विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष : आदमी को पहाड़ खाते देखा है

author-image
The Sootr CG
एडिट
New Update
विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष : आदमी को पहाड़ खाते देखा है

जयराम शुक्ल. भोपाल से इंदौर जाते हुए जब देवास बायपास से गुजरता हूं तो कलेजा हाथ में आ जाता है। बायपास शुरू होते ही बाएं हाथ की ओर हनुमान जी की विराट प्रतिमा है, उसके पीछे खड़े पहाड़ का जो दृश्य है, बेहद दर्दनाक है। उसे देखकर कई भाव उभरते हैं, कि जैसे चमगादड़ ने अमरूद का आधा हिस्सा खाकर फेंक दिया हो, कि जैसे जंगली कुत्तों ने जिंदा वनभैंसे के लोथड़े निकाल लिए हों, कि जैसे हमने बर्थडे के केक को चाकू से काटा हो। यदि आपमें जरा भी संवेदना होगी तो इस अधखाए पहाड़ को देखकर कुछ ऐसे ही लगेगा। दाईं ओर गुंगुआती हुई कई चिमनियां दिखेंगी। दृश्य कुछ ऐसा बनता है कि मानो धरती माता के मुंह में जबरन कई सुलगती हुई बीड़ियां दता दी गईं हों।



यह दृश्य सिर्फ देवास का नहीं है। आप जहां भी रहते हों उसके दस किलोमीटर की परिधि में नजर दौड़ाइए इससे भी वीभत्स और कारुणिक दृश्य दिखेंगे। पर इसे अंतस से महसूस करने के वाल्मीकि की दृष्टि जगानी होगी, जिन्होंने क्रौंच वध की घटना में क्रौंचनी के अश्रु से उपजी करुणा के चलते सृ्ष्टि की पहली कविता रच दी। हर मनुष्य में यह दृष्टि है।



हां मैं प्रकृति प्रेमी हूं मेरी मुक्ति यहीं दिखती है। जब भी समय मिलता है तो विन्ध्य के वनप्रांतर में भटक लेता हूं। सिंगरौली के धुएं से निकलकर उससे लगे जंगलों में खूब भटका हूं। प्रकृति के चितेरे महाकवि महर्षि वाल्मीकि आज यहां आकर घूमते तो गश खाकर गिर पड़ते। हम भौतिकवादी खुदगर्ज आदमी हैं इसलिए ये सबकुछ देख भी लेते हैं।



यहां आकर आप देखेंगे कि आदमी ने किस तरह धरती को उलटा-पलटकर माटी के धूहे के नंगे पहाड़ खड़े कर दिए। लगभग 300 किलोमीटर की परिधि का नामोनिशां मिट गया। पहाड़ पिसकर बिजली में बदल दिए गए। खैर के वो अद्भुत जंगलों, वन्यजीवों की बात कौन करे यहां के बाशिंदा आज किस लोक में हैं किसी को इसकी खबर नहीं। विकास का ऑक्टोपस सिंगरौली से लगे सरई क्षेत्र के खूबसूरत जंगलों की ओर बढ़ रहा है। यह दुनिया के सबसे संपन्न जैवविविधता वाला क्षेत्र है। पेड़-पौधों की दृष्टि से और जीव-जंतुओं की दृष्टि से भी।



छत्तीसगढ़, झारखंड के हाथियों का यह कॉरीडोर है। भालुओं का प्राकृतिक आवास। गुफाओं की श्रृंखला आदमसभ्यता की कहानी कहती हैं। इस क्षेत्र का गुनाह यह है कि इसके पेट में कोयला है और वह कोयला हमारी ग्रोथरेट के लिए जरूरी है। इसलिए चाहिए हर हाल पर, किसी कीमत पर। कभी-कभी, गुण भी मौत के गाहक बन जाते हैं। जैसे कस्तूरी मृग के लिए, मणि नाग के लिए। यह तय है कि आज नहीं तो कल इस खूबसूरत वन की कस्तूरी और मणि की कीमत विकास की बलिबेदी पर चढ़कर चुकानी होगी।



