रमेश शर्मा । भोपाल. भारत की स्वतंत्रता के लिए कितने बलिदान हुए कितने क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दी। इसका समूचा विवरण इतिहास की पुस्तकों से भी नहीं मिलता। अंग्रेजों के सामूहिक अत्याचार से बलिदान हुए निर्दोष नागरिकों के आकड़े निकाल दें तब भी अंग्रेजों ने जिन्हें फांसी पर चढ़ाया उनकी संख्या हजारों में है। ऐसे ही बलिदानी हैं क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह, अशफाक उल्ला खां और राजेंद्र लाहिड़ी। इन चारों क्रांतिकारियों को काकोरी कांड में फांसी की सजा सुनाईं गई। लेकिन क्रांतिकारी राजेन्द्र लाहिड़ी को तय तारीख से दो दिन पहले ही गोंडा जेल में फांसी दे दी गई। जबकि तीन क्रांतिकारियों राम प्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशनसिह और अशफाक उल्ला खां को 19 दिसम्बर 1927 को फांसी दी गई। ये तीनों क्रांतिकारी उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर के रहे वाले थे। उम्र के लिहाज से अशफाक उल्ला खान सबसे बड़े थे लेकिन कॉर्डिनेशन का काम पं. रामप्रसाद बिस्मिल के हाथों में था।
बिस्मिल का संघर्ष और बलिदान
बिस्मिल का जन्म 11जून 1897 को शाहजहांपुर के खिरनी बाग में हुआ था। उनके पिता का नाम पं मुरलीधर और माता का नाम देवी मूलमती था। परिवार की पृष्ठभूमि आध्यात्मिक और वैदिक थी। इस कारण धार्मिक ज्ञान और सात्विकता उन्हें विरासत में मिली थी। उनमें कविता और लेखन की क्षमता भी अद्वितीय थी। जब वे आठवीं कक्षा में आए तब आर्यसमाज के स्वामी सोमदेव के संपर्क में आए और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गए। 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में सम्मिलित हुए और युवा होने के कारण उन्हें जिम्मेदारी भी मिली। इस सम्मेलन में उनका परिचय लोकमान्य तिलक, डा केशव हेडगेवार, सोमदेव शर्मा और सिद्धगोपाल शुक्ल से हुआ। इन नामों का वर्णन बिस्मिल जी ने अपनी आत्मकथा में किया है। वे तिलक जी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने लखनऊ में तिलक जी की शोभा यात्रा निकाली।
राम प्रसाद बिस्मिल (Ram Prasad Bismil) किताबे लिखते, बेचते और उससे जो भी कमाई होती उसे स्वतंत्रता संग्राम में लगाते थे। उनकी लेखन क्षमता कितनी अद्वितीय थी इसका अनुमान हम इस बात से ही लगाया सकता है कि 1916 में जब उनकी उम्र मात्र उन्नीस वर्ष थी। तब उन्होंने 'अमेरिका का स्वतंत्रता का इतिहास' पर किताब लिख दी। ये किताब कानपुर से प्रकाशित हुई लेकिन जब्त कर ली गई। इस पुस्तक के प्रकाशन के लिए उनकी माता मूलमती देवी ने अपने आभूषण दिए थे, उन्हें बेचकर इसका किताब का प्रकाशन हुआ था। वे 1922 तक कांग्रेस में ही सक्रिय रहे लेकिन 1922 में असहयोग आंदोलन में खिलाफत आंदोलन जुड़ने और चौरा चोरी कांड (Chauri Chaura incident) के बाद उनकी युवा टोली के रास्ते अलग हो गए और वे हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गए। आगे का सारा संघर्ष इसी संस्था के निर्देश पर आगे बढ़ा।
अशफाक उल्ला खां ने दी खजाना लूटने की सलाह
क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खां (Ashfaqulla Khan Freedom struggle) का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को यूपी के शाहजहांपुर में हुआ था। उनके पिता का नाम शफीक उल्ला खां और माता का नाम मजरुंनिशा था। उनका परिवार भी अंग्रेजों से प्रताड़ित था और अंग्रेजों को भारत से निकालने के लिए हुए क्षेत्रीय आयोजनों में सक्रिय रहा करता था। कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में ही उनका परिचय अन्य युवा सेनानियों से हुआ और 1916 के बाद वे क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्र नाथ, केशव चक्रवर्ती आदि के साथ जुड़ गए और 1922 के बाद एक टीम बनी। क्रांति के लिए हथियारों की जरूरत है और हथियारों के लिए अंग्रेजों का खजाना ही लूटा जाना चाहिए।
