ग्वालियर में कुछ माह पश्चात मुझे एक शासकीय आवास आवंटित हो गया, लेकिन ऑफिस निजी भवन में वर्ष 1975 अर्थात वर्किंग प्लान का कार्य पूर्ण होने तक व्यवस्थित रूप से चलता रहा। ग्वालियर पदस्थापना अवधि में अधिकांश समय शासकीय वाहन से वंचित ही रहा। शासकीय दौरे स्वयं के वाहन या बस द्वारा करना पड़ा। कभी-कभार ग्वालियर सर्किल की जीप क्रमांक 695 दौरे पर जाने को मिल जाती थी। जब वर्किंग प्लान का कार्य समाप्ति की ओर था तब जाकर एक नई शासकीय जीप आवंटित हुई।
मार्गदर्शन देने से बचते थे वरिष्ठ नियंत्रक अधिकारी
ग्वालियर में जब पदभार संभाला तब वहां फॉरेस्ट कंजरवेटर के पद पर दीप सिंह पदस्थ थे। कुछ समय पश्चात उनका ट्रांसफर कंजरवेटर वर्किंग प्लान जबलपुर के पद पर हो गया। वे मेरे कंट्रोलिंग ऑफिसर बन गए। उन्होंने पहली ही मीटिंग में निर्देश दिए कि मैं उन्हें केवल प्रत्येक माह का टूर प्रोग्राम, किए गए कार्यों की डायरी एवं टीए बिल ही भेजा करूं। इसके अलावा उन्हें कोई अन्य संदर्भ ना भेजा जाए, जिसमें उनके मार्गदर्शन की अपेक्षा की जाती हो। इसका स्पष्ट अर्थ था कि वे किसी प्रकार की जवाबदेही नहीं लेना चाहते थे और ना ही किसी प्रकार का मार्गदर्शन देना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि भविष्य में किसी प्रकार की समस्या उत्पन्न होने पर उनकी कोई जवाबदेही निर्धारित की जा सके। कुछ ही समय पश्चात दीप सिंह का ट्रांसफर हो गया और उनके स्थान पर पीजी देशमुख आए। वे ग्वालियर के ही मूल निवासी थे। उनका फॉरेस्ट सर्विस में सिलेक्शन ग्वालियर स्टेट के जमाने में ही हुआ था। उनकी ससुराल भी ग्वालियर में ही थी। उनका पुत्र ग्वालियर इंजीनियरिंग कॉलेज में अध्ययनरत था। इन तमाम कारणों से उनका ग्वालियर आना-जाना लगा रहता था। वर्किंग प्लान का प्रारूप तैयार कर पीजी देशमुख के समक्ष परीक्षण और करेक्शन के लिए प्रस्तुत किया जाता तो जहां करेक्शन की आवश्यकता होती वे उसे स्वयं ना कर निर्देश देकर मुझसे ही करवाते थे।
घाटीगांव के जंगल में टेंट से हुई चोरी
ग्वालियर फॉरेस्ट डिवीजन का वर्किंग प्लान ग्वालियर, दतिया और भिंड जिले के समस्त जंगल क्षेत्रों का निरीक्षण कर तैयार किया जाना था। इसके लिए मुझे और पूरी टीम को हर माह लगभग 15 से 20 दिन का दौरा करना पड़ता था। एक बार ग्वालियर-शिवपुरी मार्ग पर स्थित घाटीगांव के दौरे पर था। ये सोन चिरैया के विचरण का जंगल क्षेत्र भी था। घाटीगांव में कोई रेस्ट हाउस नहीं था। मेरी टीम के सभी सदस्य रेंज ऑफिस में ठहरे और मेरे लिए पास में ही अलग-थलग एकांत में स्थित कुएं के पास स्विस कॉटेज टेंट लगा दिया गया। इस टेंट के पीछे एक छोलदारी यानी कि छोटा-सा टेंट लगाकर उसमें अर्दली के ठहरने और भोजन बनाने की व्यवस्था की गई। प्रतिदिन सुबह