कहते हैं कि हमारा समाज धर्मभीरु है। उसकी रक्षा के लिए हम किसी पराकाष्ठा तक जा सकते हैं। यदि ऐसा आप भी सोचते हैं तो एक बार चित्रकूट हो आइए। यहां भगवान श्रीराम साढ़े ग्यारह वर्ष रहे। जहां वे विचरते रहे होंगे वहीं के जंगल और पहाड़ों के भीतर उम्दा किस्म का बाक्साइट है। इसलिए भगवान राम की स्मृतियां बची रहें या चाहे जाएं चूल्हे भाड़ में।



बेरहम विकास यात्रा और ग्रोथरेट के चंद्रखिलौना के लिए हमें वो जंगल और वो पहाड़ चाहिए ही चाहिए। जिस सिद्धा पहाड़ को देखकर राम ने भुज उठाय प्रण कीन्ह का संकल्प लिया था उस पहाड़ की गति देखेंगे, जरा भी संवेदना होगी तो रो पड़ेंगे। जेसीबी के पंजों से ऐसे बाक्साइट निकाला है जैसे गिद्ध मरी लाश से अंतड़ियां निकालते हैं। सरभंग ऋषि का जहां आश्रम था उस वन प्रांतर को भी खनिज के लिए शिकारी कुत्तों की तरह नोचा खाया गया है।



पूरे देश के पहाड़ों और वनों के साथ ऐसे ही निर्दयी व्यवहार हो रहा है। किसलिए.. क्योंकि विकास के लिए ये जरूरी है। इससे ग्रोथरेट बढ़ती है। ग्रोथरेट का गणित बड़ा बेरहम है। खड़े हुए पेड़ों का विकास में कोई योगदान नहीं। इन्हें काटकर वहां से राजमार्ग निकालिए और पेड़ों को आरा मिल भेजिए या पेपर मिल, तभी विकास को गति मिलेगी।



खड़े हुए पहाड़ विकास के बाधक हैं। उन्हें केक की तरह काटकर सड़क में पसराना पड़ेगा विकास की गाड़ी तभी आगे बढ़ेगी। बहती हुई नदियों का विकास में तब तक कोई योगदान नहीं जब तक कि इन्हें बांधकर गांवों को न डुबा दिया जाए। यह विकास का नया फलसफा है जहां संवेदना, स्मृति, जिंदगी की कोई हैसियत नहीं। विकास के समानांतर विनाश की भी ग्रोथरेट होती है पर इसे नापे कौन? यह अर्थशास्त्रियों के विमर्श का विषय नहीं है।



अब ये कुछ सवाल खुद से पूछिए। क्या हम कोई पहाड़ बना सकते हैं। क्या जंगल, नदी, झरने पैदाकर सकते हैं। तो फिर इन्हें सजा-ए-मौत देने, नष्ट-भ्रष्ट करने का अधिकार किसी को कहां से मिला।



पुराण कथाओं में पढ़ा है कि एक बार सहस्त्रबाहु ने नर्मदा को बांधने की कोशिश की थी परशुराम ने उसके सभी हाथ काट डाले। आज हम नदियों को बांधने, उनकी धारा को मोड़ने की, पहाड़ों और जंगलों को खाने की राक्षसी कोशिशें कर रहे हैं।



इन्हें हमारे वैदिक वाग्यमय में माता, पिता, सहोदर, भगिनी, पुत्र, बंधु-वांधवों का दर्जा कुछ सोच-समझकर ही दिया गया है। ये हमें देते ही देते हैं। ये हैं तभी हम हैं। नीति ग्रंथों में लिखा है कि प्रकृति से हम उतना ही लें जितना कि एक भ्रमर फूल और फल से लेता है। हमें गाय की तरह दुहने की इजाजत है गाय को ही काटकर खाने की नहीं।



विकास की निर्दयी होड़ ने प्रकृति को कत्लगाह में बदल दिया है। संभल सकें तो संभलिए नहीं तो याद रखिए ईश्वर की लाठी बेआवाज होती है और हर किए की सजा मिलती है, इसी लोक और इसी काया में।


plant World Environment Day mountain विचार मंथन exploitation जयराम शुक्ल vichar manthan Jayram Shukla mining विश्व पर्यावरण दिवस खनन प्रदूषण Pollution पहाड़ दोहन प्रकृति आदमी को पहाड़ खाते देखा है have seen a man eating a mountain nature