सीहोर के जिस बंगले में हम लोग रहते थे, उसके रूफ में मैंगलोर टाइल्स लगी हुई थी। बंगले में कोई सीलिंग भी नहीं थी। बरसात में ऊंची-नीची लगी हुई टाइल्स के कारण पूरे बंगले में जगह-जगह बारिश का पानी टपकता रहता था। पत्नी दोनों छोटे बच्चों को संभालती रहती थीं। सोने वाले कमरे में तो बारिश का पानी जोर-जोर से टपकता रहता था। छोटा बच्चा तो सिर्फ डेढ़ माह का ही था। उसके झूले को रखने के लिए सूखी हुई जगह बड़ी मुश्किल से मिल पाती थी। सूखी जगह के लिए पत्नी को बार-बार झूला यहां से वहां सरकाना पड़ता था। छत की मरम्मत करवाने के बावजूद लीकेज ने पीछा नहीं छोड़ा। उस समय कमरे को सूखा रखने के लिए हमारे पास एक छोटा सा टेबल फैन था। बंगले की सीलिंग में कोई सीलिंग फैन नहीं था।
एक ही परिसर में ऑफिस और आवास होने के दुष्परिणाम
मास्टर बेडरूम से लगा हुआ ऑफिस का हिस्सा था। बच्चे की रोने आवाज के कारण ऑफिस के काम में खलल होना स्वाभाविक था। पत्नी को कई बार कहता कि वे बच्चे को चुप करवा कर रखें। पत्नी भी परेशान होकर कहतीं कि बच्चा छोटा है और उसके रोने पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं रखा जा सकता। मालिश करते समय बच्चा जोर-जोर से रोता था, इसलिए ऑफिस से बिल्कुल विपरीत दिशा में स्टोर रूम में बच्चे को ले जाकर मालिश की जाती थी। मुझे अहसास हुआ कि एक ही जगह ऑफिस और घर होने से हमारे परिवार की आजादी प्रभावित हो रही है। शासकीय सेवा का कोई अनुभव नहीं था। केवल 3 वर्ष ही हुए थे। शासकीय सेवा में फूंक-फूंककर कदम रखने में विश्वास रखता था। मुझे आभास होने लगा कि शासकीय बंगले में ऑफिस रखकर मैंने बड़ी भूल कर दी थी। पूरे बंगले में स्वयं के खर्च पर टेंपरेरी बिजली के तार की लाइन लगवा और अन्य समान खरीदकर बाजू के बंगले से तार खींचकर अनधिकृत बिजली कनेक्शन ले कर पूरे ढाई वर्ष तक खुद के रहवासी और ऑफिस का बिजली बिल का भुगतान करता रहा। वहीं अपने वेतन से प्रत्येक माह पूरे बंगले का किराया भी कटवाता रहा। इस पूरी परिस्थिति में पत्नी ने अत्यंत सहनशीलता का परिचय दिया।
बड़े साहब पर प्रभाव जमाने के लिए कैसे निबटाई जाती थी फाइल
सीहोर में वर्किंग स्कीम के भाग एक और दो का कार्य पूर्ण कर समस्त नक्शों आदि को जमा करने के बाद वर्ष 1961 के अंत में नई पोस्टिंग छिंदवाड़ा में हुई। यहां मेरी आमद एसीएएफ के रूप में ही हुई। यहां डीएफओ के रूप में वीआर नीले पदस्थ थे। चांदा पोस्टिंग के समय उनसे मेरी अच्छी-खासी पहचान और घनिष्ठता हो चुकी थी। चांदा में हम लोग एक ही परिसर बच्चूवार की चॉल में आमने-सामने रहते थे। वहां समय-समय पर हमारा एक-दूसरे के साथ उठना-बैठना तो होता ही रहता था और कभी-कभी मेरे नाम से आए हुए खतों को वे भाप की मदद से खोल लेते थे। खतों