ओमप्रकाश श्रीवास्तव। जब स्वामी विवेकानन्द ने देखा कि हिन्दू धर्म भेदभाव और छुआछूत की कुरूतियों के कारण अपने मूल सिद्धांतों से भटक गया है, तब व्यथित होकर उन्हें कहना पड़ा कि ‘’हमारा धर्म हमारी रसोई तक सीमित होकर रह गया है। हमारा भगवान् हमारे बर्तनों में है। हमारा धर्म कहता है कि हम पवित्र हैं, हमें मत छुओ।‘’ हिंदू समाज में असमानता और भेदभाव की कुरूतियों के लिए सीधे वर्णव्यवस्था को दोषी बताकर प्रकारान्तार से हिन्दू धर्म को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। इसलिए यह पीड़ा केवल विवेकानन्द की नहीं थी, बल्कि उस हर व्यक्ति की रही है जो सनातन धर्म के सिद्धांतों को वास्तव में समझता है। जो सनातन धर्म (हिन्दू धर्म), कण-कण में ब्रह्म की सत्ता को अनुभूत करता है, जो पेड़-पौधों और जीव-जन्तुूओं में भी चेतना की बात कहकर उनके प्रति सहृदय होने का संदेश देता है, वह मानव- मानव के बीच इतनी गैर बराबरी और विसंगतियों को कैसे स्वीकार कर सकता है?
जन्म नहीं, योग्यता आधारित थी वर्ण व्यवस्था
सैद्धांतिक रूप से कहें तो कदापि नहीं। परंतु धर्म के व्याख्याकारों ने अपने स्वार्थ के लिए धर्म की आड़ में मानवीय गरिमा के विपरीत ऐसे सामाजिक नियम बना दिए, जिन्होंने समाज को बांट दिया, समाज के एक बड़े वर्ग को शैक्षणिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से गैर-बराबरी पर रख दिया। यह नियम सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों के सर्वथा विपरीत थे, परंतु चूंकि इन पर धर्म का मुलम्मा चढ़ा था इसलिए बदनाम हिंदू धर्म होने लगा। समाज संचालन के लिए विभिन्न कार्य करने होते हैं। जहां मानसिक कार्य, बुद्धि और विचार की आवश्यकता होती है, वहीं रक्षा के लिए शक्ति, व्यापार वाणिज्य से धन उपार्जन और शारीरिक श्रम के कार्य भी उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं। आदर्श रूप में वैदिक वर्णव्यवस्था का उद्देश्य लोगों के बीच इन कार्यों का योग्यता के आधार पर बंटवारा करना था। वर्णव्यवस्था और जाति व्यवस्था पर्यायवाची नहीं हैं। मूल वैदिक ग्रंथों में जन्म आधारित जाति का उल्लेख नहीं है। वहॉं वर्ण व्यवस्था है, परंतु वह भी जन्म आधारित नहीं है। उसका आधार व्यक्ति की योग्यता है। इसीलिए गीता में कृष्ण कहते हैं – चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश: (मैंने लोगों के गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर चारों वर्णों का निर्माण किया है)। जिस व्यक्ति की जैसी योग्यता होती, वह उस वर्ण का मान्य किया जाता था।
वर्ण उन्नति के कई उदाहरण हैं इतिहास में
पौराणिक ग्रंथों में वर्ण में परिवर्तन के कई उदाहरण मिलते हैं। हरिवंश पुराण में शुनक ऋषि के चार पुत्रों का वर्णन है। जिनमें एक शौनक ब्राह्मण थे और शेष तीन क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र वर्ण के थे। वैश्य नाभागारिष्ट के दो पुत्रों को ब्राह्मणत्व प्राप्त हुआ था। भार्गव वंश के अंगिरस ऋषि के चारों पुत्र, चार वर्णों के थे। विश्वामित्र, कौशिक, मौदगल्या, आंगिरस आदि के पूर्वज क्षत्रिय थे, परंतु वह अपने तप और ज्ञान