जंगल के निरीक्षण के लिए निकल जाता और शाम तक लौटने के बाद टेंट में कैम्प कर आराम करता। मैं अपने साथ इस दौरे में एक नया टॉर्च लेकर गया था। रात्रि में उसे पलंग के बाजू में नीचे की ओर रखता ताकि जरूरत पड़ने पर हाथ डालकर तुरंत उसे निकाल कर उपयोग किया जा सके। एक रात लगभग 2-3 बजे सोते समय ऐसा आभास हुआ कि मानो कोई जानवर टेंट की रस्सियों से टकरा रहा हो। मैंने टार्च को उठाने का प्रयास किया तो पाया कि टार्च वहां से गायब हो चुका था। अंधेरे में उठकर टटोलने पर आभास हुआ कि टेंट में रखा हुआ बक्सा और सूटकेस दोनों ही गायब हैं। मैं तुरंत समझ गया कि किसी ने चोरी करने की कोशिश की है। छोलदारी में सो रहे अर्दली गुणवंत सोनी को जगाकर टेंट से बक्सा और सूटकेस चोरी होने की जानकारी दी। तुरंत पेट्रोमैक्स जलवाने पर यहां वहां देखने पर पाया कि छोलदारी में रखी हुई राशन पेटी भी गायब हो चुकी थी। अब यह स्पष्ट हो चुका था कि किसी गिरोह ने इस चोरी को अंजाम दिया था। रेंज ऑफिस में सो रहे अपनी टीम के सदस्यों को उठाया और पेट्रोमैक्स लेकर आसपास के क्षेत्र में गायब हुए बक्सों और सूटकेस को ढूंढने का प्रयास किया। कुछ ही दूरी पर जाकर स्टाफ ने पाया कि राशन पेटी का सब सामान बिखरा हुआ पड़ा है। उसमें से केवल शक्कर और घी के कंटेनर गायब हो चुके थे। आगे बढ़ने पर पास की पहाड़ी पर बक्सा और सूटकेस खुले हुए मिले, जिसमें से अधिकांश कपड़े, गर्म कपड़े, ट्रांजिस्टर और नकद राशि गायब हो चुकी थी। झाड़ों की ऊंचाई नापने का उपकरण एबनीज लेविल भी चोरी हो गया था।
शासकीय कागजात चोरों के किसी काम के नहीं
सबसे ज्यादा चिंता उन शासकीय दस्तावेजों और फाइलों की थी जो बक्से में बंद थे। ये दस्तावेज और फाइलें लगभग 8-10 महीनों के फील्ड वर्क और जंगलों का निरीक्षण कर तैयार किए गए थे। यदि ये रिकॉर्ड गायब हो जाते तो पुन: 8-10 माह का फील्ड वर्क दोबारा करना पड़ता। अनेक समस्याओं के उत्पन्न होने की भी संभावना थी। यहां वहां ढूंढने के बाद वे सभी दस्तावेज और फाइलें बक्से में बिखरे हुए मिल गए। शायद चोरों को कागज प्रपत्र ले जाने में कोई रुचि नहीं थी। रात में ही हम लोगों ने घाटीगांव पुलिस थाना पहुंचकर रिपोर्ट दर्ज करवाई परंतु इस मामले में पुलिस ने कोई खास रुचि नहीं ली।
चोरी से गिरा मनोबल
अभी तक की गई शासकीय सेवा के अनुभव के आधार पर मुझे जरा-भी इस बात का भय नहीं था कि टेंट से भी चोरी हो सकती है। जिन क्षेत्रों में पूर्व में काम किया था, वहां पाया था कि शासकीय अधिकारियों और कर्मचारियों के प्रति आदर और भय स्थानीय लोगों के मन में अवश्य रहता है। वे कभी उनके टेंट में इस तरह चोरी करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते। घाटीगांव के आसपास डाकू और उठाईगीर सक्रिय रहते आए