/sootr/media/post_banners/e949826e5ce89cbe1d9650b9ef87e069ce1dd396cf0ecd5db8096a0088e2a9d1.png)
ओमप्रकाश श्रीवास्तव । महाभारत के आदिपर्व में एकलव्य की कथा आती है। वह निषादों के राजा हिरण्यधनु के पुत्र थे । उस समय आचार्य द्रोण अस्त्र-शस्त्रों के श्रेष्ठतम आचार्य के रूप में विख्यात थे। एकलव्य ने द्रोण के पास आकर शिष्य बनने की प्रार्थना की परंतु द्रोण ने उसे शिष्य नहीं बनाया । एकलव्य निराश नहीं हुआ । उसने मन ही मन आचार्य द्रोण को अपना गुरु स्वीकार किया और वन में जाकर द्रोण की मिट्टी की मूर्ति बनाकर धनुर्विद्या की कड़ी साधना करने लगा। एक दिन कौरव और पांडव उसी वन में शिकार के लिए गये। उनके साथ एक कुत्ता था जो आगे निकल गया जहां एकलव्य धनुर्विद्या की साधना कर रहा था। कुत्ते ने अजनबी को देखकर भौंकना शुरु कर दिया। एकलव्य ने एकसाथ सात बाण मारकर कुत्ते के मुख को भर दिया। कुत्ता वापस आया तो पाण्डव विस्मित हो गये। क्योंकि बाण इस कुशलता से चलाए गए थे कि कुत्ते का मुंह भर गया था और उसका भौंकना बंद हो गया था परंतु उसे चोट नहीं लगी थी।
एकलव्य तो इतिहास में अमर हो गया
वे उस महान धनुर्धर की खोज में वन में गये जहां उनकी एकलव्य से मुलाकात हुई। एकलव्य ने बताया कि वह गुरु द्रोण का शिष्य है। जब यह खबर द्रोण तक पहुंची तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि उन्होंने एकलव्य को कभी शिष्य नहीं बनाया था। वे एकलव्य से मिलने वन में पहुंचे। जब द्रोण पहुंचे तो एकलव्य धनुष से निरंतर बाणों की वर्षा करते हुए अभ्यास कर रहा था। गुरु को देखते ही उसने प्रणाम किया, उनकी अभ्यर्थना की। द्रोणाचार्य ने कहा कि यदि तुम मुझे अपना गुरु मानते हो तो गुरुदक्षिणा दो। एकलव्य सहर्ष तैयार हो गया। उसने कहा गुरुजी आदेश करें, मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं जो गुरु के लिए अदेय हो। द्रोण ने उससे दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने तत्काल अपना अंगूठा काटकर द्रोण को दे दिया । अब एकलव्य तर्जनी और मध्यमा अंगुलियों की सहायता से धनुष की प्रत्यंचा खींचने लगा परंतु अंगूठे के अभाव में उसकी कुशलता व तीव्रता कम हो गई। एकलव्य अपने समय का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनने से वंचित हो गया परंतु सत्यनिष्ठा और गुरु के प्रति समर्पण से उसका नाम इतिहास में अमर हो गया । वहीं, यह कृत्य द्रोण के चरित्र पर धब्बा बन गया।
एकलव्य ने बिना सोचे-समझे अंगूठा काटकर गुरू को दे दिया
इस घटना को अनेक दृष्टियों से देखा जाता है। एक मत यह है कि एकलव्य शूद्र वर्ण से था इसलिए द्रोण ने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया। इससे यह सिद्ध किया जाता है कि हिन्दू समाज में जन्म के आधार पर यह भेदभाव सदैव से रहा है। यह हिन्दू शास्त्रों की उन घटनाओं में से एक है जिनका उत्तर देते लोग रक्षात्मक हो जाते हैं। ऐसे लोग कहते हैं कि अंगूठा काटकर देना महाभारत के कवि की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। परंतु जब आप महाभारत पढ़ते हैं तो पाते हैं कि द्रोण के कहते ही एकलव्य ने ‘बिना कुछ सोच विचार किये अपना दाहिना अंगूठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया (छित्त्वाविचार्य तं प्रादाद् द्रोणायांगुष्ठमात्मन:)।
गुण और कर्म के आधार पर बने चारों वर्ण
प्रारंभ में हिन्दू समाज में जन्म के आधार पर भेदभाव नहीं था। अपने आदर्शरूप में वर्णव्यवस्था कर्म पर आधारित थी और सभी कर्म समान माने जाते थे। किसी व्यक्ति का कर्म क्या होगा यह उसके गुण और स्वभाव से निर्धारित होता था। यदि किसी को स्वभाव से विद्याध्यन करना, चिंतन करना अच्छा लगता था तो वह ब्राह्मण और यदि सेवा और श्रम करना अच्छा लगता था और वह इसे अपनाता था तो वह शूद्र वर्ण का माना जाता था। पिता के वर्ण से अर्थात् जन्म किस कुल में हुआ इससे बच्चे के वर्ण का कोई संबंध नहीं था। गीता में कहा है – गुण और कर्म के अनुसार चारों वर्ण बनाए गए हैं (चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: गीता)। यह समाज को चलाने का एक तरीका था। इसमें विद्या, शक्ति, धन और कौशल को चार भागों में बांटकर स्वभाव के आधार पर व्यक्तियों के बीच बांटा गया था। जन्म आधारित जातिप्रथा और छुआछूत की विकृति बाद में आई जिसने वर्णव्यवस्था को भ्रष्ट कर दिया।
