भारतगाथा : वैदिक कविता के कवि कुलगुरु: दीर्घतमा मामतेय

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भारतगाथा : वैदिक कविता के कवि कुलगुरु: दीर्घतमा मामतेय

सूर्यकांत बाली। विश्वामित्र और शुनःशेप के बाद दीर्घतमा मामतेय का वैदिक साहित्य के पटल पर उदय एक बड़े कवि के रूप हुआ था। जिसका समय विश्वामित्र से करीब तीन सौ वर्ष बाद था। जिसने पच्चीस सूक्त लिखकर अपने युग में धूम मचा दी थी। उस समय सौ ऋचा लिखने वाले कवि को शत (सौ) ऋचा लिखने वाला अर्थात शतर्ची कहते थे। शुनःशेप के बाद दीर्घतमा मामतेय ऐसे दूसरे शतर्ची थे। अपनी ऋचाओं यानी कविताओं में उनकी दार्शनिक-मौलिकता इतनी विराट है कि उन्हें वेदों का कवि कुलगुरु मानना सिर्फ उनका ही नहीं, वैदिक कविता का भी सम्मान होगा...





दीर्घतमा मामतेय नाम का कारण...



उशिज के तीन बेटे थे- उचथ्य, बृहस्पति और संवर्त। उचथ्य की शादी भृगुकुल की कन्या ममता से हुई और इन दोनों के पुत्र का नाम था दीर्घतमा। दीर्घतमा के जन्म के पहले ही या उसके शीघ्र बाद उसके पिता उचथ्य का निधन हो गया था। पति की मृत्यु के समय ममता ने पति के साथ ही मर जाने की ठान ली, पर उसके देवर बृहस्पति ने ममता को मरने से रोककर विवाह किया और आगे चलकर दोनों को एक पुत्र हुआ- भरद्वाज। एक ही मां के बेटे होने के कारण दीर्घतमा और भरद्वाज भाई-भाई हुए और दोनों में आपसी स्नेह भी वैसा ही था। पर दीर्घतमा अपने सौतेले पिता को कभी स्वीकार न सका और उन्होंने अपना नाम मां ममता के नाम पर दीर्घतमा मामतेय रख दिया। दीर्घतमा जन्म से अंधा था। जिसके कारण ममता ने नाम दिया दीर्घतमा- जिसके जीवन का अंधेरा बहुत लम्बा है। 





जन्मांध मामतेय क्या महाकामुक थे...



दीर्घतमा के बारे में पुराणों में सन्दर्भ इतने आक्रामक हैं कि एक जन्मान्ध लेकिन महादार्शनिक कवि के बारे में वे न केवल अतिशयोक्तियों से भरे और गैर-सिलसिलेवार हैं, बल्कि दुर्भावनापूर्ण भी लगते हैं। लगता है जीवन के तमाम संदर्भों को किसी खास विद्वेष की वजह से तोड़ मरोड़ दिया गया है, ताकि दीर्घतमा महाकामुक और प्रताड़नीय व्यक्ति नजर आए। सन्दर्भ इस तरह हैं कि दीर्घतमा अन्धा था, पर इतना अधिक सुन्दर और भावुक था कि जहां भी बैठता, वहां उसके स्त्रियों से संबन्ध बन जाते। प्रद्वेषी नामक एक कन्या इसकी प्रतिभा से इतनी प्रभावित हुई कि उसने इससे विवाह कर लिया, पर जल्दी ही उसके अंधेपन और इसकी घोर कामुकता से परेशान होकर, इससे एक पुत्र पाकर उसने इसे अपने मित्रों की सहायता से पानी में बहा दिया। बहते हुए दीर्घतमा आनव (आज के भागलपुर के पास) पहुंचा तो वहां नदी तट पर घूमते राजा इसे बचाकर अपने प्रसाद में ले गया। वहां जाकर कामुकता से लाचार दीर्घतमा ने राजा की पत्नी और दासियों से संबंध बना लिए। पर कुछ पुराणों ने कहा है कि आनव के राजा बलि ने अपनी पत्नी या पत्नियों को इसके पास पुत्र प्राप्ति के लिए भेजा और बाद में दीर्घतमा का विवाह औशीनरी नामक दासी से कर दिया, जिससे उसे काक्षीवन नामक एक प्रसिद्ध पुत्र की प्राप्ति हुई। दीर्घतमा को ढोते-ढोते तंग आकर इसके नौकरों ने इसे मार देना चाहा, पर जन्मान्ध महाकवि फिर बच गया। छह हजार सात सौ वर्ष पहले हुए इस कवि के बारे में जब इतना विवरण मिलता है तो जाहिर है कि वह अपने युग का बहुचर्चित कवि-व्यक्तित्व रहा होगा और निश्चित ही उसे उसकी कामुकता ने कम और उसकी काव्य प्रतिभा ने अधिक चर्चित बनाया होगा। एक धारणा यह है कि अन्धे, लेकिन सुन्दर दीर्घतमा से जब कुछ स्त्रियां संबन्ध बना लेतीं तो बाद में खुद को बचाने के लिए दीर्घतमा का नाम बदनाम कर देतीं। दीर्घतमा ने दुष्यन्त पुत्र भरत का ऐन्द्र महाभिषेक यज्ञ करवाया था, उसी से स्पष्ट है कि इसके चरित्र को लेकर ज्यादा शंकाएं उस वक्त के ऋषि कुलों और राज समाज में नहीं थीं। 





