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Photograph: (The Sootr)
धीरज कुमार श्रीवास्तव
बार-बार किए गए बचाव अभियान भारत की पिरपक्व होती विदेश नीति को दर्शाते हैं, लेकिन वे प्रवासन प्रबंधन की प्रणालीगत कमजोरियों को भी उजागर करते हैं। हाल के वर्षों में भारत ने यूक्रेन और सूडान जैसे संघर्षग्रस्त क्षेत्रों से भारतीय नागरिकों को निकालने के लिए कई अहम ऑपरेशन किए।
हाल ही में ईरान और इजराइल जैसे संकटग्रस्त क्षेत्रों से भी छात्रों, तीर्थयात्रियों और प्रवासी श्रमिकों को निकाला गया। इन अभियानों की तेजी और समन्वय की सराहना तो हो रही है, लेकिन हर बार यही सवाल उठता है - इतनी बड़ी संख्या में भारतीय हर संकट में कैसे फंस जाते हैं और हर बार हमें आपातकालीन उपायों की जरूरत क्यों पड़ती है?
अब समय आ गया है कि भारत केवल आपात निकासी (evacuation) तक सीमित न रहे, बल्कि एक दीर्घकालिक, समेकित और मानवीय प्रवासन नीति की ओर बढ़े, जिसमें पुनर्वास (reintegration), सुरक्षा, और संकट से पहले की तैयारी शामिल हो।
विविध प्रवासी, विविध असुरक्षाएं
दुनिया की सबसे बड़ी प्रवासी आबादी भारत के पास है - 1.8 करोड़ से अधिक। लेकिन यह आबादी एकसमान नहीं है। अमेरिका या यूके के पेशेवरों पर तो ध्यान जाता है, लेकिन बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिक खाड़ी देशों, पश्चिम एशिया और अफ्रीका में हैं। इसके अलावा, हाल के वर्षों में यूक्रेन, ईरान, चीन और रूस जैसे देशों में पढ़ाई करने वाले छात्रों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है।
यह समूह सबसे असुरक्षित होता है। वे राजनीतिक रूप से अस्थिर क्षेत्रों में रहते हैं, उनके पास कानूनी सुरक्षा नहीं होती, और वे कई बार अनौपचारिक या शोषणकारी समझौतों के तहत काम कर रहे होते हैं।
कोविड-19: एक भूला हुआ सामूहिक पलायन
यूक्रेन या ग़ज़ा से बचाव से पहले, भारत ने कोविड-19 के दौरान 1.8 करोड़ से अधिक लोगों की वापसी देखी - विदेशों से भी और देश के भीतर शहरों से गाँवों तक। यह केवल लॉजिस्टिक्स का मामला नहीं था - यह एक सामाजिक और मानवीय संकट था।
लेकिन इस ऐतिहासिक वापसी के बाद कोई ठोस राष्ट्रीय नीति सामने नहीं आई। न कौशल का मानचित्रण हुआ, न पुनर्वास की रणनीति। अधिकांश लोग या तो फिर से अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में चले गए या फिर विदेश लौटने की राह देख रहे हैं।
प्रतीकात्मकता नहीं, ठोस नीति की जरूरत
भारत के राहत अभियानों अत्यंत सराहनीय हैं, लेकिन वे स्थायी समाधान नहीं हो सकते। अब कुछ ठोस और संस्थागत पहलें जरूरी हैं:
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जोखिमग्रस्त क्षेत्रों में भारतीयों का डेटाबेस बने - श्रमिकों, छात्रों और तीर्थयात्रियों की रीयल-टाइम जानकारी भारतीय मिशनों और मंत्रालयों के समन्वय से रखी जाए।
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वापसी के बाद पुनर्वास को संस्थागत रूप दें - मानसिक, आर्थिक और सामाजिक सहायता सुनिश्चित हो।
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औपचारिक श्रम समझौतों को बढ़ावा मिले - अनौपचारिक प्रवासन को नियंत्रित कर बीमा, सुरक्षा और निकासी प्रावधान सुनिश्चित किए जाएं।
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विदेशों में भारतीय छात्रों की सुरक्षा पर ध्यान दिया जाए - सस्ती शिक्षा का मतलब असुरक्षित भविष्य नहीं होना चाहिए।
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प्रवासी नीति में विविधता हो - नीति केवल सफल एनआरआई तक सीमित न हो, बल्कि दुबई के राजमिस्त्री, इज़राइल की नर्स, तेहरान का छात्र और बेरूत का ड्राइवर भी उसका हिस्सा हों।
मिशन समार्थ: एक राष्ट्रीय समाधान
भारत को एक दीर्घकालिक रणनीति की जरूरत है - एक मिशन समार्थ जैसी राष्ट्रीय पहल, जो प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन चलने वाली मल्टी-मंत्रालयी टास्क फोर्स के जरिए क्रियान्वित हो। इसमें शामिल हो:
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रिटर्न पोर्टल - दस्तावेज मान्यता, नौकरी मिलान, कर स्पष्टता और आवास सहायता को एकीकृत करने वाला डिजिटल मंच।
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रिवर्स टैलेंट फेलोशिप - भारतीय मूल के वैज्ञानिकों और नीति विशेषज्ञों को 3–5 साल के लिए भारत में योगदान देने का अवसर।
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वैश्विक गतिशीलता कार्यबल - विदेश मंत्रालय, श्रम, शिक्षा, राज्य सरकारें और भारतीय मिशन मिलकर संकट तैयारी और प्रवासी अधिकार सुनिश्चित करें।
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गैर-सरकारी विशेषज्ञों की भागीदारी - सिविल सोसाइटी, शिक्षाविद, प्रवासी नेटवर्क और सेवाविनिवृत्त अधिकारी नीति निर्माण में भाग लें।
पुनर्वास - राष्ट्र निर्माण
जब लाखों भारतीय संकट के कारण घर लौटते हैं, वे केवल पीड़ा नहीं - अनुभव, कौशल और वैश्विक दृष्टिकोण लेकर आते हैं। उन्हें नजरअंदाज करना केवल उनका ही नहीं, बल्कि भारत की संभावनाओं का नुकसान है।
समन्वित नीति की जरूरत
प्रवासन नीति को केवल मंत्रालयों तक सीमित नहीं रखा जा सकता। एक समन्वित अंतर-मंत्रालयी रणनीति, नीति आयोग जैसे केंद्रीय संस्थान की निगरानी में, राज्य सरकारों, उद्योगों और समाज के साथ मिलकर विकसित की जानी चाहिए।
हर बार जब दुनिया में संकट आता है - भारत विमान भेजता है। लेकिन हर बार हम संकट के बाद ही सोचते हैं। अब समय है कि हम नीति को पहले लाएं, निकासी को नहीं।
भारतीय नागरिक केवल संकट के समय याद किए जाने वाले यात्री नहीं हैं - वे भारत की ताकत हैं। उन्हें बचाव नहीं, सम्मान और पुनर्वास चाहिए।
लेखक राजस्थान प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे हैं। उनके पास महत्वपूर्ण जिम्मेदारी रही हैं।
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