बेमतलब और बेमानी है शादी के लिए लड़कियों की उम्र बढ़ाने पर मुस्लिम संगठनों का एतराज़

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बेमतलब और बेमानी है शादी के लिए लड़कियों की उम्र बढ़ाने पर मुस्लिम संगठनों का एतराज़

यूसुफ़ अंसारी। केंद्र सरकार ने शादी के लिए लड़कियों की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 साल करने का फैसला किया है. केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इसके लिए विधेयक के मसौदे को मंज़ूरी भी दे दी है. मोदी सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में ही इसे पारित कराना चाहती थी, लेकिन विपक्षी दलों के एतराज़ के चलते ऐसा नहीं हो सका. इस पर राजनीतिक बहस छिड़ गई है. ताज्जुब की बात ये है कि कई मुस्लिम नेताओं ने मोदी सरकार के इस फ़ैसले का विरोध करते हुए बेहद आपत्तिजनक और बेतुके बयान भी दिए हैं. उनके बयानों से महिलाओं के प्रति उनकी सोच को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं...

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का एतराज़

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने बक़ायदा बयान जारी करके मोदी सरकार के इस फैसले और इसके पीछे सरकार की नीयत पर गंभीर सवाल उठाए हैं. बोर्ड के इस क़दम के बाद ऐसा लगने लगा है मानो यह फ़ैसला मुसलमानों के ख़िलाफ़ है. ग़ौरतलब है कि बोर्ड मे तमाम मुस्लिम संगठन शामिल हैं. लिहाज़ा ये माना जाना चाहिए कि तमाम मुस्लिम संगठन इस फैसले का विरोध कर रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा भी है कि उनके इस फ़ैसले के विरोध के नाम पर कुछ लोग राजनीति चमकाएंगे. सवाल पैदा होता है कि क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और अन्य मुस्लिम संगठन इसे लेकर मुस्लिम समाज में ग़लत फहमी पैदा कर रहे हैं? हमें यह भी देखना होगा कि लड़कियों की शादी को लेकर इस्ल्मी क़ानून यानि शरीयत क्या कहती है? बोर्ड ने लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 18 साल से बढ़ाकर 21 साल करने के प्रस्ताव को व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप क़रार दिया है. साथ ही बोर्ड ने शादी की उम्र तय करने से परहेज करने का आग्रह किया है. बोर्ड के महासचिव मौलाना खालिद सैफुल्लाह की तरफ़ से जारी किए गए बयान में कहा गया है कि शादी जीवन की बहुत महत्वपूर्ण आवश्यकता है, लेकिन विवाह की कोई उम्र तय नहीं की जा सकती। क्योंकि यह समाज के नैतिक मूल्यों के संरक्षण और नैतिक वंचना से समाज के संरक्षण से जुड़ा मामला भी है. उन्होंने आगे कहा कि इसी वजह से इस्लाम समेत विभिन्न धर्मों में शादी की कोई उम्र तय नहीं की गई है. बोर्ड ने बाक़ायदा अपने आधिकारिक ट्वीटर हैंडल पर बयान जारी करके सरकार से इस फैसले पर आगे नहीं बढ़ने का आग्रह किया है.

बोर्ड को इससे समाज में अपराध बढ़ने की आशंका 

बोर्ड का मानना है कि लड़के लड़कियों की शादी का फैसला पूरी तरह से उनके अभिभावकों के विवेक पर निर्भर करता है. अगर किसी लड़की के अभिभावक यह महसूस करते हैं कि उनकी बेटी 21 साल की उम्र से पहले ही शादी के लायक़ है और वह शादी के बाद की अपनी तमाम जिम्मेदारियां निभा सकती है तो उसे शादी से रोकना क्रूरता है. ये किसी वयस्क की व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप भी है. इससे समाज में अपराध बढ़ने की भी आशंका है. बोर्ड का मानना है कि लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु 18 साल से बढ़ाकर 21 साल किया जाना और निर्धारित उम्र से पहले विवाह करने को अवैध घोषित किया जाना ना तो लड़कियों के हित में है और ना ही समाज के. बल्कि इससे नैतिक मूल्यों को गंभीर नुकसान पहुंच सकता है. 

क्या कहती है शऱीयत?

क़ुरआन में लड़के और लड़कियों की शादी की उम्र होने पर फौरन उनकी शादी करने का हुक्म है. लेकिन ये नहीं बताया गया है कि किस उम्र में शादी की जाए. कई हदीसों में मुहम्मद साहब ने भी फरमाया है कि शादी लायक़ हो जाने पर लड़के और लड़कियों की शादी प्राथमिकता के तौर पर करनी चाहिए. उन्होंने भी किसी हदीस में ये साफ़ नहीं किया कि लड़के और लड़कियों की शादी की सही उम्र क्या होनी चाहिए. उस ज़माने कम उम्र में ही शादियां हुआ करती थी. मुहम्मद साहब के बाद हुए चार ख़लीफाओं ने भी शादी के लिए कोई उम्र तय नहीं की. मुहम्मद साहब के दुनिया से कूच कर जाने के क़रीब सौ साल बाद हुए मुस्लिम समाज के इमामों ने शादी के लिए लड़के और लड़कियों की उम्र तय की है. 

क्या है इमामों की राय?

