अजय बोकिल। मोदी सरकार ने वादे के मुताबिक विवादित तीन कृषि कानूनों को विविधवत वापस ले लिया है, वापसी का बिल लोकसभा व राज्यसभा में बिना चर्चा के विपक्ष के हंगामे के बीच पारित हो गया। इससे देश की राजधानी की सरहदों पर सालभर से बैठे आंदोलनकारी किसानों की एक महत्वपूर्ण मांग भले पूरी हो गई हो, लेकिन यह आशंका भी बढ़ गई है कि पहले धड़ल्ले से कानून बनाने वाली मोदी सरकार अब कहीं ‘रोलबैक सरकार’ में तब्दील न हो जाए, क्योंकि इन कानूनों की वापसी के बाद जिस तरह उसे किसान आंदोलन की हवा निकलने की उम्मीद थी, वह धुंधलाती जा रही है, क्योंकि आंदोलनकारियों ने अब सरकार पर एमएसपी गारंटी कानून बनाने और विवादित श्रम कानूनों की वापसी के लिए न सिर्फ दबाव बढ़ा दिया है, बल्कि अपना दीर्घकालिक एजेंडा भी साफ कर दिया है। किसानों ने सरकार को अपनी जो छह सूत्रीय मांगों की सूची सौंपी है, उसमें बिजली संशोधन विधेयक की वापसी, पराली जलाने पर किसानों पर दर्ज मामलों की समाप्ति, विभिन्न राज्यों में प्रदर्शन के दौरान किसानों पर दर्ज मामलों की वापसी, गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा की गिरफ्तारी एवं मंत्रिमंडल से निकालने और आंदोलन के दौरान जान गंवाने वाले करीब 700 किसानों के परिजनों को मुआवजा देने की मांग भी शामिल है। इससे लगता है यह पूरा आंदोलन अपनी मांगें मनवाने के साथ साथ मोदी सरकार को झुकाने के लिए है और ऐसी स्थिति मोदी तो क्या किसी भी सरकार के लिए ठीक नहीं है। केन्द्र सरकार अन्य मांगों को मानेगी या नहीं, यह कहना अभी मुश्किल है, लेकिन अगर इन मुद्दों पर टकराव बढ़ता गया तो देश की राजनीति भी नई करवट लेगी, यह तय है। उसके नतीजे क्या होंगे, इस बारे में केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है।
बिल वापसी क्या चुनाव में जीत की ग्यारंटी है
त्रिपुरा में हाल में सम्पन्न नगरीय निकाय चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा की बंपर जीत को कृषि कानूनी वापसी के मुद्दे पर मोदी सरकार द्वारा अपने कदम पीछे खींचने की विवशता पर ‘मरहम’ के रूप में देखा जा रहा था। साथ ही अति उत्साही इसे उत्तरप्रदेश के आगामी चुनावों में भाजपा की संभावित जीत से जोड़कर देखने लगे हैं, लेकिन इसी बीच किसानों की नई मांगों और श्रम कानून वापसी को भी आंदोलन के अगले चरण के रूप में जोड़े जाने से सरकारी और भाजपाई खेमों में चिंता बढ़ गई है। क्योंकि कृषि कानूनों की वापसी से जहां सरकार की विवशताजन्य ‘संवेदनशीलता’ उजागर हुई, वहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकार की दृढ़संकल्पता पर सवालिया निशान भी लगा है। सवाल यह भी उठ रहा है कि अगर किसान इतने ही इन कानूनों के खिलाफ थे, तो ये पारित ही क्यों किए गए और अगर पारित हो गए तो इन्हें वापस लेकर अपनी नाकामी स्वीकार कर सरकार क्या संदेश दे रही है? अगर इस कदम से यूपी सहित पांच राज्यों में भाजपा के अनुकूल नतीजे नहीं आए तो आगे क्या होगा? वैसे भी अपने फैसलों से पलटना किसी भी सरकार का इकबाल कम करता है। इसी के साथ सवाल यह भी है कि क्या मोदी सरकार कृषि उत्पादों के लिए एमएसपी ( न्यूनतम समर्थन मूल्य) गारंटी कानून लाएगी और लाएगी तो उसके क्या परिणाम होंगे?