जन्मांध मामतेय की सूक्त रचना...



अपने अन्धे होने का इतना मानसिक कष्ट इस भावुक महाकवि को है। वह इसे अपने मन्त्रों में बार-बार याद करता है। कभी वह अग्नि से कहता है कि आप उसकी सहायता करो जो मन से हवि प्रदान करता है। अश्विनी कुमारों को भी वह अपनी ही तरह मन से यहां-वहां घूमता हुआ अनुभव करता है। अन्धे होने के कारण उसे स्त्रियों के सन्दर्भ में कितना कष्ट भुगतना पड़ा, इसका दर्दनाक वर्णन मिलता है, जहां दीर्घतमा कहता है कि यह स्त्री है, यह पुरुष है, यह सारा भेद शरीर का है और इस भेद को भी कोई आंखों वाला तो जान सकता है, अन्धा भला कहां से जान सकता है? अपनी व्यक्तिगत पीड़ाओं से जब वह हटता है तो लगभग चमत्कारी काव्य रच डालता है। उसने तब के सर्वाधिक महत्वपूर्ण देवता अग्नि पर तो ग्यारह सूत्र लिखे ही, उसने तीन चमत्कारी अभिव्यक्तियां और भी कीं। उसने पहली बार वैदिक कवियों को मित्रावरुणौ और द्यावापृथिवी नामक देवता युग्मों की कल्पना से परिचित कराया। (ऋ. 1.59.2) में वह द्यौ को पिता और पृथ्वी को मां कहकर ही पुकारता है। दीर्घतमा की दूसरी काव्य श्रेष्ठता उसके विष्णुसूक्त (1.154) में नजर आती है। विष्णु यहां सूर्य का वाचक है। अन्धे दीर्घतमा की कल्पना का विकास विष्णु के वामनावतार रूप में हुआ। जिस कवि की एक कल्पना ने पूरी एक पौराणिक परंपरा को जन्म दिया। वह कैसा प्रतिभाशाली महाकवि रहा होगा। दीर्घतमा की प्रतिभा का पूर्ण चमत्कार उसके महादार्शनिक सूक्त (1.164) में मिलता है। बावन मन्त्रों वाला यह विराटकाय सूक्त अपनी दार्शनिकता के कारण अस्यवामीय सूक्त के नाम से मशहूर है। इसी सूक्त में वह महावाक्य है, जिसमें से जैन दर्शन का अनेकान्तवाद विकसित हुआ, एवं इसी सूक्त में सांख्य दर्शन के प्रकृति और पुरुष संबंधी सिद्धान्त का बीज छिपा माना जाता है।





दीर्घतमा का जीवन कितनी विलक्षण घटनाओं से भरा और भाव-विह्वल रहा होगा। जिसके जीवन को बदनाम करने की पूरी कोशिश अंगिरस कुल के उन लोगों ने की, जिन्होंने पुराणों को विस्तार दिया और जो दीर्घतमा से इसलिए क्रुद्ध रहे होंगे क्योंकि आंगिरस कुल का होने के बावजूद जिसने खुद को आंगिरस कहने के बजाय ममता का बेटा मामतेय कहना उचित समझा।



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