से आरंभ नहीं हुआ है। उत्सव अमेरिका से आरंभ हुआ लेकिन बाजार पर चीन ने कब्जा कर लिया। चीन के नागरिक वैलेन्टाइन में उतने नहीं उलझते जितने भारत या अमेरिका में उलझते हैं। पर चीन वैलेन्टाइन के बाजार का पूरा लाभ उठा रहा है। यह ठीक वैसा ही है जैसे किसी पर्वत शिखर से कोई झरना आरंभ हुआ, उसने दिशा पकड़ी तो धीरे धीरे अनेक जल धारायें मिलने लगतीं हैं। आ मिलने वाली उन जल धाराओं में आपसी कोई तालमेल नहीं होता। कोई पर्वत शिखर की पवित्र धारा भी हो सकती है और कोई किसी ग्राम नगर के गटर का पानी। लेकिन सब आ मिलते हैं चल पड़ते हैं। अपना अपना स्वार्थ साधते हैं और आगे बढ़ते जाते है। धारा को विशाल नदी में बदल देते हैं। ठीक उसी प्रकार यह वैलेन्टाइन उत्सव पूरे संसार में व्यापक हो रहा है ।







अमेरिका और भारत में सबसे ज्यादा मनाने वाले: यह उत्सव अमेरिका से आरंभ हुआ था और आज पूरी दुनियाँ में फैल गया। जो इसे फैला रहे हैं उनके अपने हित हैं। लेकिन इस उत्सव का न तो भारत से कोई संबंध है और न इसके व्यापक होंने में भारत का कोई हित। फिर भी भारत के बाजार वैलेन्टाइन गिफ्ट से भर गये और युवा पीढ़ी खरीद रही है, ऑनलाइन ऑर्डर कर रही है। यदि वैलेन्टाइन को स्मरण करना ही है तो भी शोक सभा होनी चाहिए न कि लड़के लड़कियों के मिलन का तिथिवार कैलेन्डर आना चाहिए। लेकिन बाजार को धन चाहिये जो गिफ्ट विक्री से आयेगा।  चीन की कोशिश है कि सारे युवा भ्रमित रहें, वे अपने देश के सशक्तिकरण का कोई काम न करें न शोध करें  न अनुसंधान करें तभी वे चीन की ओर ताकेंगे। तभी चीन दुनियाँ पर छा सकेगा। चीन की नजर में दो ही देश अधिक खटकते हैं। एक भारत और दूसरा अमेरिका। यह संयोग देखिये कि इन दोनों देशों के युवाओं में ही वैलेन्टाइन उत्सव की सर्वाधिक धूम होती है। अमेरिका में जब यह उत्सव आरंभ हुआ तब इसके पीछे मिशनरीज थीं। उन्होंने आर्थिक शक्तियाँ को सहमत किया। अपने आरंभिक काल से मिशनरी अभियान लोगों को पहले उनकी मूल जड़ो से दूर करता है, उनकी मूल परंपराओं के दोष गिनाकर अपनी ओर आकृषित करता है। लगता है इसी उद्देश्य से मिशनरीज शक्तियों ने अर्थ शक्तियों को तैयार किया,  उन्हें उनके लाभ का गणित बताया और यह अभियान आरंभ हो गया। आज भले उत्सव का स्वरूप वैलेन्टाइन के जीवन या उनकी शहादत की भावना से मेल न खाता हो पर मिशनरीज शक्ति में यह संतोष है कि इस अभियान के बहाने ईसाई पादरी का नाम युवा पीढ़ी के मन में समां रहा है। 





