जब अल्लापल्ली के जंगल में काम सीखने छह महीने के लिए भेजा गया

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The Sootr CG
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जब अल्लापल्ली के जंगल में काम सीखने छह महीने के लिए भेजा गया

1 अप्रैल 1954 को मैंने इंडियन फॉरेस्ट कॉलेज में ट्रेनिंग के लिए आमद दी। देहरादून में दो वर्ष की ट्रेनिंग काफ़ी कठिन थी। इस ट्रेनिंग को सामान्य लोग कभी समझ नहीं सकते। कड़े अनुशासन और मेहनत वाली इस ट्रेनिंग के बाद वहां से निकले प्रश‍िक्षुओं की नियमित नियुक्त‍ि वन विभाग मैदानी इलाकों में करता था। देहरादून की ट्रेनिंग के बाद मैंने सोचा था कि नौकरी ज्वाइन कर कुछ दिन आराम करूंगा। तीन-चार दिन घर में रुकने और परिवार के सदस्यों से मिलने के उपरांत 5 अप्रैल 1956 को चंद्रपुर (महाराष्ट्र) पहुंचा और वन मंडल अधिकारी दक्षिण चांदा कार्यालय में ज्वाइनिंग रिपोर्ट दी। आफ‍िस सुप्रीडेन्टेंट ने मुझे जानकारी देते हुए सुझाव दिया कि डीएफओ साहब बंगले पर ही हैं और मैं वहीं जाकर उनसे मिल लूं। डीएफओ जीबी दशपुत्रे से मिलने उनके बंगले पर पहुंचा। उन्होंने बहुत ही औपचारिक और शुष्क तरीके से बात करते हुए सीधा प्रश्न दाग दिया कि क्या मैं दौरे पर जाने के लिए तैयार होकर आया हूं? मैंने हिचकते हुए उन्हें उत्तर दिया कि तैयार हूं। दशपुत्रे साहब ने कहा कि मेरा दौरा कार्यक्रम तैयार कर आफि‍स में रख दिया गया है। मैं सोचने लगा कि कहां तो मैं यह सोच कर यहां आया था कि कुछ दिन चंद्रपुर में रह कर शहर का आनंद लूंगा, फिल्में देखूंगा और यहां तो मुझे दौरे पर भेजने की तैयारी पहले से ही है। लगभग मैं निराश ही हो गया।



मेरी आजादी पर पहला और बहुत कड़ा प्रहार



डीएफओ दशपुत्रे साहब मुझसे ठीक 10 वर्ष सीनियर थे। अंग्रेजों के ज़माने में उन्होंने 1944-46 बैच में इंडियन फॉरेस्ट कॉलेज देहरादून से ट्रेनिंग ली थी, जो मैंने उनसे 10 वर्ष बाद ली। दक्षिण चांदा वन मंडल सागौन के घने एवं मूल्यवान जंगलों के लिए प्रसिद्ध था। सभी वरिष्ठ अधिकारियों ने मुझसे कहा कि मैं इस मायने में भाग्यशाली हूं कि ट्रेनिंग हेतु मेरी पोस्टिंग साउथ चांदा वन मंडल में हुई है। टूर प्रोग्राम प्राप्त कर उसे ध्यान से पढ़ने लगा। टूर प्रोग्राम से मुझे जानकारी मिली कि अगले 6 महीने तक आलापल्ली में रहना है। वहीं मेरी तनख्वाह मिलती रहेगी और मुझे चंद्रपुर आने की जरूरत नहीं। मुझे महसूस हुआ कि यह मेरी आज़ादी पर बहुत ही कड़ा प्रहार था, परंतु मन मसोसकर रह जाने के अलावा मेरे पास कोई अन्य विकल्प भी नहीं था। दुखी व भारी मन से बस से लगभग 80 मील दूर अल्लापल्ली वन ग्राम पहुंचा। वहां तीन वर्ष सीनियर दो अधिकारियों से मुलाकात हुई। एनके जोशी एसडीओ आलमपल्ली के पद पर पदस्थ थे और एससी अग्रवाल वर्किंग स्कीम ऑफिसर भामरागढ़ ऐहरी जमीदारी के पद पर कार्यरत थे।



