कहीं सुप्रीम कोर्ट का समय बर्बाद करने की साजिश तो नहीं हैं ऐसे मामले

author-image
एडिट
New Update
कहीं सुप्रीम कोर्ट का समय बर्बाद करने की साजिश तो नहीं हैं ऐसे मामले

सुदेश गौड़ ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )पिछले 72 घंटों में सुप्रीम कोर्ट को तीन ऐसे मामलों पर फैसले सुनाने पड़े जिनका परिणाम औसत बुद्धि वाले हर भारतीय नागरिक को भी समझ में आ रहा था कि यही फैसला होगा पर फिर भी उन्हें सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सुनवाई व राहत की अपेक्षा के साथ पेश किया गया और समय बर्बाद किया गया। लंबी जिरह व तर्क— वितर्क सुनने के बाद इन मामलों पर फैसला आया। जितना समय इन मामलों में लगा, हो सकता है इतने समय में कई अन्य महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई व निस्तारण हो जाता। मैं तो इसे भारतीय न्याय व्यवस्था की सदाशयता ही मानूंगा कि सबको समान न्याय मिले और देश के हर नागरिक के व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित हो, के मूल सिद्धांत का अनुशरण करने के कारण सभी तरह के मामले सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाते हैं। इन मामलों को देखने और समझने पर ऐसा लगा कि शायद कोर्ट में ये मामले वकीलों की एक लॉबी द्वारा जबरन ले जाए गए थे, ताकि वे अपने मुवक्किल के लिए time buy कर सकें और इसके एवज में मुवक्किल से पर्याप्त आर्थिक लाभ पाया जा सके। यदि ऐसा हो रहा है तो देश की सभी बार कौंसिल को आगे आना चाहिए और भारतीय न्यायपालिका पर बढ़ रहे लंबित मामलों के बोझ को और वजनी बनाने में कम से कम अपना सहयोग तो न करें।

इस गति से तो 350 साल में हो सकेगी Zero Pendancy

उल्लेखनीय है कि अदालतों पर काम का दबाव लगातार बढ़ रहा है। हालत यह हैं कि देश के विभिन्न न्यायालयों में इस वक्त चार करोड़ के करीब मामले लंबित हैं। कोविड काल में पिछले 16 महीने से कोर्टों में सिर्फ अर्जेंट मामले सुने जा रहे थे। आशंका जताई जा रही है कि ऐसे ही चलता रहा तो जल्दी ही लंबित मामलों का आंकड़ा पांच करोड़ को छू लेगा। जिस गति से न्यायालयों में प्रकरणों का निबटारा हो रहा है, उस गति से Zero Pendancy तक पहुंचने में 350 साल से ज्यादा का वक्त लग जाएगा। कोरोना संक्रमण की वजह से सिर्फ आम आदमी ही नहीं न्यायालय भी प्रभावित हुए हैं। पिछले 70 साल में किसी एक साल में सबसे ज्यादा लंबित मामलों में बढ़ोतरी महामारी के दौरान हुई है। आइए, अब उन तीन मामलों पर निगाह डालते हैं...

मामला एक: काले कोट के कारण आपका जीवन दूसरों से कीमती नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार, 14 सितंबर 2021 को वकीलों को फर्जी जनहित याचिका (PIL) दायर करने के लिए अपने विशेषाधिकार का दुरुपयोग करने से आगाह किया।Justice DY Chandrachud, Justice Vikram Nath and Justice BV Nagarathna की बेंच ने कहा कि वकीलों को ऐसी जनहित याचिका दायर करने से रोकने के लिए अदालतों को कदम उठाने पड़ सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट कोविड के कारण 60 साल से कम उम्र के वकीलों की मृत्यु पर उनके परिजनों को 50 लाख रुपए की अनुग्रह राशि देने की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई कर रहा था। अदालत ने टिप्पणी की, "यह एक प्रचार हित याचिका है और सिर्फ इसलिए कि आप काले कोट में हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि आपका जीवन दूसरों की तुलना में अधिक कीमती है। समय आ गया है कि हमें वकीलों को इन फर्जी जनहित याचिकाओं को दर्ज करने से रोकना होगा।" कोर्ट ने याचिकाकर्ता अधिवक्ता प्रदीप कुमार यादव को फटकार लगाते हुए कहा कि याचिका में आधार अप्रासंगिक हैं। कोर्ट ने आगे कहा, "अगर हम आपका आधार देखें, तो एक भी आधार प्रासंगिक नहीं है। कोर्ट ने दोहराया कि COVID के कारण कई लोगों की मृत्यु हो चुकी है और वकीलों के लिए कोई अपवाद नहीं बनाया जा सकता है। अदालत ने याचिका को खारिज करते हुए कहा, "ऐसा नहीं हो सकता है कि वकील इस तरह की जनहित याचिकाएं दायर करें और न्यायाधीशों से मुआवजे की मांग करें और वे अनुमति दें। आप जानते हैं कि बहुत सारे लोग मारे गए हैं। आप अपवाद नहीं हो सकते।"

