जयराम शुक्ल. गए साल विकास संवाद के ओरछा कॉन्क्लेव में जाते हुए पन्ना से गुजरना हुआ। रास्ते में सामने से आती हुई एक के बाद एक बसों को देखकर चौंका। चौंकने की वजह थी, किसी में गुनौर से गुड़गांव तो किसी में पवई से रोहतक लिखा था। कई और बसों से भी वास्ता पड़ा जिनमें हरियाणा और पंजाब के शहरों के नाम लिखे थे। पहले तो ख्याल आया कि संभव है ये बसें पर्यटकों को पन्ना टाइगर रिजर्व लाती ले जाती हों, लेकिन नहीं पर्यटक भला धूलधक्कड़ खाते बसों से क्यों आएंगे। सोचा चलो पन्ना के अपने मित्र यूसुफ बेग (अब स्वर्गीय) से इसकी तस्दीक किए लेते हैं।
रेलगाड़ी पर्यटक नहीं वनवासियों को ढोकर ले जाती हैं
यूसुफ का संगठन टाइगर रिजर्व से विस्थापित किए गए वनवसियों और खदानों में गिट्टी तोड़ने वाले मजदूरों के लिए काम करता है जिसे अब उनकी पत्नी संभालती हैं। यूसुफ भाई ने बताया ये कोई नई बात नहीं है। पिछले दस सालों से ऐसी कोई 13 बसें चल रही हैं जो यहां के वनवसियों को पंजाब हरियाणा ले जाती हैं। वे वहां खेतों और ईंट-भट्ठों में काम करते हैं। इधर जब से खजुराहो नई दिल्ली ट्रेन शुरू हुई है तब से बसों की संख्या कुछ कम हुई है। क्या समझते हैं आप-खजुराहो वाली रेलगाड़ी से कोई पर्यटक आते हैं? ये रेलगाड़ी अब भूखे बुंदेलखंड के वनवसियों को ढोकर दिल्ली ले जाती है। वहां से वे हरियाणा, पंजाब जाते हैं। यूसुफ भाई की बातें आंख खोलने वाली थी।
पन्ना..हीरा नहीं अब भूख, बेबसी, उपेक्षा और दमन का पर्याय
पन्ना का ग्लैमर आपके लिए हीरे से जुड़ा होगा। एक फिल्म का गाना भी है-पन्ना की तमन्ना है कि हीरा मुझे मिल जाए..। पन्ना का मतलब शेष दुनिया के लिए हीरा ही है। पर्यटकों के लिए दहाड़ मारते बाघ भी। पर मेरे लिए पन्ना... भूख, बेबसी, लाचारी, उपेक्षा, दमन, सरकारी भ्रष्टाचार शोषण का पर्याय है। ये मैं इसलिए कह रहा हूं कि 6-7 साल पहले जब सतना के एक अखबार का संपादन कर रहा था तब ये सबकुछ साक्षात देखा। एक बार हीरे पर स्टोरी करने गया। लौटा घास की रोटी खाकर जिंदा रहने की लड़ाई लड़ रही गुजरतिया की व्यथा लेकर। देवेन्द्रनगर के राजापुर गांव की गुजरतिया की खबर बाद में अन्य अखबारों की भी सुर्खियां बनीं।
बुंदेलखंड पैकेज का प्रोटीन तो इंजीनियर, अफसरों की देह लगा
बुंदेलखंड पिछले दशक सूखे से बेहाल था। केन्द्र सरकार ने अरबों का मोटा पैकेज दिया पर इस पैकेज का प्रोटीन इंन्जीनियरों, अफसरों की देह लगा। कागज में मिट्टी के डैम बने, स्कूटर मोटरसाइकिलों से बालू सीमेंट ढोए गए और भी क्या-क्या न हुआ, मुझसे बेहतर वहां की नेता कुसुम महदेले जानती हैं क्योंकि वे ये सबकुछ खुल के बयान कर चुकी हैं। अपनी कोख में हीरे सहेजे और प्राकृतिक सुषमा से सम्पन्न पन्ना नैसर्गिक विरोधाभास की जीवंत मिसाल है। ऐसी गरीबी शायद ही कहीं देखने को मिले।
वनवासियों की गरीबी का समाजवाद
यहां लगभग 30 फीसदी वनवासी हैं। ये वनवासी सभी जाति के हैं। गरीबी का समाजवाद इन्हें एक किए हुए है। पन्ना के आसपास दूरदराज तक कहीं कोई, उद्यम रोजगार नहीं। ये वनवासी वन संपदा,आंवला-चिरौंजी, महुआ, तेंदू जैसे साधनों से जी लेते थे। पिछले एक दशक में इन पर दोहरी मार पड़ी। सूखे की वजह से खुद की खेती चौपट तो हुई ही बड़े किसानों के खेतों में काम नहीं मिला। इधर पन्ना टाइगर रिजर्व का रकबा उत्तरोत्तर बढ़ता गया। वन्यजीव और पर्यावरण का नया सिद्धांत कहता है कि मनुष्य जिए या मरे जानवर महफूज रहें। युगों से वनवासी जंगल में जानवरों के साथ सह अस्तित्व के साथ रहते आए हैं।