जंगल में कैसे कटता हैं वन कर्मियों का जीवन



इन दोनों अधिकारियों से मिलने के बाद कुछ अपनेपन का अहसास हुआ। एससी अग्रवाल ने मुझे अपने घर में लगभग 15 दिन अपने छोटे भाई की तरह रखा। इन्हीं दोनों के मार्गदर्शन में मैंने विभाग की कार्यशैली एवं अन्य कार्य सीखना शुरू किया। डीएफओ साहब ने मेरे निवास के लिए एक फॉरेस्टर हट आवंटित कर दी। अल्लापल्ली वन ग्राम में कर्मचारियों की बड़ी कॉलोनी थी। इस कॉलोनी में कई रेंज ऑफिसर, डिप्टी रेंजर, फॉरेस्टर व फॉरेस्ट गार्ड सपरिवार रहते थे। वन विभाग की वहां एक ट्रेजरी भी थी। ट्रेजरी में धन राशि रखी जाती थी और वहां चौबीस घंटे सुरक्षा गार्ड तैनात रहते थे। वन विभाग के अलग फाइनेंशियल रूल्स थे, जिसके अनुसार काम होता था। अकाउंट सीधे अकाउंटेंट जनरल को भेजा जाता था। वहां विभाग की एक आरा मशीन भी चलती रहती थी। वन विभाग के ट्रक के साथ कुछ हाथी भी रखे गए थे। हाथी लट्ठों को इकट्ठे करने, यहां-वहां जाने और अन्य कामों में मददगार होते थे। एससी अग्रवाल अपने बंगले में अकेले ही रहते थे। बच्चों की पढ़ाई के कारण उनका परिवार चंद्रपुर में ही रहता था। वन विभाग के अधिकारियों एवं कर्मचारियों की सबसे बड़ी समस्या यही होती थी कि उन्हें जंगलों के भीतर या जंगलों के आसपास रहना पड़ता था। वहां बच्चों की पढ़ाई एवं अन्य सुविधाएं साधारणत: उपलब्ध नहीं होती थीं। उन्हें अकेले रहकर परिवार को ऐसे स्थान पर रखना पड़ता था, जहां बच्चों के लिए पढ़ाई एवं अन्य सुविधाएं उपलब्ध हों सकें। इस दोहरी व्यवस्था के कारण सबको दोहरे खर्च भी उठाने पड़ते थे। जो फॉरेस्टर हट मुझे अलॉट की गई थी, उसकी साफ-सफाई एवं अन्य व्यवस्थाएं दुरस्त होने के बाद उसमें लगभग 15 दिन बाद रहने पहुंच गया।