द्रोणाचार्य शिष्यमोह से ग्रसित थे
महाभारत से पता चलता है कि द्रोण के आश्रम में कौरव-पांडव के अलावा अनेक राजवंशों जैसे वृष्णिवंशी, अंधकवंशी राजकुमारों के अलावा सूतपुत्र कर्ण भी शिक्षा पाता था। एकलव्य तो वनवासी निषादों के राजा हिरण्यधनु का पुत्र था। ऐसी स्थिति में मात्र वनवासी होने के कारण पर द्रोण उसे शिक्षा देने से इंकार कर दें यह तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता । और यदि शिक्षा देने से इंकार कर भी दिया था तो एकलव्य का अंगूठा लेकर उसे श्रेष्ठ धनुर्धर होने से वंचित करने का क्या स्पष्टीकरण है ? हम गंभीरता से विचार करें तो प्रथम तो यह पाते हैं कि द्रोण के मन में अर्जुन के प्रति प्रगाढ़ शिष्यमोह था। उन्होंने अर्जुन से कहा था कि मेरा कोई भी शिष्य तुम से बढ़कर नहीं होगा (भवतोक्तो न मे शिष्यस्त्वद्विशिष्टो भविष्यति)। जब उन्होंने देखा कि बिना गुरु के मात्र अपने प्रयासों से एकलव्य धनुर्विद्या में इतना प्रवीण हो गया है तो अर्जुन के मोह ने उन्हें अंधा कर दिया। एकलव्य के अंगूठा काटकर देने के बाद महाभारत में कहा है कि द्रोणाचार्य का वह कथन सत्य हो गया कि अर्जुन को दूसरा कोई पराजित नहीं कर सकता (द्रोणश्च सत्यवागासीन्नान्योsभिभवितार्जुनम्)
गुरु द्रोण के चरित्र पर स्थाई धब्बा
दूसरा कारण यह था कि कौरव और पांडवों के साथ निरंतर रहने के कारण द्रोण अच्छी तरह समझते थे कि दोनों के बीच भविष्य में युद्ध अवश्यंभावी है। इस युद्ध में पांडवों की विजय का आधार अर्जुन की श्रेष्ठ धनुर्विद्या ही होगी। यदि एकलव्य जैसा श्रेष्ठ धनुर्धर कौरवों के पक्ष में हो जाता तो पांडवों को परेशानी हो सकती थी। इसलिए उन्होंने वह कांटा ही निकाल दिया। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण शक्ति धारण करने की पात्रता से संबंधित है। भारत में शक्ति उसे ही देने की प्रथा रही है जिसमें उसे धारण करने की पात्रता हो। आज भी हम चाहते हैं परमाणु बम जिम्मेदार राष्ट्रों के पास ही हों । गैरजिम्मेदार राष्ट्रों और संगठनों के पास ऐसी विनाशकारी शक्ति होना सम्पूर्ण मानवता के लिए संकट होगा। हम प्रतियोगी परीक्षाओं से सुनिश्चित करते हैं कि जिम्मेदार पदों पर वही बैठे, जिसमें उस पद की शक्तियों के उपयोग की समझ-बूझ हो। एक कुत्ते को भौंकने से रोकने के लिए एक पत्थर मारना ही पर्याप्त होता परंतु उसके लिए बाण चलाना, प्राप्त शक्ति का दुरुपयोग ही कहा जाएगा। इससे पता चलता था कि एकलव्य ने अपनी लगन और मेहनत से शक्ति तो प्राप्त कर ली थी परंतु उसमें उसके उपयोग की समझ नहीं थी। खैर, कारण कुछ भी हो, परंतु यह घटना द्रोण के चरित्र पर स्थाई धब्बा बन गई।
सोशल मीडिया का राक्षस भी अंगूठे से चलता है
आज के समाज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो योग्यता न होते हुए भी शक्ति धारण करना भीषण समस्या बन चुकी है। अयोग्य लोगों के हाथ में शासन और सत्ता के सूत्र आने पर विनाश के अनेक उदाहरण इतिहास में बिखरे पड़े हैं। सूचना प्रौद्योगिकी के विस्तार के साथ पात्रता न होते हुए भी हर व्यक्ति को दूसरों को प्रभावित करने की शक्ति मिल गई है। परिणाम यह है कि सोशल मीडिया पर झूठ का साम्राज्य हो गया है। लोगों में शास्त्रों, संस्कृति और परम्पराओं के प्रति भ्रम फैलाया जा रहा है। यह भ्रम जितना इनके आलोचक फैला रहे हैं उतना ही इनके अंध समर्थक भी । दोनों को ही अध्ययन मनन की न तो इच्छा है और न ही योग्यता। टीवी चैनलों पर तर्कपूर्ण बहस अब चिल्ला-चोंट में बदल चुकी है। सोशल मीडिया पर ट्रोलर नामक ऐसी बिरादरी पैदा हो गई है जिसके डर से किसी बात की बौद्धिक विवेचना करने के पहले सौ बार सोचना पड़ता है। सोशल मीडिया का दैत्य भी मुख्यत: अंगूठे से चलता है। अब अंगूठा तो नहीं काटा जा सकता, न ही काटा जाना चाहिए, परंतु समाज को इस भीषण संकट से निकलने का रास्ता जरूर खोजना चाहिए।(लेखक वरिष्ठ रचनाकार, मुख्यमंत्री सचिवालय में अतिरिक्त सचिव एवं धर्म, दर्शन और साहित्य के अध्येता है।)
/sootr/media/agency_attachments/dJb27ZM6lvzNPboAXq48.png)
Follow Us