अफगानिस्तान में पलायन: काबुल को अलविदा कहती भीगी आंखों से पूछिए लोकतंत्र की खुशबू

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अफगानिस्तान में पलायन: काबुल को अलविदा कहती भीगी आंखों से पूछिए लोकतंत्र की खुशबू

अनिल कर्मा। ‘मैं अब कभी अपना गांव छोड़कर नहीं जाऊंगा, चाहे यहां भूखों मरना पड़े...’ एक नहीं अनेक मजदूरों ने कहा था, जब कोविड के कहर में शहर और सरकारों के बेगानेपन को ढोते हुए वे किसी तरह अपने किवाड़ तक पहुंचे थे। सेैकड़ों-हजारों किलोमीटर पैदल चलकर वे भूखे-प्यासे उस हवा में लौटे थे, जहां उनके अपने थे। सपने थे। बचपन की यादें थीं। जवानी के किस्से थे। अपनी रोटी थी, आधी सही। अपनी माटी थी, कैसी भी सही। गम भी थे तो अपने थे। और अगर दुश्मन भी थे तो अपने थे। संकटकाल में और कहां जाए इनसान! भय से भूख भली। दुत्कार से दुख भले। बेगानेपन से बेचारगी भली। अपनों का सुख और घर का सुकून सारी कमियों को काफूर कर देता है।

वो पलायन फिर भी अपना था, मगर ये तो...

दृश्य फिर वैसे ही हैं। और भी दारुण। कष्ट वैसे ही हैं। और भी कसैले। मगर देश बदल गया है। दिशा बदल गई है। प्रचंडता कई गुना बढ़ गई है। अफगानिस्तान में तालिबान के आने से जिस तरह का पलायन हो रहा है, उसकी सिहरन को कदाचित वे मजदूर भी ठीक-ठीक महसूस न कर पाएं, जिनके पैरों में छाले पड़ गए थे। क्योंकि उनकी उस महा-मुश्किल राह में भी ‘तंत्र’ उनके साथ था। देश उनके साथ था। सरकारें चूकीं तो विपक्ष दहाड़ा। पुलिस ने डंडे चलाए तो मीडिया ने आवाज उठाई। छालों पर मलहम लगाने कई ‘सोनू सूद’ खड़े हो गए। लेकिन यहां मसला जुदा है। दिल में पड़े छालों की क्या दवा? देश ही छूट जाए तो किसकी दिलासा? सरकार ही भाग खड़ी हो तो किसका सहारा? तंत्र ही टूट जाए तो कौन तारे? घर ही बिछड़ जाए तो क्या बचा? क्योंकि यहां यात्रा घर की तरफ नहीं, घर से उस तरफ है, जहां सब अनिश्चित है। अनजाना है। जहां अकेलापन है। जहां अनाथ हो जाना है।...और यह सब अनंत है। कभी न खत्म होने वाला। किसको पता जिस दहलीज को सलाम कर आज विदा ले रहे हैं, फिर कभी वहां सजदा करने का मौका जिंदगी दे, न दे। बच्चों की किलकारियों से गूंजने वाला आंगन फिर कभी आबाद हो, न हो। हर खुशी-हर गम के गवाह रहे दर-ओ-दीवार का फिर कभी दीदार हो, न हो। मगर हाय मजबूरी। जिंदगी बचाने के लिए ‘जीवन’ की कुर्बानी। आंखों को बचाने की खातिर सपनों को नजर कर देना...। 

पलायन की पराकाष्ठा है अफगानिस्तान

भारत में या किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में रह रहे जिन लोगों को थोड़ी भी तकलीफ में यह व्यवस्था खामी-तंत्र लगने लगती है, उन्हें इसकी खुशबू उन भीगी आंखों से पूछना चाहिए जो अपने प्यारे काबुल को अलविदा कह रहीं हैं। खुली हवा में अपनी मर्जी की सांस लेने की अहमियत इस समय उनसे अच्छी तरह से शायद ही कोई बयां कर पाए। जिस तरह रौंगटे खड़े कर देने वाला अथाह दर्द इन आंखों में है, उसी तरह हैरत में डालने वाले भयावह आंकड़े सामने आ रहे हैं। पलायन की पराकाष्ठा। 

बड़ा सवाल: कौन देगा अफगानियों को शरण!

अमेरिका ने जो आंकड़ा दिया है, उसके मुताबिक उसने करीब 1.25 लाख अफगानियों को निकाला है। बाकी और देशों के रेस्क्यू ऑपरेशन को जोड़ लिया जाए तो 15 अगस्त से लेकर अब तक करीब 2 लाख अफगान शरणार्थियों को बाहर निकाला चुका है। इसके अलावा जो पैदल ही चल पड़े हैं भाग्य के सहारे, उनकी गिनती ही नहीं। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी ने अनुमान लगाया है कि अगले चार महीनों में करीब 5 लाख अफगानों के देश छोड़ने की आशंका है। यह संख्या बढ़ भी सकती है। जैसे 2015 में लोग आईएसआईएस से बचने के लिए सीरिया से भाग रहे थे, आगे उसी तरह का पलायन अफगानिस्तान से होता दिख सकता है। ऐसे में जो शरणार्थी-संकट आने वाले समय में आता दिख रहा है, उसके मद्देनजर सबसे बड़ा सवाल यही है कि अफगानियों को कौन शरण देगा? सवाल इसलिए बड़ा है क्योंकि अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों की हालत आर्थिक तौर पर ऐसी भी नहीं है कि वो हजारों-लाखों की तादाद में शरणार्थियों का बोझ उठा सकें। फिर कहां जाएंगे ये लोग? घर तो छूटा, उम्मीद भी छूटी तो क्या होगा?

सरकार कोई हो, व्यवस्था लोकतांत्रिक होना जरूरी

देखिए, लोकतंत्र का साया उठते ही कितना बड़ा संकट खड़ा हो गया है। यह बताता है कि आतताई या निरंकुश या तानाशाही शासन व्यवस्था कोई विकल्प नहीं है। इन तमाम व्यवस्थाओं में मानवता का किस तरह मर्दन होता है, अफगानिस्तान इसका सबसे दर्दनाक उदाहरण बनकर उभर रहा है। विश्व बिरादरी को इस समय ‘मौन’ को तोड़कर एक स्वर में यह आवाज उठाना चाहिए और कोशिश करना चाहिए कि इस देश पर शासन चाहे किसी का भी हो, लेकिन हालात स्थिर और व्यवस्था लोकतांत्रिक बनें। मनुष्य को मनुष्य समझा जाए। मानव अधिकार बहाल हों। ताकि आज हो रहा दुखद पलायन कल ‘आ अब लौट चलें’ के तार्किक सुखांत को पा सके। आप क्या सोचते हैं?
— लेखक प्रजातंत्र अखबार के संपादक हैं।

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