के कारण ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए। महाभारत में कर्ण को सूत पुत्र समझा जाता था, परंतु जैसे ही वह अंग देश का राजा बना उसे द्रोपदी के स्वयंवर में भाग लेने का अवसर मिल गया। सीता के स्वयंवर में भाग लेने के लिए अनेक देशों और संस्कृतियों के राजा आए थे। उसमें राम के अलावा राक्षस वंश का रावण भी शामिल था। यदुवंशी कृष्ण की बुआ कुन्ती कुरुवंश में ब्याही गई थीं। चन्देल वंशीय रानी दुर्गावती का विवाह गोंड़ वंशीय राजा दलपतशाह से हुआ था। शासक होने का अर्थ ही था कि वह क्षत्रिय वर्ण का मान्य हो गया। इसी प्रकार कर्म के आधार पर अन्य वर्णों में परिवर्तन हो सकता था। वैदिक ग्रंथों में वर्ण के अलावा दो अन्य शब्दों का उल्लेख है वे हैं – सवर्ण और वर्ण संकर। समान वर्ण के स्त्री— पुरुष से उत्पन्न संतान सवर्ण और विभिन्न वर्णों के मेल से उत्पन्न संतान वर्ण संकर कहलाती है। वर्तमान में सवर्ण का अर्थ दलित के विपरीत के रूप में किया जाने लगा है। मूल वैदिक ग्रंथों में ऐसी भावना नहीं थी। मूल वैदिक ग्रंथों से आशय है हिन्दू धर्म के तीन ग्रंथ– ब्रह्मसूत्र, उपनिषद् और गीता – जिन्हें प्रस्थानत्रयी कहते हैं। कोई सिद्धांत हिन्दू धर्म के अनुकूल है या नहीं इसकी कसौटी यही तीन ग्रंथ माने जाते हैं।
प्रभावशाली वर्ग ने भ्रष्ट की भारतीय व्यवस्था
वैदिक वर्ण व्यवस्था में कार्य और जिम्मेदारी के आधार पर वर्णों के बीच शक्ति संतुलन रखा गया था। ब्राह्मण के पास विद्या, विचार, चिंतन-मनन की योग्यता थी तो उसे धनोपार्जन से वंचित करके भिक्षावृत्ति करके जीवन— यापन का विधान किया गया। क्षत्रिय के पास भौतिक शक्ति थी, शासन करने, दंड देने की जिम्मेदारी थी परंतु उसे ज्ञानी और विचारवान के समक्ष झुकना था, योग्य लोगों की सलाह लेना आवश्यक था। वैश्य के पास धनशक्ति थी, उसे समाज की अर्थव्यवस्था बनाए रखना थी, परंतु वह शासन शक्ति से रहित था। इनके अलावा जो लोग केवल शारीरिक श्रम करने के योग्य थे, उन्हें समाज की अन्य जिम्मेदारियों से मुक्त रखा गया था। वैदिक काल में लोगों की जरूरतें कम थीं। लोग सहज-सरल थे, इसलिए कुछ समय तक यह व्यवस्था ठीक चलती रही। परंतु यह भी सच है कि इक्के-दुक्के उदाहरणों को छोड़ दें तो सैद्धांतिक रूप से योग्यता आधारित वर्ण परिवर्तन का विचार, समाज में कार्य रूप नहीं ले सका। इस व्यवस्था में बच्चों के वर्ण का निर्धारण करने की कोई निरपेक्ष व्यवस्था नहीं थी। इसीलिए प्रभावशाली वर्ग, जन्म के आधार पर अपने बच्चों का वर्ण निर्धारण करने लगा। अन्य वर्णों में जन्मे बच्चे भी अपने पिता के वर्ण से बंध गए। धर्म के व्याख्याकारों ने निजी स्वार्थों के लिए धर्मग्रंथों अर्थात् स्मृतियों में वर्ण आधारित भेदभाव का प्रावधान कर इस विकृति को सामाजिक और धार्मिक मान्यता दिला दी। इस प्रकार योग्यता आधाारित वैदिक वर्ण व्यवस्था की भ्रूण हत्या हो गई।
जाति से बाहर निकलने का कोई मार्ग नहीं
