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अनिल कर्मा। आखिर-आखिर में टोक्यो ओलंपिक हमारे लिए अत्यंत शुभ रहा है। यादगार। 7 मेडल के साथ अब तक का सबसे सफल। एथलेटिक्स में पहला गोल्ड। सपना सच। बेशक हम बहुत खुश हैं। बहुत ज्यादा। वैसे खुश तो हम इससे पहले भी थे। हॉकी में कांस्य पदक मिलने पर भी। क्यों? क्योंकि हम अच्छा खेले। क्योंकि खिलाड़ियों ने जी-जान लगी दी। क्योंकि 41 साल बाद हमने वापसी की। किसी भारतवासी ने उस वक्त भी इस बात पर नाराजगी व्यक्त नहीं की कि हम सिल्वर या गोल्ड क्यों नहीं ला पाए। क्यों? क्योंकि बहुत पीछे जाने पर थोड़ा भी आगे बढ़ना मायने रखता है। लेकिन क्या सिर्फ इसलिए? नहीं। हमने तो कुश्ती के सिल्वर को भी गले लगाया। वेट लिफ्टिंग के सिल्वर को भी मान दिया। बैडमिंटन का कांस्य भी कबूल किया, जबकि पिछली बार सिंधु ने इसी गेम में हमें सिल्वर दिलवाया था। यह सोचकर खुश हो लिए कि पदक छोटा हुआ तो क्या, सिंधु लगातार दूसरा पदक जीतने वाली देश की पहली महिला तो बन गईं।
हम उन्माद में नहीं फंसे
हमने तो पदक नहीं जीत पाने वाली महिला हॉकी टीम का भी हौंसला ही बढ़ाया। हमने ऐसा दरअसल दो वजहों से किया। पहला, हमारी ‘डिज़ायर’ ही इतनी है। हम इतना ही सोचते हैं। हमारी तैयारी ही इतनी है। लेकिन दूसरी वजह बहुत सकारात्मक है। सुलझी हुई। हमने खेल को खेल की तरह देखा। खिलाड़ियों के जज्बे को देखा। संघर्ष को आंका। और जो मिला उसमें आनंद मनाया। हम उन्माद में नहीं फंसे। शायद यह हमारी मर्यादित खेल भावना है। (मर्यादित यानी लिमिटेड। क्योंकि क्रिकेट में कई बार हम इस माहौल के शिकार हो जाते हैं। खासतौर से पाकिस्तान के साथ होने वाले मैचों में।)
चीनियों के लिए अवार्ड टैली भी युद्ध का मैदान
दूसरी तरफ चीन है । इसी ओलंपिक में जब टेबल टेनिस के फ़ाइनल मैच में वहां की मिक्स्ड डबल्स टीम को जापान के हाथों हार का सामना करना पड़ा, तो चीन के लोगों ने सोशल मीडिया पर कोहराम मचा दिया। जाहिर है टीम सिल्वर मेडल तो जीती ही, लेकिन इतने पर भी चीनवासियों को संतोष नहीं। किसी ने यहां तक लिखा- ‘मिक्स्ड डबल्स की जोड़ी ने देश का सिर नीचा किया है।’ एक ने तो इसे ‘देश को धोखा देना’ करार दिया। टीम को अंतत: आँखों में आँसू भरकर वहां की जनता से माफ़ी माँगना पड़ी। चीनियों का ऐसा व्यवहार दो वजहों से रहा। एक, अति राष्ट्रवाद। चीनियों के लिए अवार्ड टैली यानी युद्ध का मैदान। यहां वे किसी को आगे नहीं देख सकते। दूसरा, चीन-जापान संबंध। लगभग भारत-पाक जैसी कड़वाहट। तो राजनयिक और राजनीतिक ‘काला’ खेल की भी सूरत बिगाड़ गया। खेल की भावना खत्म, खल का खेल शुरू।
चीन के मेडल हमसे 12 गुना ज्यादा