थे। इस क्षेत्र में काफी गरीबी थी और लोगों के पास काम और पैसे का अभाव होने के कारण वे इस तरह की छोटी-मोटी चोरियां करने में पीछे नहीं रहते। सामान्यत: चोरी घरों में ही की जाती थी। घरों में पैसा और सामान अधिक मिल सकता था, लेकिन टेंट में ऐसी कोई संभावना नहीं रहती थी। टेंट से इस तरह चोरी होने के बाद मेरा मनोबल गिर गया। घाटीगांव का काम बीच में ही छोड़कर वापस ग्वालियर पहुंच गया।
शासकीय ड्यूटी में हुई चोरी की क्षतिपूर्ति नकारी गई
फॉरेस्ट कंजरवेटर वर्किंग प्लान जबलपुर पीजी देशमुख को ड्यूटी के दौरान हुई चोरी के संबंध में एक प्रतिवेदन भेजा। प्रतिवेदन में चोरी हुए सामान और नकदी का पूर्ण विवरण देते हुए निवेदन किया गया कि शासकीय ड्यूटी पर रहते हुए चोरी के कारण हुई क्षति की पूर्ति की जाए। उन्होंने इस पर कोई कार्रवाई ना करते हुए केवल यह उत्तर दिया कि इस तरह की क्षतिपूर्ति का कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए क्षतिपूर्ति करना संभव नहीं है। इस प्रकरण में मेरा मानना था कि वे उच्चाधिकारियों और शासन को प्रस्ताव भेजकर क्षतिपूर्ति करवा सकते थे, जो वे करने में असफल रहे।
इस क्षतिपूर्ति में मिली उपजाऊ जमीन
इसके उलट यहां ग्वालियर में पदस्थापना के समय घटित एक घटना का उल्लेख करना उचित होगा। पंडित सीताराम शर्मा फॉरेस्ट कंजरवेटर ग्वालियर ऑफिस में कार्यालय अधीक्षक के पद पर कार्यरत थे। प्रत्येक माह वे बैंक जाकर कंजरवेटर द्वारा जारी किए गए चेक से राशि निकाल कर लाते और सभी कर्मचारियों को वेतन इत्यादि वितरित करते। एक बार वे बैंक से राशि निकालकर जब ऑफिस की ओर आ रहे थे, तभी रास्ते में उन्हें कुछ लोगों ने घेरकर मारपीट करते हुए बैंक से निकाली गई राशि को छीन लिया। उन्हें इस घटना में चोट भी लगी। वे कुछ समय अस्पताल में भर्ती रहे। पंडित सीताराम शर्मा ने इस घटना के बाद आवेदन दिया कि उन पर ड्यूटी पर रहते हुए हमला कर मारपीट की गई और शासकीय राशि लुटेरे लूटकर ले गए, इसलिए उन्हें मानसिक और आर्थिक क्षति पहुंची है। उन्होंने निवेदन किया कि क्षतिपूर्ति के रूप में उन्हें कृषि कार्य हेतु शासकीय भूमि आवंटित की जाए। तत्कालीन फॉरेस्ट कंजरवेटर ग्वालियर ने एक प्रस्ताव तैयार कर शासन को भेजा कि सुसेरा फॉरेस्ट ब्लॉक जिसमें उपजाऊ ब्लैक कॉटन सॉइल है और वह कृषि कार्य के लिए अत्यंत उपयोगी भूमि है, उसमें से कुछ जमीन पंडित सीताराम शर्मा को आवंटित कर दी जाए। कंजरवेटर साहब के इस प्रस्ताव का अनुमोदन शासन ने तुरंत कर दिया। अनुमोदन के बाद पंडित सीताराम शर्मा को सुसेरा ब्लॉक की कृषि कार्य के लिए उपयुक्त भूमि आवंटित कर दी गई और उन्हें उसका तुरंत कब्जा भी मिल गया।
( लेखक मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक रहे हैं )