अजय बोकिल। कांग्रेस सांसद व पूर्व पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा जयपुर की महंगाई विरोधी रैली में ‘हिंदू और हिंदुत्व’ का मुद्दा उठाना इस बात का प्रमाण है कि अब राष्ट्रीय बहस का कोर मुद्दा ‘हिंदू’ और उससे जुड़ी बातें ही हैं। राहुल गांधी ने कहा कि मैं हिंदू हूं, लेकिन ‘हिंदुत्ववादी’ नहीं हूं। यह बहुत महीन दार्शनिक और राजनीतिक बहस है, जिसका ठीक-ठीक अर्थ खुद राहुल गांधी भी समझें हैं या नहीं, कहना मुश्किल है। एक आम हिंदू के गले इसे उतारना उतना ही कठिन है, जितना कि मछली को पानी से अलग करना...
गांधी हिंदू थे, लेकिन उनका हिंदुत्व समावेशी
यह सही है कि ‘हिंदुत्व’ का विचार बीती सदी में सबसे पहले वीर सावरकर ने दिया। सावरकर पर वामपंथी जो भी लांछन लगाते रहे हों, लेकिन सावरकर बुद्धिवादी राष्ट्रवादी थे। उनका ‘हिंदुत्व’ का विचार इस अर्थ में मौलिक था कि उस दृष्टि से पहले किसी ने सोचा ही नहीं था। सावरकर ने कहा कि जिस व्यक्ति के लिए भारत ही ‘पुण्यभू’ (पुण्यभूमि) है, वह हिंदू है। यही हिंदुत्व है। प्रकारांतर से इस विचार को मानने वाला हर व्यक्ति ‘हिंदुत्ववादी’ हुआ। राहुल गांधी ने अपनी बात का औचित्य इस तर्क से ठहराया कि महात्मा गांधी तो ‘हिंदू’ थे, लेकिन उनकी हत्या करने वाला नाथुराम गोडसे ’हिंदुत्ववादी’ था। ये दो नाम इसलिए, क्योंकि दोनो की अपनी-अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताएं थीं। वरना हर वो हिंदू जो दूसरे हिंदू को मारे ‘हिंदुत्ववादी’ कहला सकता है। राहुल गांधी ने यह तो माना कि महात्मा गांधी ‘हिंदू’ थे, वरना अभी तक गांधीजी को धर्मनिरपेक्षता के खांचे में फिट करने की पुरजोर कोशिश की जाती रही है। इसका परिणाम यह हुआ है कि गांधी नाम का झंडा अब उन लोगों ने भी उठा लिया है, जो कल तक गांधी के कट्टर विरोधी और बापू को मुस्लिम परस्त मानते रहे हैं। गांधी हिंदू थे, इसमें संदेह नहीं, लेकिन उनका हिंदुत्व समावेशी था। वो भीतर से कट्टर हिंदू थे, लेकिन बाहर से सभी धर्मों का आदर करने वालों में थे। चाहें तो गांधी की इस आंतरिक कट्टरता को भी ‘हिंदुत्व’ कहा जा सकता है। पिछले कुछ समय से हिंदुत्व की अवधारणा को ‘राजनीतिक अवधारणा’ निरूपित किया जाने लगा है। अर्थात ‘हिंदुत्व’ केवल सत्ता पाने का हथियार है, जिसकी बुनियाद मुस्लिम और ईसाई द्वेष पर रखी गई है। इस परिभाषा को सही मानें तो स्वयं राहुल गांधी भी यह मुद्दा भी इसलिए उठा रहे हैं ताकि ‘हिंदुओं को कांग्रेस के पक्ष में गोलबंद किया जा सके।‘ ऐसे में उनका ‘हिंदू’ होना नीयत की दृष्टि से ‘हिंदुत्व’ से कितना अलग है?
राजनीति के तो सारे हिंदू ही ‘हिंदुत्ववादी’
राहुल गांधी और कांग्रेस को अब यह समझ आ गया है कि जब तक देश के बहुसंख्यक हिंदुओं का विश्वास फिर से नहीं जीतते तब तक कांग्रेस या उस जैसे मध्यमार्गी दलों का केन्द्र में सत्ता में आना नामुमकिन है। भाजपा और संघ ने बहुसंख्य हिंदुओं के मन में यह बात गहरे से पैठा दी है कि कांग्रेस की राजनीति मूलत: अल्पसंख्यकवादी है। शायद इसी फांस को निकालने की राहुल गांधी की ताजा कोशिश है। लेकिन इसका कोई सकारात्मक परिणाम तभी दिखेगा, जब गांधी परिवार खुद को सौ फीसदी हिंदू साबित करे। नरेन्द्र मोदी यह काम सौ टंच तरीके से और बहुत खुलकर करते हैं। उनके पहले शायद ही किसी प्रधानमंत्री ने अपनी आस्था का इतने बेखौफ प्रदर्शन किया हो। ‘हिंदू और हिंदुत्व’ के बीच का फर्क और उसके राजनीतिक मायने उस आम हिंदू को, जो पहले ही आस्था के सागर में गले तक डूबा है, को समझाना टेढ़ी खीर है। जनमानस की हिंदुत्व की सरल परिभाषा इतनी है कि जो हिंदू धर्म को बिना किसी हिचक के माने, उसके कर्मकांड में विश्वास रखे, वो हिंदू है। लिहाजा राजनीति में जितने भी हिंदू हैं, वो सभी सत्ता स्वार्थ के चलते परोक्ष रूप से ‘हिंदुत्ववादी’ ही हुए।
हिंदू एक ‘जीवन शैली’ और हिंदुत्व एक प्रतिक्रियावादी सोच
राहुल गांधी के कथन में सबसे बड़ी स्वीकारोक्ति यह है कि अब देश में राजनीति के केन्द्र में बहुसंख्यकवाद ही चलेगा। हालांकि यह सर्वसमावेशिता की दृष्टि से बहुत अच्छी स्थिति नहीं है और सर्व धर्म समभाव को पोषित नहीं करती। लेकिन वर्तमान अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय परिस्थितियां इस सोच को किसी हद तक वैधता प्रदान कर रही हैं। राहुल गांधी ने जो कहा है, वह भी बहुसंख्यकवाद और बहुसंख्यक वर्चस्व के आग्रह को पुष्ट करने वाला है और यही तो आरएसएस और भाजपा भी चाहते हैं। यानी सारा नरेटिव और एजेंडा इसी बात को लेकर है कि तमाम चर्चाओं, गतिविधियों और राजनीति के केन्द्र में भी ‘हिंदू’ ही रहे। राहुल ने जाने-अनजाने में वही फोकस बनवा दिया है। उनकी इस बात में आंशिक सत्य है कि हिंदू सत्य की खोज में कभी नहीं झुकता है, लेकिन ‘हिंदुत्ववादी’ नफरत से भरा होता है। यकीनन कुछ लोग ऐसे होते हैं, लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि ‘हिंदू हित की बात करने वाले को ‘हिंदुत्ववादी’ सिद्ध कर राहुल बहुसंख्य हिंदुओं का राजनीतिक समर्थन कैसे हासिल करेंगे? हमे समझना होगा कि हिंदू एक ‘जीवन शैली’ और सनातन विचार है, लेकिन हिंदुत्व एक प्रतिक्रियावादी सोच है और इस प्रतिक्रियावादी सोच का जन्म भी प्रति कट्टरता और प्रति हिंसा के रूप में हुआ है। यह मूल हिंदू सोच नहीं है, इसलिए स्थायी भी नहीं है।