को पढ़ने के बाद उन्हें पुनः बंद कर मुझे दे देते और यह सब मुझे बता भी देते थे। चांदा डीएफओ ऑफिस के कमरे में हम लोग एक-दूसरे के सामने लगाई गई टेबलों पर बैठकर काम करते थे। डीएफओ के आने के पूर्व हम दोनों ट्रे में आई फाइलों को इकट्ठा करते रहते थे। डीएफओ पर प्रभाव जमाने के लिए उनके आने के बाद ही उन फाइलों का निबटारा करते ताकि डीएफओ को आभास करा दिया जाए कि हम लोग काफी ध्यानपूर्वक और व्यस्त रहते हुए ऑफिस का काम कर रहे हैं।
सहकर्मी का बॉस बनने पर रुतबा
छिंदवाड़ा पहुंचने के बाद हर्रई वाले जमींदार के बंगले में रह रहे अपने नए बॉस डीएफओ वीआर नीले से मिलने पहुंचा। मैंने पाया कि नीले गंभीर मुद्रा धारण किए हुए एक नए रूप में मेरे समक्ष उपस्थित थे। उन्होंने कोई अपनापन प्रकट नहीं होने दिया। केवल काम की बातें ही कीं। मैं समझता हूं कि उनका यह व्यवहार उचित ही था। पुराना परिचित होने के कारण अनावश्यक लिफ्ट न ले सकूं, संभवत: उन्होंने यह रुख तय किया। वे मुझे यह अहसास भी दिलाना चाह रहे थे कि अब मुझे उनके अधीनस्थ रहकर ही कार्य करना है। छिंदवाड़ा में वर्ष 1961-62 तक 6 माह तक एसीएफ के पद पर कार्यरत रहा।
चुनाव में मिली पीठासीन अधिकारी की जिम्मेदारी
छिंदवाड़ा में पदस्थापना के समय आम चुनाव में पीठासीन अधिकारी के रूप में दो जगह चुनाव करवाने का मौका मिला। प्रिसाइडिंग (पीठासीन) ऑफिसर के रूप में पहला चुनाव छिंदवाड़ा के बड़बन स्थित स्कूल में और दूसरा परासिया के आगे तामिया रोड पर स्थित ग्राम में जहां स्कूल में दो पोलिंग बूथ साथ-साथ लगाए गए थे। यहां एक पोलिंग बूथ में पीएचई के एक एक्जीक्यूटिव इंजीनियर को दूसरे बूथ में मुझे पीठासीन अधिकारी के रूप में जिम्मेदारी सौंपी गई। हम लोगों ने दिनभर पूरी व्यवस्थाएं कीं। शाम के समय जोनल ऑफिसर राउंड लेने के लिए आए। मैंने अपने बैलेट पेपर (मत पत्र) बॉक्स में बंद कर ठहरने वाले स्थल में रख दिए, किन्तु पीएचई के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर साहब जहां भी जाते बैलेट पेपर अपने साथ ले कर जाते। पोलिंग बूथ का निरीक्षण के उपरांत ज़ोनल ऑफिसर के वाहन में एक्जीक्यूटिव इंजीनियर साहब ने बैलेट पेपर पीछे रख दिए। जोनल ऑफिसर ने हम लोगों को ठहरने वाले स्थान में छोड़कर आगे बढ़ गए। जोनल ऑफिसर जब वाहन से काफी आगे निकल गए तब एक्जीक्यूटिव इंजीनियर साहब को याद आया कि बैलेट पेपर तो जोनल ऑफिसर के वाहन में ही रह गए। बिना बैलेट पेपर के चुनाव संपन्न कराना नामुकिन था।
इलेक्शन ड्यूटी सबसे कठिन