तो क्या हम सही राह पर हैं? थोड़ा हां। बहुत ना। अगर हम 121 साल से मुकाबले में हैं तो तमाम खुशी के बावजूद अवार्ड टैली से मुंह नहीं मोड़ सकते। सच का सामना करना होगा। टोक्यो ओलंपिक में भारत ने 7 मेडल जीते हैं। कुल। इसमें गोल्ड सिर्फ1। उधर पड़ोसी देश चीन की बात करें तो उसने 38 तो गोल्ड ही जीत लिए हैं। यानी हमारी तुलना में 38 गुना। इस बार के कुल मेडलों की बात करें तो वह हमसे करीब 12 गुना से भी ज्यादा है। 87 मेडल। पहले के मेडल भी जोड़कर ओलंपिक के पूरे सफर की बात की जाए तो चीन ने अब तक कुल 525 + 87 यानी 612 मेडल जीते हैं। और हम खड़े हैं 28 + 7 यानी 35 पर। यानी चीन के मुकाबले 5 प्रतिशत के आसपास। केवल गोल्ड से तुलना करें तब भी हमारे हाथ में अब तक मात्र 9+1 यानी 10 स्वर्ण हैं जबकि चीन 217 +38 यानी 255 गोल्ड जीत चुका है। यह तुलना भी इस तथ्य को नजरअंदाज करते हुए करना पड़ रही है कि भारत सन् 1900 से ओलंपिक मुक़ाबलों में भाग ले रहा है जबकि चीन ने यह शुरुआत 1984 में की। 84 साल का यह गैप भी कम तो नहीं है।
अति कोई भी हो बुरी ही होती है
तो चूक कहां हो रही है? क्या हमें भी चीन की राह पर चल पड़ना चाहिए। वही, अवार्ड यानी ‘खुदा’ और हारे मतलब ‘राष्ट्रद्रोह’।शायद नहीं। बल्कि पक्का नहीं। जनसंख्या सहित कई मामलों में काफी समान होते हुए भी चीन की ‘और हमारी फितरत में जमीन-आसमान का फर्क है। दूसरी बात, खेलों को ‘युद्ध’ बनाने से पहले हजार बार सोचा जाना चाहिए। और करोड़ों बार रोकना पड़े, तो इसे रोकना चाहिए। पूरी दुनिया के लिए यह बड़ी चुनौती है। अब तो खुद चीन के सुलझे बुद्धीजीवी सवाल उठाने लगे हैं कि क्या अवार्ड को ही सब कुछ मान लिया जाना चाहिए? जीवन से भी ज्यादा? तीसरी बात, ‘अति’ चाहे राष्ट्रवाद से पहले जुड़े, बुरी ही होती है।
अवार्ड टैली में बैक बेंचर आखिर कब तक ?
लेकिन सवाल यह है कि अवार्ड टैली में ‘बैक बैंचर’ आखिर क्यों? और कब तक? इस पर सोचना तो होगा। जहां तक चूक का सवाल है तो वह तो कई, बल्कि हर स्तर पर रही है। लगातार हो रही है। इसमें किसी से कुछ छुपा नहीं। 2012 की तुलना में एक पदक ज्यादा आने से या गोल्ड मिल जाने से सवाल समाप्त नहीं हो जाते। हमारी ग्रोथ ‘औसत’ ही है। लेकिन हां, हमारे आंकड़ों पर एक बार फिर नजर दौड़ाएं तो हम पाएंगे कि हमारे ही देश के दो छोटे-छोटे हिस्से हमारे लिए ‘पॉकेट गाइड’ बन सकते है। टोक्यो ओलंपिक की ही बात करें तो हमने कुल 119 खिलाड़ियों का दल भेजा है। इसमें 6 खिलाड़ी अकेले मणिपुर से है। यानी 5 प्रतिशत। जबकि देश की जनसंख्या में मणिपुर का हिस्सा मात्र 0.24 फीसदी है। हरियाणा के सबसे ज्यादा 31 खिलाड़ी शामिल हैं। यानी 25 प्रतिशत भागीदारी जबकि देश की जनसंख्या में इस राज्य का हिस्सा मात्र 1.8 फीसदी है।
मणिपुर, हरियाणा मान दिलवाते रहे हैं