वैलेन्टाइन के पीछे की कहानी:  इसाई परंपरा के इतिहास में कुल पाँच वैलेन्टाइन धर्मगुरुओं का उल्लेख मिलता है। जो दूसरी शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी के बीच हुये। इनमें से कुछ के लिये संबोधन विशप के रूप में मिलता है और कुछ के लिये पादरी संबोधन है। इन में से किसी का संबंध प्रेम से है ही नहीं। भला प्रेम से और प्रेम में नारी सम्मान की परंपरा से यूरोप या अमेरिका का क्या संबंध। यदि इतिहास देखें तो पाँच सौ वर्ष पहले तक तो नारी को मनुष्य ही न माना जाता था। वह केवल भौग्या मानी जाती थी। वहाँ यह धारणा रही है कि वह पुरुष की सेवा के लिये है। इसीलिए वहां कोई पादरी की प्रेम गाथा आसमान को छुए यह केवल कल्पना लोक की ही बात हो सकती है। इसलिये यूरोप की प्रेम कहानियों में पुरुष प्रधानता ही रही है। प्रेम के लिये यदि कोई संघर्ष भी हुआ तो वह नायिका  का मन जीतने के लिये नहीं अपितु उस तक पहुंचने की बाधाओं को दूर करने के लिए हुआ है। प्रेम करना तो दूर यूरोप की परंपरा में महिला को कोर्ट में गवाही के योग्य भी नहीं समझा जाता था। फिर वैलेन्टाइन तो एक धर्म गुरु थे । जिन पाँच वैलेन्टाइन का उल्लेख इतिहास में मिलता है उनमें से किसी का भी बलिदान तो प्रेम के लिये हुआ नहीं हुआ। फिर भी वैलेन्टाइन नाम से जिन दो किवदंतियों को विस्तार मिला उनमें दो अलग-अलग प्रसंग मिलते हैं लेकिन उनका अंत एक सा है सजा-ए-मौत। एक में कहा जाता है कि रोम के राजा ने सैनिकों और शासकीय कर्मचारियों के विवाह पर पाबंदी लगाई हुई थी। पादरी वैलेन्टाइन चोरी छिपे सैनिकों और सरकारी कर्मचारियों के विवाह कराते थे। इसलिये सम्राट ने गिरफ्तारी आदेश देकर प्राण दंड दिया। एक अन्य कहानी में कहा जाता है कि पादरी वैलेन्टाइन कैथोलिक धर्म का प्रचार कर रहे थे। सम्राट क्लोडियस को यह पसंद न था। उन्होंने पादरी वैलेन्टाइन को बुलाकर बात की, लेकिन वैलेन्टाइन नहीं माने। इससे गुस्सा होकर रोम सम्राट ने उन्हें प्राण दंड दिया। इसमें यह कहा जाता है कि जेल में उन्हे जेलर की नेत्रहीन बेटी से प्रेम हो गया था। अपनी फाँसी से पहले वैलेन्टाइन ने इसी को अपना अंतिम पत्र लिखा था और अपने नेत्र दान किये थे। पत्र लिखने की बात तो में भी आती है पर नेत्र दान की बात आश्चर्यजनक है। चूँकि उस समय तक आँखो की सर्जरी इतनी विकसित नहीं हुई थी कि किसी के नेत्र, किसी और को लगा सकें। यदि यह सब सही भी है तब भी यह स्मृतियाँ शोक की स्मृति हो सकती हैं।  उत्साह, उत्सव और मिलन की नहीं हो सकती।





वैलन्टाइन-डे नहीं बसंत उत्सव मनाएं:  इतिहास के पन्नों पर यदि देखें तो वैलेन्टाइन डे मनाने का सबसे पुराना उदाहरण 1797 का मिलता है। तब एक ब्रिटिश प्रकाशक ने एक भावपूर्ण रचना का प्रकाशन किया। वह रचना बहुत मार्मिक और संवेदना से भरी थी खूब बिकी। इससे प्रकाशकों ने संदेशों का प्रकाशन आरंभ किया, इसके बाद गिफ्ट सिस्टम। अमेरिका में वैलेन्टाइन उत्सव कब आरंभ हुआ इसकी तिथि पर मतभेद है। पर भारत में इसकी शुरुआत 1969 के आसपास मुम्बई की फिल्म नगरी से हुई, तब छपे हुए कुछ ग्रिटींग अमेरिका से आये थे। और देखते ही देखते मात्र पचास वर्षो में पूरे देश में छा गया। बसंत उत्सव में आनंद मनाने, नृत्य गीत की परंपरा भारत भारत में भी है लेकिन यह प्रकृति के पूजन से आरंभ होता है और प्रकृति के प्रति आभार के साथ समापन होता है। इसमें किसी प्रकार की विकृति की संभावना है ही नहीं। इसका आशय यह है कि प्रकृति मन में जो उमंग उत्सर्जित कर रही है उसका प्रकृति की सेवा और लोक कल्याण के लिये कैसे हो न कि लड़के लड़कियों के मिलन की योजना से। यदि किसी घटना को संजों कर उत्सव परंपरा आरंभ करना ही है तो उसे कुछ इस प्रकार आगे बढ़ाया जाये जिससे समाज कुछ सीख सके, अपने भविष्य के निर्माण का संकल्प ले सके। इसलिये आज वैलेन्टाइन के स्वरूप पर विचार की आवश्यकता है।



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