एक आदर्श व्यवस्था के पतन की बची-खुची कसर वर्णों के अंदर जन्म आधारित जाति व्यवस्था ने पूरी कर दी। जन्म से निर्धारित जाति से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था। जाति से मुक्ति असम्भव हो गई और इसने भारतीय समाज में विनाश के बीज बो दिए। समाज का बड़ा वर्ग शिक्षा, संसाधन, सम्मान और विकास से वंचित हो गया। इस भेदभाव का सबसे बड़ा विरोध भगवान् बुद्ध ने किया। उन्होंने मानव- मानव की समानता को माना और किसी ग्रंथ या किसी ऋषि की कही गई बात को सत्य स्वीकार करने की अपेक्षा विवेक से सोचने और तभी स्वीकार करने का उपदेश दिया। उन्हों ने वर्ण व्यवस्था के बारे में कहा – न जच्चा बसलो होति, न जच्चा होति बम्मनी, कम्पना होति बम्मनी (जन्म से कोई शूद्र नहीं होता, जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता, कर्म से ही ब्राह्मण होता है)। गीता में कृष्ण भी तो बिलकुल यही बात कहते हैं।
फूंक— फूंककर कदम उठाने का वक्त, ताकि न्याय हो सके
वर्तमान में हम प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से अभ्यर्थी की योग्यता का निर्धारण करते हैं और उसी के अनुरूप अलग- अलग कार्यों के लिए चयन करते हैं। यदि सेना या पुलिस के लिए चयन करना है तो निश्चित शारीरिक क्षमता अनिवार्य शर्त होती है, परंतु अखिल भारतीय सेवाओं के लिए बौद्धिक क्षमता, विचार आदि ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। यदि विभिन्न कार्य विभाजनों को वर्ण की संज्ञा दे दें तो प्रतियोगी माध्यम से हम योग्यता के आधार पर वर्णों में प्रवेश ही तो दे रहे हैं! यह अवश्य है कि योग्यता केवल जन्म से ही नहीं होती, उसके विकास के लिए बच्चे के परिवेश का भी महत्व है। इसलिए समाज में भेदभाव के शिकार, साधन विहीन वर्गों को विशेष सुविधाएं जैसे आरक्षण आदि देकर प्रतियोगी परीक्षाओं में मदद की जाती है। इन वर्गों की पहचान का मुख्य आधार जन्म से निर्धारित जाति ही है। दूसरा आधार सामाजिक आर्थिक पिछड़ापन है। इन वर्गों के बच्चों को विशेष सुविधाएं देकर, उनकी योग्यता के आधार पर कार्य करने के अवसर दिए जा रहे हैं। इसके अच्छे परिणाम भी देखने में आ रहे हैं। इन परिवारों के बच्चे शासन, प्रशासन, व्यापार-वाणिज्य में आगे बढ़ रहे हैं। वे सिद्ध कर रहे हैं कि योग्यता किसी की बपौती नहीं है। ईश्वज ने सबको एक-सा बनाया है। अवसर मिलने पर किसी के भीतर भी जीवन अपने सारे आयामों और सौन्दर्य के साथ खिल सकता है। अंतर्जातीय विवाहों को समाज में मान्यता मिल रही है। परंतु इसका स्याय पक्ष यह भी है कि समाज में जातिगत संगठन दृढ होते जा रहे हैं। ‘’हमारी जाति का है तो उसके सौ खून माफ हैं’’– यह भावना घर करती जा रही है। कुल मिलाकर परिदृश्य यह है कि जन्म आधारित जाति व्यवस्था से उत्पान्न भेदभाव को दूर करने तथा योग्य्ता के अनुसार काम करने का अवसर देने के लिए जन्म आधारित जाति को कानूनी मान्यता दी गई है। यह कांटे से कांटा निकालने का प्रयास है। यह समाज को जन्म आधारित जातिव्यवस्था से निकालकर योग्यता आधारित वर्ण व्यवस्था में ले जाने का प्रयास है। हमें सतर्कता यह रखनी है कि कांटा निकल जाए। कहीं ऐसा न हो कि दूसरा कांटा घाव को और गहरा कर दे। यदि ऐसा हुआ तो भविष्य का इतिहास वर्तमान पीढ़ी को कभी माफ नहीं करेगा। (लेखक आईएएस अधिकारी तथा धर्म, दर्शन और साहित्य के अध्येता हैं)