फरवरी 1965 में मेरा ट्रांसफर बिलासपुर से पश्चिम छिंदवाड़ा डिवीजन में हो गया। जिस दिन बिलासपुर से छिंदवाड़ा रवाना होने वाला था, ठीक उसी दिन, कंजरवेटर बलवंत सिंह ने मुझे कुछ उलझी हुई फाइलें निबटाने के लिए दे दीं। उन फाइलों को बिना पढ़े, निबटारा करना संभव नहीं था, इसलिए एक-एक फाइल को पढ़कर, उनके नोट बनाने लगा। शासकीय सेवा में, ट्रांसफर पर जाने के समय, स्वयं के बहुत सारे काम निबटाने पड़ते हैं लेकिन आखिरी समय तक फाइलों का निपटारा करने में व्यस्त रहा। ऑफिस में इस व्यस्तता के कारण, परिवार के सदस्य परेशान होकर चिड़चिड़ाते रहे। किसी तरह बिलासपुर से नागपुर की ट्रेन पकड़ने स्टेशन पहुंचा। विदाई देने वहां पदस्थ मेरे साथी डीएफओ बिलासपुर मोहम्मद इसहाक पहुंचे। ये वही अधिकारी थे, जो मेरी बालाघाट पोस्टिंग के समय पड़ोस में रहते थे और समय-समय पर उचित मार्गदर्शन देते रहते थे। उनको देखकर बिलासपुर छोड़ते समय भावुक हो गया। उन्होंने साहस बंधाते हुए कहा कि शासकीय सेवा के दौरान, भविष्य में इस प्रकार के, बहुत ट्रांसफर देखने को मिलेंगे, इसलिए हौसला रखिए। हमने एक-दूसरे को अलविदा कहा। हम लोगों के जीवनकाल की उनसे यह आखिरी मुलाकात ही रही।
तामिया से दिखती थी पचमढ़ी की रोशनी
मेरे कार्य क्षेत्र छिंदवाड़ा वेस्ट डिवीजन में ही, तामिया एक छोटे हिल स्टेशन के समान था। यहां से पचमढ़ी की, रात की रोशनी स्पष्ट रूप से दिखाई देती थी। तामिया के ऊंचे पहाड़ों में खड़े होने पर लगभग 30-40 किलोमीटर दूर तक का दृश्य दिखाई देता था। तामिया से देलाखारी रास्ते पर, तामिया से थोड़ी दूरी पर, पहाड़ी सड़क के किनारे तुलतुला नाम का बड़ा झरना था। इसमें निरंतर पानी की मोटी धार बहती रहती थी। ये झरना फॉरेस्ट एरिए के भीतर था। मैं जब तक वहां पदस्थ रहा, वहां किसी प्रकार का कोई निर्माण नहीं हुआ था। कई वर्षों बाद, जब मैं इस मार्ग से गुजरा तो मैंने पाया कि तुलतुला के आसपास के फॉरेस्ट एरिया में मंदिर और अन्य निर्माण कार्य अवैध रूप से किए जा चुके हैं। तामिया के पास ही छोटा महादेव नाम का एक सुरम्य स्थान स्थित है। यहां चट्टानों से बूंद-बूंद झिरते हुए पानी व चट्टानों क्षेत्र की हरियाली का आनंद लिया जा सकता है। तामिया में राय नाम के एक व्यक्ति से मुलाकात हुई। वे ग्लैडुला व ट्यूबरोज की खेती कर, अच्छा मुनाफा कमा रहे थे। राय आम का अचार-चटनी बनाने का व्यवसाय भी करते थे।
छड़ी में बंधी चावल की पोटली मिनटों में पक जाती थी
तामिया रेस्ट हाउस, पहाड़ की ऊंचाई पर स्थित था, जहां से नीचे घाटी और उसमें फैले हुए जंगल खुली किताब की तरह दिखाई देते थे। फॉरेस्ट एरिया के बीच में कुछ चट्टानें भी साफ-साफ दिखाई देती थीं। उस समय एक बाघिन, अपने दो छोटे बच्चों के साथ, इन चट्टानों पर काफी लंबे समय तक धूप सेंकती हुए घूमती-फिरती रही और पहाड़ी के ऊपर से लोग, इस दृश्य का आनंद उठाते रहे। तामिया-देलाखारी मार्ग से आगे रेनीखेड़ा के निकट अनहोनी हॉट वाटर, सल्फर स्प्रिंग मौजूद है, जहां गर्म खौलता सल्फरयुक्त पानी निरंतर निकलता रहता है। हमें जानकारी मिली कि उसमें कुछ औषधीय गुण भी विद्यमान हैं। इस हॉट वाटर स्प्रिंग का पानी, चर्म रोग व उदर संबंधी बीमारियों में उपयोगी सिद्ध होता है। हम लोगों को बताया गया कि चावल की पोटली, छड़ी के सिरे पर बांध कर खौलते पानी में डालने से, कुछ ही देर में चावल पक जाता है।
क्यों दी जाती है फॉरेस्ट इंजीनियरिंग की ट्रेनिंग
तामिया रेंज ऑफिसर का हेड क्वार्टर था, परन्तु वहां न तो ऑफिस और न ही कार्मिकों के लिए कोई आवासीय व्यवस्था थी। इस कमी पर गंभीरता से विचार कर, प्रस्ताव बनाकर, उसे स्वीकृत करवाकर, शासकीय भवन और कार्मिकों के लिए आवास बनाए गए। जंगल महकमे का अधिकांश काम जंगल के भीतरी या अंदरूनी हिस्से में होता है, जहां साधारण सुविधाओं का अभाव रहता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए, जंगल महकमे के अधिकारियों व कार्मिकों को, ट्रेनिंग के समय फॉरेस्ट इंजीनियरिंग विषय की ट्रेनिंग, विशेष रूप से दी जाती है। जंगल महकमे द्वारा जंगल के भीतरी हिस्सों में बिल्डिंग्स, रेस्ट हाउस आदि बनाने और कुएं खोदने व उसके रखरखाव करने का काम महकमे के कार्मिकों द्वारा ही किया जाता है। उस समय, जंगल महकमे द्वारा यह सब काम, अन्य एजेंसियों की तुलना में काफी किफायती व कम दर पर किया जाता था। इस कारण कुछ स्थानों पर, ट्राइबल वेल्फेयर डिपार्टमेंट ने, अपनी बिल्डिंग बनाने का काम जंगल महकमे को ही सौंपा था।
