भारतगाथा 9: सरस्वती के भुला दिए इतिहास की रोचक गाथा, एक गुम हो चुकी नदी जो कभी नदीतमा थी

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भारतगाथा 9: सरस्वती के भुला दिए इतिहास की रोचक गाथा, एक गुम हो चुकी नदी जो कभी नदीतमा थी

सूर्यकांत बाली। हमारे देश में इतिहास का जितना संबंध उपलब्ध तथ्यों से है, उसका उतना ही गहरा संबंध उपलब्ध स्मृतियों से भी है। और अगर हमारी कोई स्मृति हमारे अवचेतन में, हमारे जहन में कहीं अविभाज्य रूप से बसी है, गहरे दर्ज है तो हम उसे इसलिए हँसी या उपेक्षा के लायक नहीं मान सकते क्योंकि उसका कोई भौतिक यानी पुरातात्विक प्रमाण हमें नहीं मिला है। साहित्य को भी हम इसीलिए कई मायनों में इतिहास मान लेते हैं क्योंकि उसमें भी कहीं सीधे तो कहीं परोक्ष तरीके से हमारे देश और समाज के अतीत की ढेर सारी स्मृतियाँ किसी न किसी रूप में दर्ज होती हैं। चूँकि हमारा देश ऐसा मानता है और ठीक इसी आधार पर ब्राह्मणग्रंथों को, रामायण-महाभारत जैसे प्रबन्ध काव्यों को और भागवत, शैव, जैन आदि परम्पराओं में प्राप्त विशाल पुराण साहित्य को कथा भंडार होने के बावजूद इतिहास का दर्जा देता है और पश्चिमी विद्वानों और अपने ही देश में जन्मे उनके मानसपुत्रों द्वारा इन्हें गप कहकर मजाक उड़ाने के बावजूद अपनी इस इतिहास-निष्ठा से नहीं डिगा है तो यह सब यूं ही नहीं है।

द्वारिका के अस्तित्व पर भी पहले उठे थे सवाल, मगर...

इतिहास को स्मृति में संजोए रखने वाली उन्हीं किताबों ने हमें बताया कि कृष्ण मथुरा पर मगध के राजा जरासन्ध के हमलों के डर के मारे भागकर अपने कुल-परिवार और सम्पत्ति-नागरिक समेत गुजरात की ओर चले गए। वहाँ उन्होंने समुद्र के किनारे द्वारिका नामक नगर बसाया। बाद में वही नगर समुद्र की उत्ताल तरंगों की किन्हीं अभूतपूर्व थपेड़ों की चोट न सहकर पानी में डूब गया। इन स्मृतियों को इतिहास की बजाय गप मानने वालों ने इस तमाम कथा की जमकर हँसी उड़ाई थी और तब तक हँसी उड़ाने के लोकतन्त्री अधिकार का जी भरकर उपयोग करते रहे, जब तक कि सचाई उभरने लगी कि हाँ, समुद्र में एक पूरा का पूरा शहर डूबा पड़ा है जो पौराणिक विवरण के मुताबिक द्वारिका ही लगता है और इसकी और ज्यादा छानबीन होनी चाहिए। अब वह छानबीन हो रही है और लोगों को कृष्ण द्वारा आज से करीब पाँच हजार साल पहले (यानी पाँच हजार साल से भी सदी भर पहले) बसाई द्वारिका को देखने का मौका आ मिला है। 

