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जयराम शुक्ल। कोई चार दिन पहले ही भास्कर में छपने वाले 'परदे के पीछे में' अपने स्तंभ को स्थगित करते हुए वादा किया था कि फिलहाल विदा ले रहे हैं अलविदा नहीं... लेकिन अपने वायदे पर कायम नहीं रहे जयप्रकाश चौकसे साहब..
वे हमारे जैसे न जाने कितने प्यासे पाठकों को छोड़कर चले गए। बीती रात इंदौर में आखिरी साँस ली। वे अपने स्तंभ में खुद को 'खाकसार' और किसी फिल्म के निर्माण को 'हादसा' लिखते रहे। आज वही खाकसार खुद के जीवन का हादसा रचते हुए खाक में जा मिला।
चौकसेजी पर मेरे लिखे की व्यापक प्रतिक्रियाएं आईं थी। उनके बेटे राजू चौकसे ने संदेश भेजा कि- "आपने जो लिखा वह पापा को पढ़कर सुनाया, उनका ढेर सारा आशीष आप तक पहुँचे"। कुछेक मित्रों ने चौकसेजी को सलेक्टिव लेखक कहा तो कइयों को उनके लिखे पर इसलिए आपत्ति रही कि वे घुमाफिराकर मोदी के खिलाफ लिखते हैं।साहित्य व कविताओं के मामले में दो-चार कवियों, रचनाकारों की रचनाओं से बाहर ही नहीं निकलते। राजकपूर परिवार पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए उद्दत रहते हैं तो सलीम साहब की मित्रता निभाने के लिए सलमान के अपराधों के सामने उसकी पुण्याई का ढाल बनकर खड़े हो जाते हैं..।
पर प्रतिक्रियाओं का मूल स्वर यही रहा कि जो भी लिखते हैं कमाल का लिखते हैं, आरपार लिखते हैं, उनके लिखे में 'ग्रे शेड्स' नहीं दिखता। उनके विचार बिल्कुल ब्लैक एन्ड व्हाइट रहते हैं, पसंद, ना पसंद सबकुछ स्पष्ट। आज के दौर में इतना स्पष्ट लिखने का भला माद्दा किसमें! हममें से बहुतों ने फिल्म तत्व को चौकसे जी के मार्फत जाना.. और सिनेमा को लेकर वैसा ही नजरिया बना।
जयप्रकाश चौकसे जी को पढ़ना और सुनना अद्भुत अनुभूतिदायक रहा है। उन्होंने 'हरजाई, 'शायद, 'कन्हैया व 'वापसी जैसी फिल्मों का निर्माण भी किया। उनकी पुस्तकें- 'महात्मा गाँधी और सिनेमा', 'सिनेमा का अफसाना', 'सिनेमा का सच' बेहद चर्चित हुई हैं। आखिरी दिनों में वे महाभारत पर एक सिनेमाई पुस्तक रच रहे थे। पता नहीं वे अपने जीवन के उपसंहार में 'यादवी घमासान', कृष्ण-वध
(बहेलिया प्रसंग) और द्वारिका विसर्जन तक पहुंच पाए थे कि नहीं।
जब भी फिल्मों की बात चलेगी चौकसेजी देश के करोड़ों करोड़ पाठकों के दिल-ओ-दिमाग को झनझनाते रहेंगे। उनकी स्मृतियों को नमन।