जानवरों का वंशनाश तो शहरियों ने किया
जानवर उनके दुश्मन नहीं सहोदर हैं। बाघ तो बघौत देवता। महुआ का पेड़ भी देवता हैं। वन्यजीवों को कभी इनसे खतरा नहीं रहा। जानवरों का वंशनाश तो शहरियों ने किया है। साहब बहादुरों, सामंतों और राजाओं ने। फिर यही लोग लोकतंत्र के खेवनहार बने। जंगल के कानून बनाए और और वनवसियों को जानवरों के लिए सबसे खतरनाक जन्तु घोषित कर दिया। सो जानवर बचाना है तो इन्हें बेदखल करना होगा। इस तरह इस पन्ना टाइगर रिजर्व से 12 वन्यग्रामों के निवासियों को सरकार ने हांका लगवाकर भगाया।
अनपढ़ वनवासी जमीन के बदले जमीन के लिए नहीं अड़े
मातृभूमि से बेदखली का मोल मुआवजे से तय नहीं हो सकता, मुआवजा तो एक दिलासा है। वन विभाग के अधिकारी तर्क देते थे कि मुआवजे की रकम की ब्याज से ये लोग जिंदगी भर बैठ के खा सकते हैं। यही लोभ काम आया और अनपढ़ वनवासी जमीन के बदले जमीन के लिए नहीं अड़े। मुआवजे की रकम लूटने ऑटोमोबाइल वाले टूट पड़े, गांव-गांव दारू की पैकारी वाले पहुंच गए। साल दो साल में सब कुछ स्वाहा। जिनके हाथ-पांव चलते हैं, वे गुनौर टू गुड़गांव बस में बैठकर ईंट-भट्ठों या खेतों में पहुंच जाते हैं और जो गुजरतिया जैसे असहाय हैं...उनके सामने बस वही..।
पन्ना में नहीं हैं तो यहां के मूल वनवासी
सो पन्ना में हीरा है, हरीतिमा है, बाघ हैं, शुद्व पर्यावरण है, भगवान प्राणनाथ हैं, भगवान जुगुल किशोर हैं, केन के तट पर उस स्विजरलैंड वाले का ट्री हाउस है। यदि पन्ना में नहीं हैं तो यहां के मूल वनवासी। क्योंकि जंगल से खदेड़ दिए गए, क्योंकि अब जमीन नहीं,क्योंकि खेतों में काम नहीं, क्योंकि कोई उद्योग धंधा नहीं। हो सके तो इस क्योंकि का हल निकालिए। यह व्यथा सिर्फ पन्ना के वनवसियों भर की नहीं है। सिंगरौली इलाके में बार-बार विस्थापित होते हुए इनकी कई प्रजातियां विलुप्त हो गई। समाज शास्त्रियों के शब्दों में कहें तो डेमोग्राफिक ट्रांसफॉरमेशन हो गया।
कागजों में रिसॉर्ट के डायरेक्टर हैं लेकिन कप प्लेट धोते हैं !
बांधवगढ़ चले जाइए वहां के वनवसियों की दिलचस्प दास्तां हैं। कई तो महंगे सितारा रिसॉर्ट के डायरेक्टर हैं लेकिन वास्तव में वे वहां कप प्लेट धोते हैं। ये कानूनन जमीन बेच नहीं सकते। सो सेठ लोग अंगूठा लगवाकर साझेदार बना लेते हैं और ये वहीं गुलामी। किनके रिसॉर्ट हैं बांधवगढ़ में, कौन लोग ये सब करवा रहे हैं बताने की ज्यादा जरूरत नहीं..। अनूपपुर, शहडोल हर जगह के वनवासियों की यही विपदा है। मुझे लगता है कि जहां भी वनवासी होंगे उनकी बहुसंख्य आबादी यही झेल रही होगी। जब हम व्यापक पैमाने पर इनकी समस्या पर विमर्श करते हैं तब यहां आकर अटक जाते हैं कि वनवसियों को लेकर सबसे बड़ी समस्या है धर्मांतरण। लेकिन यह क्यों भूलते हैं कि इन तक मिशनरियों को पहुंचने का स्पेस हमारे सिस्टम ने ही दिया है। इस सिस्टम को तोड़िए।
नीतिनियंताओं को इनके बीच बैठाकर समझिए तो..
वनवासी तो हमसे पहले के सनातनी हैं। इनका कुशलक्षेम इनकी संस्कृति, इनकी परंपरा इनकी जीवन शैली में है.. कोई भी हल निकालने से पहले इन्हें एकबार समझने की कोशिश तो करिए, नीतिनियंताओं को इनके बीच बैठाकर।