जंगल महकमे के कर्मचारियों के बच्चे पढ़ाई में क्यों पिछड़ते हैं
जंगल महकमे के कार्मिकों को जंगल के भीतरी क्षेत्रों के पास स्थित गांवों में, कठिन परिस्थितियों में रहकर, अपने कार्य करने पड़ते हैं। अधिकांश कर्मचारी शहरों व कस्बों से दूर पदस्थ रहते हैं। वहां सामान्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं होतीं। यहां तक कि रोजमर्रा का बाजार से सामान और डॉक्टरों से सलाह लेने भी, उन्हें काफी दूर जाना पड़ता है। कई स्थानों में स्कूल नहीं होते, जिस कारण बच्चों की पढ़ाई सही ढंग से नहीं हो पाती। कभी-कभी परिवार को पढ़ाई वाले स्थान पर रखने के कारण, जंगल महकमे के कर्मचारियों को दो जगहों के खर्च उठाने पड़ते हैं। सेवाकाल में कई बार ट्रांसफर होने के कारण यदि बच्चों को साथ रखा जाता है तो, उन्हें तरह-तरह के शैक्षणिक संस्थानों और अलग-अलग विषयों के साथ, पढ़ाई करनी पड़ती है, नतीजतन जंगल महकमे के कर्मचारियों के बच्चे पढ़ाई-लिखाई में पिछड़ जाते हैं। डिफेंस फोर्स की तरह जंगल महकमे को तहसील, जिला और संभाग मुख्यालय में कर्मचारियों को आवास सुविधा उपलब्ध करवाकर इस प्रकार की समस्या का समाधान करना चाहिए।
फॉरेस्टर ने अवसाद को त्याग पत्र से निकाला
देलाखारी के नजदीक एक फॉरेस्टर (वनपाल) जंगल की सीमा पर बने, गांव की आबादी से दूर निर्जन क्षेत्र में स्थित, जंगल महकमे के एक क्वार्टर में रहते थे। निर्जन जंगल में उनका अकेला क्वार्टर था। आसपास कोई आबादी नहीं थी। अकेले रहने और लोगों से सम्पर्क टूटने के कारण, उनके व्यवहार में अवसाद, दुखद व नैराश्यपूर्ण बदलाव देखने को मिला। यदि उनके क्वार्टर के पास से कोई मवेशी निकलती तो वे उसे बेवजह उग्र रूप से पिटाई करते दिखाई देते। साथ में रह रहे परिवार को भी काफी समस्याओं का सामना करना पड़ता था। वे सीनियर फॉरेस्टर थे, परन्तु सुपरसीड होते रहे और उन्हें प्रमोशन नहीं मिला। मुझे उनका एक पत्र मिला, जिसमें उन्होंने लिखा कि, उनका प्रमोशन एसडीओ के पद पर, एक माह के भीतर कर दिया जावे और अगर यह संभव नहीं हो, तो उनका त्याग पत्र स्वीकार कर लिया जावे। उन्होंने पत्र में चेतावनी भी दी कि, यदि ऐसा नहीं किया गया, तो वे कलेक्टर, एसपी और डीएफओ को गोली से उड़ा देंगे। मुझे महकमे और कर्मचारियों की समस्याओं का पर्याप्त अनुभव नहीं था, इसलिए मैंने आदेश जारी कर उनकी सेवाओं की समाप्ति की सूचना उन्हें भेज दी। उनको भेजे गए पत्र में स्पष्ट किया गया कि चूंकि उनका एसडीओ पद पर प्रमोशन करना संभव नहीं है इसलिए उनके द्वारा दिए गए अन्य विकल्प अर्थात उनका त्यागपत्र स्वीकार किया जाता है। कलेक्टर व एसपी को भी पत्र भेजकर इस संबंध में सूचित किया गया।
वास्तविक धरातल में यथार्थ का सामना
इस घटना के बाद, अहसास हुआ कि, फॉरेस्टर का पत्र मिलने के बाद, मुझे जंगल मुहकमे के उस क्षेत्र के मुखिया होने के नाते, उन्हें बुलाकर, सहानुभूतिपूर्वक बात कर समझाना चाहिए था और स्थिति स्पष्ट करना चाहिए थी कि, एसडीओ पद पर उनका प्रमोशन करना क्यों संभव नहीं है। उनको समझा-बुझाकर समस्या का हल निकालना चाहिए था। अनुभवहीनता के कारण, मैं इस काम को मूर्त रूप देने में विफल रहा। फॉरेस्टर का जब त्याग पत्र स्वीकृत हुआ, तो उन्हें समझ में आया कि अब किन वास्तविक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। वास्तविक धरातल में, यथार्थ का सामना करने के बाद, वे जल्द ही मुझसे मिलने आए और पुन: सेवा में रखने का निवेदन किया जिसके बाद उन्हें वापस सेवा में ले लिया गया।
( लेखक मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक रहे हैं )