शासकीय अधिकारियों के लिए इलेक्शन ड्यूटी सबसे कठिन मानी जाती है। इस ड्यूटी में किसी भी प्रकार की लापरवाही पाए जाने पर सख्त सजा मिलने के साथ नौकरी जाने का खतरा भी बना रहता है। एक्जीक्यूटिव इंजीनियर साहब तनाव में आ गए। उस समय सम्पर्क का कोई साधन उपलब्ध नहीं था। रात हो रही थी और अगली सुबह इलेक्शन करवाना था। आनन-फानन में एक्जीक्यूटिव इंजीनियर साहब ने अपनी कार निकाली और मुझे भी साथ चलने को कहा। हम लोग जोनल ऑफिसर को ढूंढते हुए परासिया पहुंचे तो वहां जानकारी मिली कि जोनल ऑफिसर पास में ही किसी बूथ का निरीक्षण करने गए हुए हैं। हम लोग उनका बेसब्री से इंतजार करने लगे। कुछ देर बाद जैसे ही जोनल ऑफिसर वापस आए और हम लोगों को चैन मिला। अगले दिन बिना किसी व्यवधान के हम लोगों ने चुनाव संपन्न करवाए।
जब ब्रिटिश फॉरेस्टर को छिंदवाड़ा के जंगल घुमाए
जब देहरादून में फॉरेस्ट ट्रेनिंग कर रहा था, उस समय हमारे कोर्स में एक पुस्तक इंडियन सिल्वीकल्चर बॉय एचजी चैंपियन पढ़ाई जाती थी। चैंपियन साहब एक ब्रिटिश फॉरेस्टर थे। एचजी चैंपियन साहब का छिंदवाड़ा आने का कार्यक्रम निर्धारित हुआ। वे उस समय फॉरेस्ट टाइप्स ऑफ इंडिया पर शोध कर रहे थे। हमारे कंजरवेटर और डीएफओ ने मुझे उनको दिखाए जाने वाले फॉरेस्ट एरिया का चयन करने की जिम्मेदारी दी। छिंदवाड़ा जिले में सतपुड़ा पर्वतमाला स्थित थी। इसमें सतकटा और सागौन के जंगल पाए जाते थे। छिंदवाड़ा जिले के जंगलों की एक विशेषता यह थी कि यहां साल वन का आइसोलेटेड जंगल एरिया पाया जाता था। साल वन एरिया का आखिरी छोर बालाघाट में था। बालाघाट और छिंदवाड़ा के बीच के एरिया में कहीं भी साल वन नहीं पाए जाते थे। मैंने सागौन और साल वन एरिया का निरीक्षण कर अध्ययन में पाया कि देलाखेरी के पास एक स्थान ऐसा था, जहां पर सागौन और साल के परिपक्व अवस्था के पेड़ आजू-बाजू में वर्षों पहले से खड़े थे। जो संभवतः साल और सागौन के जंगल क्षेत्रों का मिलन स्थल था। यही जंगल का इलाका एचजी चैंपियन को दिखाया गया।
छिंदवाड़ा सब्जी उगाने में था अग्रणी
सांवरी रेंज के लवाघोगरी के आसपास के जंगल में प्राकृतिक रूप से पैदा हुए सीताफल के पेड़ बड़ी संख्या में थे। यह जंगल देनवा के पास तक फैला हुआ था। दीपावली के आसपास इन पेड़ों में लगे हुए सीताफल देखने और खाने में खासा आनंद मिलता था। सीताफल की यहां से मार्केटिंग भी की जाती थी। छिंदवाड़ा के आसपास किसानों द्वारा विभिन्न प्रकार की सब्जियां उगाई जाती थीं। इस कारण बाजार में ताजी और सुंदर दिखने वाली ढेर सारी सब्जियां सस्ते दामों पर उपलब्ध होती थीं। यहां से सब्जियां बाहर भी भेजी जाती थीं। छिंदवाड़ा जिला सब्जी उगाने में अग्रणी था। उस समय छिंदवाड़ा को छोटा जिला होने के कारण ट्रेनिंग डिस्ट्रिक्ट भी कहा जाता था। नए आईएएस अधिकारी ही कलेक्टर के पद पर प्रथम चार्ज में ट्रेनिंग हेतु पदस्थ किए जाते थे।
( लेखक मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक रहे हैं )