दूर से ही दिख जाते हैं कौन से काटे जाना है पेड़



मुझे जानकारी मिली कि इस हट के बाजू में जो दूसरी हट थी, उसमें दशपुत्रे साहब डीएफओ ट्रेनिंग के लिए मेरी ही तरह रहते थे। हट के चारों तरफ वन कर्मचारी सपरिवार रहते थे। बाद में अहसास हुआ कि वन कर्मचारी किस परिस्थि‍ति रहते हैं और उनकी क्या समस्याएं होती हैं। शायद इसका अहसास दिलाने के लिए मुझे यहां रखा गया होगा। मदद के लिए बैरागी नाम का एक आदिवासी अर्दली मिला। वह घरेलू काम करने के साथ-साथ काम चलाऊ खाना बनाता था। शांत, भोला-भोला, आज्ञाकारी व व्यवहार कुशल बैरागी दौरे में भी साथ जाता। टूर प्रोग्राम के अनुसार मैंने एलचिल व भीमाराम फेलिंग सीरीज के कूपों में मार्किंग कार्य शुरू किया। मार्किंग कार्य में उन वृक्षों पर गेरू का चिन्ह लगाया जाता था, जिन्हें जंगलों को बेहतर बनाने की दृष्टि से, काटकर निकालना जरूरी होता। मार्क किए गए पेड़ों की छाती ऊंचाई एवं जड़ के पास की छाल निकाल खांचा बना कर मार्किंग हैमर और नंबर एमबास कर उसका रिकॉर्ड छपी हुई रिकॉर्ड बुक में रखा जाता था। छाती ऊंचाई पर गेरू का चौड़ा गोल पट्टा भी लगाया जाता, ताकि काटे जाने वाले पेड़ दूर से ही दिखाई दें। यह पूरा काम जंगल विभाग रेस्ट हाउस में कैम्प कर किया जाता था।



डीएफओ ने ऐसे पढ़ाया अनुशासन का पहला पाठ



चंद्रपुर में ट्रकों की सर्विसिंग की कोई व्यवस्था नहीं थी, इसलिए वन विभाग के ट्रकों को सर्विसिंग के लिए नागपुर भेजना पड़ता था। एक बार ट्रक सर्विसिंग के लिए नागपुर भेजा जा रहा था तो मैंने एसडीओ अल्लापल्ली से अनुरोध किया कि यदि अनुमति हो तो मैं इसी ट्रक से नागपुर जाकर अपने रिश्तेदार से मिल कर और वहां कुछ दिन बिता कर वापस लौट आऊंगा। एसडीओ ने इस शर्त पर अनुमति दी कि मैं चंद्रपुर में डीएफओ दशपुत्रे से अनुमति लेने के बाद ही आगे नागपुर जाउंगा। अल्लापल्ली में रहते हुए काफ़ी बोझ‍िल हो चुका था। जैसे ही एसडीओ जोशी ने अनुमति दी मैं खुश होकर ट्रक से चंद्रपुर के लिए रवाना हो गया। डीएफओ ऑफिस के बाहर ट्रक रोककर डीएफओ दशपुत्रे साहब के पास पहुंचकर मैंने छुट्टी मंजूर करने व नागपुर जाने की अनुमति मांगी। डीएफओ साहब ने प्रतिप्रश्न किया कि जब टूर प्रोग्राम में स्पष्ट निर्देश हैं कि आपको छह महीने तक अल्लापल्ली में ही रहकर ट्रेनिंग पूरी करना है तो आप ट्रेनिंग बीच में छोड़ कर यहां कैसे आ गए और नागपुर जाने की अनुमति मांग रहे हैं? मैंने निवेदन करते हुए उनसे कहा कि अपने संबंधी से मिलने के लिए जाना चाहता हूं। उन्होंने स्पष्ट कहा कि आपको ये सब काम ड्यूटी ज्वाइन करने से पहले ही कर लेना चाहिए थे और दो टूक शब्दों में अनुमति देने से मना कर दिया। डीएफओ साहब ने निर्देश दिए कि मैं वापस अल्लापल्ली जाकर अपनी ट्रेनिंग पर ध्यान दूं। मैं अपना सा मुंह लेकर वापस बस से अल्लापल्ली के लिए रवाना हो गया। अनुमति ना मिलने से दुखी एवं निराश था। मन मसोसकर रह गया। अब अहसास होता है कि डीएफओ दशपुत्रे साहब ने यह कदम संभवत: अनुशासन में रहने, आदेशों का पालन करने, मेरे भविष्य को ध्यान में रखकर और एक कुशल वन अधिकारी बनाने की दिशा में उठाया होगा। (क्रमश:)

      (लेखक मध्यप्रदेश के वन विभाग में प्रधान मुख्य वन संरक्षक (PCCF) रहे हैं)


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