प्रभु पटैरिया@भोपाल
डॉ. मोहन यादव को मुख्यमंत्री बने हुए आठ माह हो गए। सरकार के मुखिया के पद पर आसीन किसी व्यक्ति के कामकाज के तरीके और उसकी मंशा को समझने के लिए इतना अवसर पर्याप्त है भी और नहीं भी। इतना तो साफ हो चुका है कि मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री आज देश का सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा मुख्यमंत्री है। उसे इतिहास से सीखने और समझने का हुनर आता है। वह फैसले अपनी समझ से लेता है। बड़े फैसले भी एक तरह से ‘ऑन द स्पॉट शैली’ में लेता है। किसी एक खांचे में फिट होने के बजाए वह अपनी अलग छाप छोड़ने में विश्वास करता है। मोहन यादव जो हैं, जैसे हैं, वैसा ही दिखने-दिखाने में विश्वास करते हैं।
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इसकी झलक उनके अब तक के कार्यकाल में दिखाई भी देने लगी है। याद आता है कि उज्जैन विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष रहने के दौरान मोहन यादव अपनी कार में उज्जैन का खास वैदिक पंचांग लेकर आते थे। विधायक रहने के दौरान या बाद में मंत्री बनने के बाद भी उनका पंचांग आता रहा। राजा विक्रमादित्य, राजा भर्तृहरि और राजा भोज के साथ उज्जैन के इतिहास से अवगत कराने की ललक आज भी दिखती है। मंच पर भाषण के दौरान वे संदर्भ सहित ये किस्से बताने से अभी भी नहीं चूकते हैं।
मुख्यमंत्री के तौर पर मोहन यादव ने सबसे बड़े बदलाव का जो संकेत दिया है, वह कैबिनेट बैठक में मुख्य सचिव की कुर्सी को मुख्यमंत्री की बराबरी से दूर करना। यह सीधा संदेश था कि सरकार अब ब्यूरोक्रेसी के इशारे पर नहीं चलेगी। मंत्री की गरिमा से समझौता न हो, इसका ध्यान रखने की वजह से ही कैबिनेट बैठक में विभाग के प्रस्ताव मंत्री की सहमति से भेजे जाने जैसे निर्देश मुख्यमंत्री ने दिए हैं। नियम भी यही है, लेकिन अधिकारी कई बार चूक कर जाते थे। अब यह नहीं चलेगा।
आम आदमी से ठीक व्यवहार न करने पर कलेक्टर को हटाना जैसे फैसले भी यही इशारा करते दिखाई दिए। मुख्यमंत्री सचिवालय हो या आला अधिकारियों की पोस्टिंग इस मामले में प्रयोगधर्मिता चलती रही। कह सकते हैं कि अब मोहन यादव की अपनी एक प्रशासनिक टीम बन गई है और उसके दम पर वे सरकार को दिशा दे रहे हैं। यही वजह है कि जब छतरपुर में पुलिस थाने पर पथराव हुआ तो अगले ही दिन ऐसी कार्रवाई हुई कि देश भर में उसकी धमक हो गई।
यह संभवतः पहली बार है कि किसी मुख्यमंत्री ने भी मंत्रियों के साथ जिले का प्रभार अपने पास रखा है। हो सकता है इसके पीछे उद्देश्य इंदौर को आदर्श जिला बनाकर अपने कैबिनेट सहयोगियों को भी उसी तर्ज पर काम करने की प्रेरणा देना हो, लेकिन आठ माह बाद जारी प्रभारी मंत्रियों की लिस्ट ने बता दिया कि प्राथमिकता के मामले में मोहन यादव के अपने अलग पैमाने हैं। संगठन से तालमेल के साथ लोकसभा चुनाव में शत प्रतिशत सफलता के बाद अमरवाड़ा उपचुनाव में बीजेपी की जीत के साथ उनका हौसला बुलंद हुआ दिखता है। आगे दो-तीन उपचुनाव और हैं। इन्हें लेकर वे उसी शैली में सक्रिय हैं, जैसे भाजपा के मुख्यमंत्री हुआ करते हैं, यानी किसी भी चुनौती को हल्के से न लेना।
आठ माह के मोहन यादव कार्यकाल को अभी किसी पैमाने पर कसना उचित नहीं लगता। वैसे मध्यप्रदेश में वर्तमान भाजपा सरकार की नींव रखने वाली उमा भारती को मुख्यमंत्री का पद लगभग इतने ही समय के लिए मिला था। उनके उत्तराधिकारी और विकास के अपने अलग विजन वाले बाबूलाल गौर भी ज्यादा समय तक यह जिम्मा नहीं संभाल सके। उनके बाद आए शिवराज सिंह चौहान ने जरूर कई प्रतिमान गढ़े और कई मिथक तोड़े। इस दौरान एक बीमारू राज्य ने विकास की दौड़ में कदमताल करते हुए न सिर्फ मध्यप्रदेश की पहचान से बीमारू का शर्मनाक तमगा हटाया, बल्कि प्रदेश तेज रफ्तार विकास से कदमताल करता दिख रहा है। यादव ने जता दिया है कि वे प्रदेश को इससे आगे ले जाना चाहते हैं। उनका ध्येय 'विरासत के साथ विकास' है।
इस मंशा का प्रदर्शन ऐतिहासिक विरासत को नए आयाम देने वाली योजनाओं और रीजनल इंडस्ट्री कॉन्क्लेव से होता है। हर रीजन की अपनी जरूरत और संसाधनों की उपलब्धता के आधार पर वहां उद्योग-धंधे और रोजगार के अवसर मुहैया कराना। निवेश आकर्षित करने का नया प्रयोग है। विरासत में राम और परशुराम से लेकर कृष्ण ही नहीं, प्रदेश की वे विभूतियां भी हैं। समय के साथ जिनके पदचिन्ह धुंधले पड़ चुके हैं। सांस्कृतिक पुनरोत्थान के बीच मुख्यमंत्री ने समृद्ध विरासत वाले उज्जैन तक अपने आप को सीमित नहीं किया है। इस मामले में उनकी सोच कमलनाथ के 'छिंदवाड़ा मॉडल' से जुदा है। उज्जैन को उज्जैन रखते हुए ओरछा से लेकर अमरकंटक तक विकास के 'मोहन मॉडल' में समूचा मध्यप्रदेश आता है।
खैर, बात हो रही है मोहन यादव की। जिन्हें मुख्यमंत्री चुने जाने पर राजनेता ही नहीं आम लोगों की प्रतिक्रिया भी अरे ये क्या हुआ? जैसी आई थी। तीसरी बार के विधायक और पिछली सरकार में मंत्री मोहन यादव दिग्गज नेताओं वाली भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री बनेंगे, इसकी कल्पना उस वक्त कुछ अजीब सी लग रही थी। मोहन यादव ने अपनी बिंदास शैली में बड़ी सहजता से इस जिम्मेदारी को लिया। उसके बाद वे काफी कुछ बदलते भी दिख रहे हैं। अपनी मौलिकता को बरकरार रखते हुए वे यह साबित करने में लगे हैं कि दिल्ली ने उनका चयन कर कोई गलती नहीं की।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। इस लेख में उनके निजी विचार हैं।)
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