मुश्किल गणित है एमएसपी का
एमएसपी केन्द्र सरकार हर साल घोषित करती है और समय— समय पर इसमें वृद्धि भी करती है। एमएसपी कृषि उत्पादों का अनिवार्य मूल्य न होकर एक अपेक्षित मूल्य है। सरकार यह 23 फसलों के लिए अधिसूचित करती है। जाने माने पत्रकार हरीश दामोदरन ने अपने एक लेख में बताया कि वर्ष 2020-21 में इन फसलों का कुल एमएसपी मूल्य 11.9 लाख करोड़ रुपए था। जिन फसलों के लिए सरकार एमएसपी घोषित करती है उनमे, 7 अनाज यानी धान, गेहूं, मक्का, बाजरा, ज्वार, रागी और जौ, 5 दलहन यानी चना, तुअर, मूंग, उड़द और मसूर, 7 तिलहन यानी कि रेपसीड सरसों, मूंगफली, सोयाबीन, तिल्ली, सनफ्लाॅवर तथा नाइजरसीड तथा 4 व्यापारिक फसलें यानी गन्ना, कपास, खोपरा और जूट शामिल हैं। तकनीकी तौर पर एमएसपी उक्त फसलों की कृषि लागत का 50 प्रतिशत रिटर्न मानी जाती है। हालांकि यह मूल्य कागज पर ज्यादा होता है। हकीकत में किसान को ज्यादातर एमएसपी से कम भाव ही मिलता है। एमएसपी पर फसल बेचने की कानूनी बाध्यता न होने से किसान इसे अपना अधिकार नहीं जता सकते। एमएसपी कानून बनने से किसानों से सरकारी एजेंसियों के साथ निजी व्यापारियों को भी एमएसपी पर ही कृषि उत्पाद खरीदने पड़ेंगे। अभी केवल सरकारी एजेंसियां ही एमएसपी पर फसलें खरीदती हैं। जिससे किसानों को फायदा होता है। लेकिन कानून बनने से यह नुकसान भी हो सकता है कि व्यापारी एमएसपी पर फसल खरीदकर घाटा उठाने के बजाए खरीदी से ही हाथ खींच सकते हैं। क्योंकि एमएसपी पर खरीदी गई फसल और भी ऊंचे दामों में बेचनी होगी, जिसका सीधा असर उपभोक्ताओं और परोक्ष रूप से खुद किसान पर भी पड़ेगा। क्योंकि दूसरे प्रसंस्कृत उत्पादों के दाम बढ़ेंगे और एमएसपी पर सरकारी एजेंसियां भी आखिर कितना माल खरीदेंगी, खरीद भी लिया तो उसका भंडारण कैसे होगा, इन सब के लिए भी भारी मात्रा में पैसा चाहिए। यह पैसा भी सरकार अतंत: टैक्स के रूप में हमारी जेब से ही सरकार निकालेगी। दूसरे, सरकारी एजेंसियों के पास भी पैसा तभी आएगा, जब वो एमएसपी पर खरीदे गए माल को समय रहते बेच सकें या निर्यात कर सकें। अंतरराष्ट्रीय बाजार में आप कृषि माल तभी बेच सकते हैं, जब आपके भाव प्रतिस्पर्द्धी हों। महंगा माल कोई क्यों खरीदेगा? नहीं बिकेगा या कम बिकेगा तो भी घाटा होना ही है, जिसकी भरपाई सरकार परोक्ष रूप से हमसे और किसानों से ही करेगी। हालांकि कृषि निर्यात हमारे कुल निर्यात का महज 7 फीसदी ही है, लेकिन यह बढ़ रहा है। एमएसपी गारंटी कानून किसानों के लिए लाभदायक है या नहीं, इस बारे में कृषि अर्थशास्त्रियों की अलग-अलग राय है।
छोटे किसानों की व्यवहारिक दिक्कतें