खोजनी ही होगी जुडिशियल मैकेनिज्म

मेरा मानना है कि वकीलों की ओर से सुप्रीम कोर्ट ले जाया गया यह मामला स्वार्थ की चाशनी में पगा हुआ था। जिस वकील को सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई है वह अपने साथियों के बीच हीरो बनने की कोशिश कर रहा था। भारतीय संविधान में वर्णित समानता के अधिकार का सरासर उल्लंघन है कि कुछ वकील सुप्रीम कोर्ट जाकर अपने लिए विशेष सहायता राशि मांगे। कोर्ट की यह टिप्पणी काफी कठोर है कि आप काले कोट में हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि आपका जीवन दूसरों की तुलना में अधिक कीमती है। ऐसे मामलों को सुप्रीम कोर्ट में आने से रोकने के लिए कोई Judicial Mechanisms तो ढूंढनी ही होगी। ऐसे हर मामले में कोर्ट को भारी आर्थिक जुर्माना तो लगाना ही चाहिए ताकि वकील भी ऐसे मामले हाथ में लेने से डरें।

मामला दो: कानून की तय स्थिति की फिर से जांच की जरूरत नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार, 14 सितंबर 2021 को दोहराया कि आजीवन कारावास की सजा का मतलब कठोर कारावास है न कि साधारण कारावास। Justice L Nageshwara Rao & Justice BR Gawai की बेंच ने इस संबंध में शीर्ष अदालत के 1983 के फैसले की पुष्टि की और कहा कि कानून की तय स्थिति की फिर से जांच करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अदालत दो अपीलों पर सुनवाई कर रही थी, एक हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले की और दूसरी गुवाहाटी उच्च न्यायालय के फैसले की। कोर्ट ने जुलाई 2018 में आजीवन कारावास की सजा देते समय कठोर कारावास निर्दिष्ट करने के औचित्य के सवाल तक सीमित नोटिस जारी किया था। नायब सिंह बनाम पंजाब राज्य में 1983 के फैसले में, शीर्ष अदालत ने कहा था कि "न्यायिक उदाहरणों की कोई कमी नहीं है, जहां सजा की प्रकृति के मामले में, आजीवन कारावास को कठोर आजीवन कारावास के बराबर माना गया है। ...यह माना जाना होगा कि सजा में शामिल सजा की प्रकृति के संबंध में कानून की स्थिति अगर आजीवन कारावास अच्छी तरह से तय हो गई है और आजीवन कारावास की सजा को कठोर आजीवन कारावास के बराबर किया जाना है। 1992 में, सत पत अलीसा साधु बनाम हरियाणा राज्य में सुप्रीम कोर्ट ने नायब सिंह के फैसले को स्वीकार कर लिया था और इस मुद्दे को एक बड़ी बेंच को संदर्भित करने से इनकार कर दिया था। उपरोक्त के मद्देनजर, न्यायालय ने कहा कि इस मुद्दे पर पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं है और वर्तमान याचिकाओं को खारिज कर दिया।

बेवजह के मामलों पर सजा और कठोर हो

इस मामले में मेरा मानना है कि जब किसी अभियुक्त द्वारा इतना गंभीर अपराध किया गया है कि जिसमें कोर्ट आजीवन कारावास की सजा दे रहा है पर अपराधी की मंशा है कि सजा तो मिले पर कठोर न हो। क्या ये माना जाए कि वह जेल में पिकनिक पर आया हुआ है। ऐसी याचिकाओं को सिर्फ खारिज करने से अपराधी तत्व व उनके पैरोकारों सुधरेंगे नहीं। वे अपने स्वार्थ व सुविधा के लिए लंबित मामलों के बोझ से दबी न्यायपालिका पर और बोझ बढ़ाने वाले कारक हैं। ऐसे तत्वों को नियंत्रित कतने के लिए उन पर अत्याधिक आर्थिक जुर्माना लगाया जाना चाहिए। संभव हो तो सजा की प्रकृति और कठोर कर दी जानी चाहिए।

मामला तीन: मर्जी से नहीं मांग सकते तबादला

Supreme Court ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के अक्टूबर 2017 के एक आदेश को चुनौती देने वाली व्याख्याता की एक याचिका को पिछले दिनों खारिज करते हुए यह टिप्पणी की कि कोई भी कर्मचारी किसी स्थान विशेष पर तबादला करने के लिए नियोक्ता पर दबाव नहीं डाल सकता। नियोक्ता को अपनी जरूरत के मुताबिक कर्मचारियों का तबादला करने का अधिकार है। दरअसल, अमरोहा से गौतमबुद्ध नगर तबादला किए जाने पर महिला व्याख्याता के अनुरोध को खारिज किए जाने के खिलाफ लगाई गई अर्जी को SC ने ख़ारिज कर दिया है। Justice MR Shah & Justice Anirudhha Bose की पीठ ने अपने आदेश में यह बात कही है। अमरोहा जिले में पदस्थ एक महिला व्याख्याता ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में दाखिल अपनी याचिका में कहा था कि उन्होंने गौतमबुद्ध नगर के एक कॉलेज में तबादला करने का अनुरोध किया है, पर प्रबंधन ने सितंबर 2017 में इसे खारिज कर दिया। महिला के वकील ने 2017 में हाई कोर्ट में दलील दी थी, कि वह पिछले चार साल से अमरोहा में काम कर रही हैं और सरकार की नीति के अनुसार उन्हें तबादले का अधिकार है। हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि संबंधित प्राधिकार द्वारा पारित आदेश से पता चलता है कि अध्यापिका गौतमबुद्ध नगर के एक कॉलेज में दिसंबर 2000 में अपनी प्रारंभिक नियुक्ति से लेकर अगस्त 2013 तक वहां 13 वर्ष सेवा में रहीं। इसलिए उसी कॉलेज में फिर भेजने का उनका अनुरोध उचित नहीं है। SC ने भी इस आदेश को बरक़रार रखते हुए अपील को ख़ारिज कर दिया।