यह सुझाव सबसे पहले क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खां ने ही दिया था। इसके पीछे उनका तर्क था कि ये पैसा हिंदुस्तान का है, हिंदुस्तानियों का है। इसलिए क्रांतिकारियों ने काकोरी में रेल से जा रहे खजाने को लूटने की योजना बनाई। वे घटना के बाद अज्ञातवास को चले गए । कूछ दिन बनारस में रहे फिर विदेश जाने के लिए दिल्ली गए। जहां अपने एक रिश्तेदार के यहां रुके। वह काकोरी घटना को जानता था इसलिए उसने चुपके से पुलिस को खबर कर दी। इस तरह काकोरी कांड के लगभग एक वर्ष बाद उनकी गिरफ्तारी हो सकी।
रोशनसिह: बचपन से निशानेबाजी की शौक था
क्रांतिकारी ठाकुर रोशनसिह का जन्म 22 जनवरी 1892 को शाहजहांपुर के फतेहगंज जनपद के अंतर्गत ग्राम नवादा में हुआ था । उनके पिता का नाम ठाकुर जंगी सिंह और माता का नाम कौशल्या देवी था। परिवार के पास अच्छी खेती थी पर उनका पूरा गांव अंग्रेजों की वसूली और पुलिस के अत्याचार के विरुद्ध था। उन्होंने बचपन में पढ़ाई के साथ कुश्ती लड़ना और निशानेबाजी भी सीखी थी। वे अद्भुत निशानेबाज थे। उनके बारे में यह प्रसिद्ध था कि वे भागते जंगली जानवर और उड़ते हुए पक्षी पर भी निशाना लगा सकते थे। समय के साथ वे कांग्रेस से जुड़े और असहयोग आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। वे कितने प्रबल आंदोलनकारी थे। इसका नमूना उन्होंने 1920 में बरेली में दिखाया। बरेली में असहयोग आंदोलन चल रहा था। पुलिस दमन करने के लिए आई। उन्होंने एक पुलिस वाले की बंदूक छीन कर हवा में जो गोलियां चलाई पुलिस भाग खड़ी हुई। बाद में गिरफ्तार हुए और दो साल की सजा हुई। जेल से लौटकर वे भी रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गए और क्रांतिकारी आंदोलन में सक्रिय हो गए। वे 1924 जेल से छूटे। उनपर बमरौली कांड का भी आरोप लगा। बमरौली में एक डकैती हुए और एक व्यक्ति मारा गया। पुलिस ने उनपर हत्या और डकैती का मुकदमा बनाया पर वे पुलिस के हाथ नहीं आए। अज्ञातवास को चले गए लेकिन क्रातिकारी गतिविधियों में सतत सक्रिय रहे।
इन क्रांतिकारियों की मिली थी काकोरी कांड में सजा
कांकोरी कांड (Kakori conspiracy) में कुल उन्नीस क्रातिकारियों को सजा मिली थी। यह घटना 9 अगस्त 1925 की है। क्रातिकारियों को स्वतंत्रता संघर्ष के लिए हथियारों की जरूरत थी। हथियारों के लिए पैसा चाहिए था। सूचना मिली कि ब्रिटिश सरकार का खजाना 8 डाऊन सहारनपुर एक्सप्रेस से जा रहा है। क्रातिकारियों ने शाहजहांपुर में बैठक की। इस बैठक में दस प्रमुख क्रांतिकारी उपस्थित थे। बैठक की अध्यक्षता महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद ने की। खजाना लूटने की योजना बनी और 9 अगस्त 1925 को लखनऊ के पास काकोरी रेलवे स्टेशन पर गाड़ी रोककर खजाना लूट लिया गया। इसमें कुल 19 क्रांतिकारियों को आरोपी बनाया गया। इनमें से चार की फांसी की सजा मिली। जबकि 15 क्रांतिकारियों की चार साल या उससे ज्यादा की सजा मिली।
यहां दी गई थी फांसी
जिन क्रातिकारियों को फांसी दी गई। उनमें राजेन्द्र लाहिड़ी, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां और ठाकुर रोशन सिंह थे। फांसी के लिए 19 दिसम्बर की तारीख तय हुई। लेकिन राजेन्द्र लाहिड़ी को निर्धारित तिथि से दो दिन पहले गोंडा जेल में फांसी दे दी गई। जबकि पं राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में, अशफाक उल्ला खां को फैजाबाद जेल में और ठाकुर रोशन सिंह को इलाहाबाद जेल में फांसी दी गई। जिन क्रातिकारियों को कारावास की सजा सुनाई गई। उनमें राम दुलारे त्रिवेदी, गोविन्द चरण, योगेश चंद्र चटर्जी, प्रेम कृष्ण खन्ना, मुकुन्दीलाल, विष्णु शरण दुब्लिश, सुरेन्द्र भट्टाचार्य, रामकृष्ण खन्ना, मन्मन्थ नाथ गुप्ता, रामकुमार सिन्हा, प्रणवेश चंद्र चटर्जी, रामनाथ पांडेय और भूपेन्द्र सान्याल थे।
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