अब इस बार के अवार्डस् की बात करें तो कुल 6 व्यक्तिगत में से 1 अवार्ड मणिपुर ( मीराबाई चानू , वेटलिफ्टिंग) ने हमारी झोली में डाला है। यानी लगभग 20 प्रतिशत योगदान। यही नहीं, 41 साल बाद कांस्य पदक दिलाने वाली पुरुष हॉकी टीम की उपलब्धि में भी मणिपुर के शांगलाकपम नीलकांत शर्मा ने पूरा हाथ बटाया। इससे पहले भी 2012 में बॉक्सिंग में मणिपुर की मैरी कॉम एक कांस्य पदक भारत के खाते में जोड़ चुकी हैं। इसी तरह हरियाणा ने नीरज चोपड़ा (जेवलिन थ्रो), रवि दहिया (कुश्ती), बजरंग पुनिया (कुश्ती) के रूप में आधे यानी 50 फीसदी व्यक्तिगत अवार्ड का योगदान दिया। यही नहीं, हॉकी टीम में भी यहां के दो खिलाड़ियों ने हाथ बंटाया। टोक्यो ओलंपिक से पहले भी हरियाणा के विजेंदर सिंह, योगेश्वर दत्त,साक्षी मलिक ओलंपिक में देश को मान दिलवाते रहे हैं।
यहां खेल सिर्फ बातों में नहीं सांसों में है
मणिपुर या हरियाणा में खेल सुविधाएं विश्व स्तर की हों , ऐसा नहीं है। वहां भी बाकी देश की तरह अभाव हैं। हां , थोड़ा गहराई से देखा जाए तो समझ में आता है कि अभाव में भी वहां खेलों की ‘अनदेखी’ वैसी नहीं है, जैसी बाकी जगह दिखती है। खेल वहां ‘बातों’ में नहीं, ‘सांसों’ में है। दंगल हरियाणा के दूध में है, लोकगीतों में है, और इसलिए खून में भी। मणिपुर में मां की लोरी खेल के संदेश की मिठास लिए हुए होती है। खेल वहां ‘परंपरा’ है। कई स्थानीय देवी-देवताओं के नाम से मनाए जाने वाले उत्सवों में खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन होता है। सरकार खेल के हक में है। ध्यान रखा जाता है कि खेल में प्रतिभा के साथ कोई ‘खेल’ न हो। हरियाणा खुद को 'स्पोर्ट्स पावर हाउस' के रूप में प्रोजेक्ट करता रहा है। उसने ओलंपिक और पैरालंपिक खेलों के लिए इनामी राशि में जबरदस्त बढ़ोतरी की है। ‘पदक लाओ, पद पाओ' की रणनीति भी यहां कारगर रही है।
मणिपुर, हरियाणा हमारे नैसर्गिक मॉडल
जब खेलों के नैसर्गिक विकास के दो मॉडल हमारे ही आसपास मौजूद हैं तो हम चीनी ‘अतिवाद’ पर क्यों जाएं? मां का दूध और मां की लोरी किसी भी बाहरी ‘इंजेक्शन’ से अधिक असरकारक हैं। और रहेंगे। बस जरूरत शेष भारत की मातृशक्ति को खेल की उस ‘घुट्टी’ में मिलाने की है जो वे बच्चे को रोज देती हैं। बाकी की बाधाओं पर हम वैसे ही धीरे-धीरे पार पा लेंगे, जैसे इन दो राज्यों ने पाने की झलक दिखला दी है। यदि देश की महज 2 प्रतिशत आबादी यह ‘धमाल’ कर सकती है तो बाकी 98 फीसदी के साथ आने से तो ‘कमाल’ होना तय है। 28 राज्य और 9 केंद्र शासित प्रदेश (कुल 37) इस राह पर चल पड़े तो हमारा प्रदर्शन 18 गुना बेहतर तो हो ही सकता है।(लेखक प्रजातंत्र अखबार के संपादक हैं।)
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