नियोक्ता के भी अपने अधिकार हैं

इस मामले में मेरा मानना है कि आप नौकरी कर रहे हैं और चाहते हैं कि शर्तें भी आपकी मानी जाएं। यह नियोक्ता का अधिकार है कि आपकी सेवाओं की उसे नियमानुसार कहां उपयोगिता लगती है, उसी के अनुरूप वह आपकी तैनाती करेगा। जिन व्याख्याता का यह मामला है वे अपनी तनख्वाह तो नियोक्ता से लेंगी पर काम वहां करना चाहती थीं, जहां उनकी मर्जी हो। इस अनैतिक मांग को लेकर उनका मामला सुप्रीम कोर्ट तक लेकर जाने वाले अधिवक्ता को भी जिम्मेदार मानकर कार्रवाई की जानी चाहिए। ऐसे मामले संसाधन और समय की बर्बादी तो करते ही हैं, साथ ही कोर्ट पर जबरन काम का बोझ भी बढ़ाते हैं।

सबसे ज्यादा पेंडिंग केस 2020—21 में ही 

भारतीय न्यायपालिका पर लंबित मामलों का पहाड़ पहले से ही है। कानून के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था न्यायाश्रय द्वारा की गई एक रिसर्च में कई चौंकाने वाली जानकारी सामने आई है। इस रिसर्च में नेशनल ज्यूडिशल डाटा ग्रिड द्वारा जारी आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है। विश्लेषण से पता चलता है कि आजादी के बाद पहली बार किसी एक साल में सबसे ज्यादा लंबित मामलों में बढ़ोतरी 2020-21 में हुई है। लंबित मामलों की संख्या में सर्वोच्च न्यायालय में 10.35 प्रतिशत, देश के विभिन्न् उच्च न्यायालयों में 20.4 प्रतिशत और जिला न्यायालयों में 18.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी पिछले एक साल में हुई है। इसके पहले हमेशा यह 4 से 6 प्रतिशत के बीच रहती थी, लेकिन महामारी की वजह से न्यायालयों में नियमित कामकाज नहीं हुआ। इसके चलते प्रकरणों का निराकरण नहीं हुआ और लंबित मामलों की संख्या बढ़ गई। 8 मई 2021 तक देश की अदालतों में कुल 3,84,05,718 यानी करीब चार करोड़ मुकदमे लंबित हैं। 'कोविड इफेक्ट आन इंडियन ज्यूडिशरी" विषय पर हुई इस रिसर्च में पता चला है कि लॉक डॉउन के पहले एक मार्च 2020 को सर्वोच्च न्यायालय में 60469 मामले लंबित थे जो एक मई 2021 को बढ़कर 67 हजार 898 हो गए। मार्च 2020 से 31 दिसंबर 2020 तक सुप्रीम कोर्ट में 52 हजार 353 प्रकरणों की वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए सुनवाई हुई। इस अवधि में उच्च न्यायालयों में 20,60,318 और जिला न्यायालयों में 45,73,159 प्रकरण सुने गए।

केस निस्तारण की गति में तेजी आए 

यह बात भी सामने आई है कि लंबित प्रकरणों की लगातार बढ़ रही संख्या के पीछे न्यायाधीशों की कमी भी एक बड़ी वजह है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश Justice NV Ramana भारतीय न्यायपालिका को लंबित मामलों के बोझ से बचाने के लिए सक्रियता से जुटे हुए हैं। पिछले दिनों उनके नेतृत्व में सर्वोच्च न्यायालय में एक साथ 9 न्यायाधीशों की नियुक्ति की गई है। इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम ने देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों  में नियुक्ति के लिए 68 न्यायाधीशों के नाम की सिफारिश की है। आपको बता दें कि इतनी बड़ी संख्या में सुप्रीम कोर्ट व विभिन्न हाईकोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति/सिफाऱिश का यह पहला मौका है। जब देश की कार्यपालिका और न्यायपालिका लंबित मामलों को निपटाने के लिए सघन प्रयास कर रही है तो सभी बार कौंसिल की भी जिम्मेदारी बनती है कि गैरजरूरी मामलों को कोर्ट ले जाने में सक्रिय भागीदारी तो न निभाएं। न्यायपालिका को भी ऐसी Judicial Mechanism पर काम करना होगा कि नए मामले कम आएं और पुरानों का निस्तारण तेजी से हो।

Supreme Court Conspiracy