इतिहास की गलत व्याख्या ने भुलाया सरस्वती का अतीत

ठीक यही बात सरस्वती नदी को लेकर कहने में भी कोई हर्ज नहीं। जब पश्चिमी विद्वानों ने वेदों को पढ़ना शुरू किया तो उनका निष्कर्ष था कि आर्य (जिनको अपनी नस्लवादी इतिहास दृष्टि के कारण वे एक नस्ल मानते थे) जब भारत आए (क्योंकि वे इतने प्रभूत विरोधी प्रमाणों के बावजूद आज भी हमें भारत के बाहर का मानने का मिथ्या सुख पाले हुए हैं) तो वे गंगा, यमुना और सरस्वती को नहीं जानते थे, क्योंकि ऋग्वेद के प्रारंभिक मन्त्रों में इन नदियों का वर्णन नहीं मिलता। ज्यों-ज्यों वे पूरब की ओर बढ़े (क्योंकि उन गपोड़ियों के अनुसार वे पश्चिम से भारत में आए थे) तो बाद के मन्त्रों में इन नदियों का वर्णन मिलने लगा। इस स्थापना में दो भ्रान्तियाँ साफ थीं। एक कि उनके अनुसार तब पूरब में कुछ था ही नहीं जबकि हम जानते हैं कि मनु, इक्ष्वाकु, ऋषभदेव, भरत जैसे तेजस्वी राजा आज से आठ हजार साल पहले ही कोसल-अयोध्या में राज कर रहे थे, अपनी संतानों को पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में राजवंशों की स्थापना के लिए भेज रहे थे। यानी आठ हजार साल पहले ही सारा भारत सक्रिय, गतिशील था। दूसरी भ्रान्ति यह थी कि वे सरस्वती को गंगा-यमुना की तरह पूरब की ओर मुड़ जाने वाली नदी इसलिए माने बैठे थे कि प्रयाग में इन तीनों नदियों का संगम है, इस प्रचलित धारणा को उन्होंने अपनी कथित आर्य-खोज का आधार बना लिया, जबकि हम जानते हैं कि सरस्वती पूरब की ओर नहीं, दक्षिण की ओर बहती थी और शिवालिक की पहाड़ियों से निकलकर राजस्थान, सिन्ध और गुजरात से गुजरती हुई अरब सागर में जाकर गिरती थी। वे इस तरह भ्रान्ति का शिकार नहीं होते, अगर वे वेदों और तथाकथित आर्यों (यानी भारतीयों) के बारे में पूर्वधारणा बनाने से पहले पूरे वेद पढ़ लेते। तो वे भी हमारे साथ इस निष्कर्ष पर पहुँचते कि सरस्वती नदी तो कभी नदीतमा थी, शिवालिक से निकलकर पश्चिम भारत को नहलाती हुई अरब सागर में जाकर मिलती थी, आज से करीब पाँच हजार साल पहले सूख गई। जिसके पूरे इतिहास को फिर से खोजने के लिए पुराण और साहित्य हमारी मदद के लिए वैसे ही पेश हैं जैसे वह द्वारिका के बारे में कर रहे हैं।

नदियों में सर्वश्रेष्ठ थीं सरस्वती, इसीलिए नदीतमा

यह नदीतमा क्या होती है? समझना कोई मुश्किल नहीं। मान लीजिए कि एक क्लास में चालीस छात्र-छात्राएँ हैं। उनमें से दस बहुत लायक हैं तो वे योग्य कहलाए जाएंगे। उनमें से भी जो सबसे लायक होगा वह योग्यतम कहलाएगा। यह गौरव अगर छात्रा को मिला तो वह योग्यतमा कहलाएगी। अर्थात् सरस्वती उस वक्त की सबसे विराट नदी थी। इतनी विराट कि कहीं-कहीं उसका पाट आज के हिसाब से छह से आठ किलोमीटर तक चौड़ा था तो आप उसे नदीतमा नहीं तो और क्या कहेंगे? एक ओर यह नदीतमा सरस्वती और दूसरी ओर इसके पड़ोस में बहती सिन्धु जो आज भी भारत उपमहाद्वीप की नदीतमा है, दोनों मिलकर पूरे इलाके को उत्तर में समुद्र दर्शन का सुख देती होंगी। जहाँ नदी होगी वहाँ सभ्यता पनपेगी, खेती होगी, गाँव बसेंगे, शहर फैलेंगे, इतिहास रचा जाएगा, तीर्थभावना पैदा होगी और उनके किनारे बसने वालों के रोम-रोम में वह नदी आ बसेगी।

History Ganga raver saraswati yamuna