सुन्नी मुस्लिम समाज में चार इमामों की मान्यता है. इमाम शाफई और इमाम हंबली के मुताबिक़ लड़के और लड़कियों के लिए शादी की सही उम्र 15 साल है. इमाम मालिकी के 17 साल की उम्र को शादी के लिए सही माना है. इमाम अबू हनीफा ने लड़कों के लिए शादी की उम्र 12 से 18 साल तय की है और लड़कियों के लिए 9 से 17 साल. उनका मानना है कि हर लड़के और लड़की के बालिग़ होने की उम्र अलग-अलग होती है. लिहाज़ा बालिग होने पर उनकी शादी कर दी जाए. इमाम जाफ़री ने लड़के की शादी की सही उम्र 15 साल और लड़की की 9 साल मानी है. इमाम जाफरी को शिया मुसलमान मानते हैं. शरीयत यानि इस्लामी क़ानून में शादी की उम्र का आधार लड़के और लड़की का शारीरिक और मानसिक रूप से बालिग़ होना माना गया है.

क्या पत्थर की लकीर है इमामों का राय? 

लेकिन सवाल पैदा होता है कि क्या हज़ार साल से ज़्यादा समय पहले तय की गई शादी की उम्र पत्थर की ऐसी लक़ीर नहीं है, जिसे मिटाया न जा सके. या फिर जिसे बदला न जा सके. 1917 में तुर्की की ख़िलाफ़त ने जब इस्लामी क़ानून बनाए तो सभी इमामों की राय को दरकिनार करते हुए लड़कों के लिए शादी की उम्र 18 साल और लड़कियों के लिए 17 साल तय की. इससे कम उम्र में शादी की इजाज़त उसकी सूरत में थी, जब लड़के और लड़की का बालिग़ होना अदालत में साबित हो जाए. मिस्र ने भी काफी समय पहले लड़कों के लिए शादी की उम्र 18 साल और लड़कियों के लिए 16 साल कर दी थी. ज़्यादातर इस्लामी देशों में शादी की उम्र पर इमामों की राय को दरकिनार कर तातकालीन परिस्तथितियों के हिसाब से फैसला किया.  

इस्लामी दुनिया में आज क्या स्थिति है? 

सउदी अरब दुनिया का एक मात्र देश है जो कुरआन को ही अपना संविधान मानता है. वो पूरी दुनिया में इस्लामी हुकूमत का प्रतीक है. सऊदी अरब में हाल ही के कुछ साल पहले तक लड़कियों के लिए शादी की उम्र 15 साल थी. लेकिन 2019 में सऊदी सरकार ने इसे बढ़ाकर 18 साल कर दिया. पिछले साल 2020 में सऊदी अरब ने 18 साल कम उम्र में लड़कियों की शादी पर पूरी तरह पाबंदी लगी दी. इसे ग़ैर कानूनी क़रार दे दिया. वहां की सरकार ने यह क़म देश में बाल विहाह की ग़लत परंपरा को रोकने के लिए उठाया है. हाल के बरसों में अन्य मुस्लिम और इस्लामी हुकूमत वाले देशों मे देशों में भी बाल विवाह रोकने के लिए शादी उम्र बढ़ाई गई है. इस मामले दुनिया के मुसलमान खुले दिल और दिमाग़ से विचार कर रहे हैं.

पाकिस्तान की शीर्ष इस्लामी अदालत बनी मिसाल

दो महीने पहले पाकिस्तान की शीर्ष इस्लामी अदालत ने फैसला सुनाया है कि लड़कियों की शादी के लिए न्यूनतम आयु सीमा निर्धारित करना इस्लाम की शिक्षाओं के ख़िलाफ़ नहीं है. अदालत ने एक याचिका को ख़ारिज कर दिया. इसमें बाल विवाह निरोधक कानून की कुछ धाराओं को चुनौती दी गई थी. इस फैसले से बाल विवाह पर एक विवाद सुलझ सकता है, जो कट्टरपंथी मुसलमानों के इस आग्रह से उपजा है कि इस्लाम ने शादी के लिए कोई उम्र तय करने की अनुमति नहीं दी है. मुख्य न्यायाधीश मोहम्मद नूर मिस्कनजई की अध्यक्षता वाली संघीय शरीयत न्यायालय (एफएससी) की तीन- न्यायाधीशों की पीठ ने बाल विवाह प्रतिबंध अधिनियम (सीएमआरए) 1929 की कुछ धाराओं को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई की थी. उन्होंने साफ कहा कि इस्लामी राज्य में लड़कियों की शादी के लिए कोई न्यूनतम आयु तय करना इस्लाम के ख़िलाफ़ नहीं है. तो सवाल पैदा होता है कि अगर मोदी सरकार भी बाल विवाह रोकने के लिए लड़कियों की शादी उम्र 18 से बढ़ा कर 21 साल करना चाहती है तो इसमें क्या हर्ज है? क्या लड़कियों को ये अधिकार नहीं है कि वो पढ़— लिख कर किसी काबिल बनें? अगर सौ साल पहले मुस्लिम हुकूमतें उस दौर के सामाजिक हालात और ज़रूरतों के हिसाब से शादी उम्र बढ़ा सकती थीं तो आज मुस्लिम समाज मौजूदा हालात के हिसाब से इसमें बदलाव क्यों नहीं कर सकता? क्यों मुस्लिम संगठनों और नेताओं को लगता है कि लड़कियों को बालिग़ होते ही उनकी शादी कर देनी चाहिए? ये सोच मुस्लिम समाज को पीछे ले जाने वाली है. जब मुस्लिम लड़कियां सरकार के इस फैसले पर खुशी जता रही हैं तो फिर मौलवी और मुस्लिम नेता इस पर एतराज़ करने वाले कौन होते हैं?

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं) 

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