कुछ का मानना है कि यह फायदेमंद है तो कुछ की राय में इससे कोई खास फायदा नहीं होने वाला, क्योंकि देश में 86 फीसदी छोटे किसान हैं, जो जल्द से जल्द अपनी फसल बेचने पर मजबूर रहते हैं, क्योंकि उन्हें अगली फसल के पैसा चाहिए होता है। लेकिन कुछ फसलों के लिए यह फायदेमंद हो सकता है। लेकिन वहां भी पेंच है कि गन्ना जैसी फसलें एमएसपी पर खरीदी तो जाती हैं, लेकिन उसका भुगतान महीनो नहीं होता। ऐसे में छोटा किसान क्या करेगा? एक सुझाव यह भी है कि सरकार एमएसपी गारंटी कानून की जगह भावांतर जैसी कोई व्यवस्था लागू करे, जैसे कि मध्यप्रदेश में लागू है। लेकिन इसमें भी कई खामियां हैं। दूसरी बात अभी किसान को उसकी फसल की गुणवत्ता के हिसाब से भी कम या ज्यादा भाव मिलता है। एमएसपी में ऐसा नहीं होता। वह औसत क्वालिटी के हिसाब से तय होती है। अभी एमएसपी कुछ ही फसलों के लिए है, कल को सभी फसलों के लिए इसे लागू करने की मांग उठी तो सरकार क्या करेगी? फिलहाल सरकार यही चाहती है कि बाजार में दोनो व्यवस्थाएं चलती रहें, एमएसपी भी और बाजार मूल्य भी।
बढ़ी चिंता रोल बैक सरकार का ठप्पा न लग जाए कहीं
अगर एमएसपी पर कोई हल निकला भी तो विवादित श्रम कानूनों पर बड़ा श्रमिक आंदोलन खड़ा करने की तैयारी है। हालांकि सार्वजनिक क्षेत्र कमजोर होने से देश में अब पहले की तरह श्रमिकों का बड़ा और दीर्घकालिक आंदोलन खड़ा करना आसान नहीं है, लेकिन उससे राजनीतिक घाव तो किए ही जा सकते हैं। सचाई यह भी है कि सरकार श्रम सुधारों को लागू करने की बात भले करे, लेकिन आईटी जैसे कई नए सेक्टरों में श्रमिकों का शोषण बहुत बढ़ा है और उसके खिलाफ कोई दमदार आवाज नहीं उठ पा रही है। कोरोना काल में ‘वर्क फ्राॅम होम’ के नाम पर कंपनियों द्वारा कर्मचारियों का मनमाना शोषण हम देख और भुगत ही रहे हैं। वहां न तो काम के घंटे तय हैं और न ही छुट्टी के नियम हैं। ऐसे में श्रमिकों में नए मानसिक विकार पैदा हो रहे हैं। जाहिर है कि आने वाले वक्त में मोदी सरकार के सामने कई गंभीर चुनौतियां पेश आने वाली हैं, जिन्हें केवल ‘हिंदू-मुसलमान’ या पाक-चीन को गरियाकर हाशिए पर नहीं डाला जा सकता। किसान आंदोलन का सबसे बड़ा सबक यही है कि व्यापक हितों से जुड़े कानून बनाते वक्त सरकार को सभी पक्षों से बात करनी चाहिए और उनके परिणामों का समग्रता से पूर्वाकलन करना चाहिए। कृषि कानूनों की वापसी तो एक शुरुआत है, आश्चर्य नहीं कि आगे वो एक ‘रोलबैक सरकार’ के रूप में सामने आए, क्योंकि चुनावी खतरे की घंटी तो हर वक्त बजती ही रहेगी और यदि ऐसा हुआ तो यह न तो सरकार के लिए और न ही देश के लिए अच्छा होगा। (लेखक ‘राइट क्लिक’ के वरिष्ठ संपादक हैं)