अस्पताल में इलाज के दौरान ही ट्रांसफर के साथ कार्यमुक्ति

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S R Rawat
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अस्पताल में इलाज के दौरान ही ट्रांसफर के साथ कार्यमुक्ति

छिंदवाड़ा में डीएफओ के पद पर, कार्य करते हुए लगभग 3 वर्ष हो चुके थे। इस दौरान पिछले 2-3 वर्षों से निरंतर पेट में दर्द बना रहता था। कई डॉक्टरों की सलाह लेने के बाद भी मर्ज की सही जानकारी नहीं मिल पा रही थी। पेट में दर्द रहने के कारण ऑफ‍िस में बैठ कर काम करने में कठिनाई महसूस होती थी, इसलिए कई बार तो लेट कर काम करता था। घर में भी लेटे हुए ऑफ‍िस का काम करता था। वाउचर केंसिलेशन में बहुत सारे हस्ताक्षर करने होते थे जिन्हें बिस्तर में लेटे-लेटे ही करना पड़ता था। 5 जून 1968 को बेटी का दसवां जन्मदिन हम लोगों ने मनाया ही था कि उसी रात पेट में जोर का दर्द उठा और मुझे छिंदवाड़ा के शासकीय अस्पताल में भर्ती कराया गया। डाक्टरों ने पूरे प्रयास किए, लेकिन दर्द से छुटकारा नहीं मिल पाया। जब मुझे अस्पताल में भर्ती कराया गया उस समय पत्नी के पास मुश्क‍िल से पचास रूपए ही उपलब्ध थे और बैंक में भी नाम मात्र की राशि‍ ही थी। ऐसे समय हम लोगों को बिना किसी मांग के अचानक ही पिताजी द्वारा भेजा गया 600 रुपए का मनी ऑर्डर मिला। ये राश‍ि उस समय हम लोगों के लिए संजीवनी बूटी साबित हुई। उस समय हम लोगों को पैसे की सख्त जरूरत थी। गौरतलब है कि पिताजी ने इससे पूर्व और न ही इसके बाद हम लोगों को कभी कोई राश‍ि भेजी।



पत्र से सूचना मिली कि कार्यमुक्त हो गया



अस्पताल में इलाजरत रहने के दौरान मुझे शासन से ट्रांसफर ऑर्डर मिला। मेरा ट्रांसफर डीएफओ वेस्ट छिंदवाड़ा फॉरेस्ट ड‍िवीजन से डीएफओ नॉर्थ बैतूल फॉरेस्ट ड‍िवीजन किया गया था। बीमारी के कारण घर और ऑफ‍िस सबकुछ अस्त-व्यस्त था। जो अधि‍कारी मेरा चार्ज छ‍िंदवाड़ा में लेने आए थे, वे सागर विश्वविद्यालय में मुझसे 2 वर्ष सीनियर रहे थे। उन अधि‍कारी महोदय ने अस्पताल में आ कर मेरे हालचाल पूछने की जहमत नहीं उठाई। उन्होंने यह भी उपयुक्त नहीं समझा कि वे मेरी बीमारी को ध्यान में रखकर स्वयं अस्पताल आकर मेरी तबीयत के बारे में पूछते और चार्ज लेने के संबंध में चर्चा करते। इसके उलट अध‍िकारी महोदय ने मेरे ही स्टेनो के द्वारा अस्पताल में मुझे एक पत्र भेजा जिसे देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। पत्र में उल्लेख‍ित था कि चूंकि आप अस्पताल में भर्ती हैं और चार्ज देने की स्थि‍ति में नहीं हैं इसलिए मैंने डीएफओ वेस्ट छ‍िदवाड़ा ड‍िवीजन का चार्ज स्वयं ग्रहण कर लिया है। इस पत्र के द्वारा मुझे सूचित किया गया कि अब आप इस पद से भारमुक्त कर दिए गए हैं। बीमारी की इस हालत में मेरी मानसिक स्थि‍ति पर यह घटनाक्रम एक गहरा आघात था, जिसे अत्यंत शारीरिक कष्ट सहते हुए भी सहन करना पड़ा। बाद में पत्नी की सोच, उदारता एवं आग्रह के कारण इन पुरानी कड़वी स्मृतियां को भुलाकर इन अध‍िकारी महोदय से रिटायरमेंट के बाद हमारे घनिष्ठ पारिवारिक संबंध बने और हम दोनों दोनों परिवारों के बीच प्रगाढ़ मित्रता स्थापित हुई। अब अध‍िकारी महोदय उनकी पत्नी और मेरी पत्नी सब दिवंगत हो चुके हैं और जीवित हैं तो बस खट्टी-मीठी स्मृतियां।



छ‍िंदवाड़ा के खूनी बंगला में भूतों का डेरा



जैसे ही मेरी बीमारी और अस्पताल में भर्ती होने की सूचना मेरे बड़े भाई को मिली उन्होंने भोपाल से आकर आनन-फानन में मुझे कार में लिटाकर वापस भोपाल भागे। भोपाल के हमीदिया अस्पताल में इलाज शुरू हुआ। कई टेस्ट के बाद जानकारी मिली कि पेट में डायाफ्रामेटिक एप्सिस होने के कारण मवाद भर चुका था। एक बड़ा ऑपरेशन किया गया और मेरे पेट से 2 पाउंड मवाद निकाली गई। ऑपरेशन के बाद सामान्य जिंदगी में लौट आया। इस दौरान हम लोगों के साथ एक ऐसी घटना घट‍ित हुई, जिससे पूरी छिंदवाड़ा पदस्थापना तनावग्रस्त ही रही। छ‍िंदवाड़ा में हम लोग हर्रई जागीरदार के बंगले में रहते थे। छ‍िंदवाड़ा पहुंचने के कुछ दिन बाद जानकारी मिली कि जिस बंगले में हम लोग रह रहे हैं उसे खूनी बंगला कहा जाता था। बताया जाता था कि बंगले के स्वामित्व वाले जागीरदार ने अपने ड्राइवर का खून इसी बंगले में किसी मसले को ले कर दिया था। तब से उस बंगले को खूनी बंगला कहा जाता था। बंगले में काम करने वाले सभी अर्दलियों को खूनी बंगला की कहानी पता थी। उनको अकेले में समझा दिया गया कि वे परिवार के किसी सदस्य से इस संबंध में कभी चर्चा ना करें और ना ही उन्हें खूनी बंगला होने के बारे में बताएं। छ‍िंदवाड़ा छोड़ते वक्त पत्नी को किसी परिचित ने बातचीत के दौरान जानकारी दे दी कि जिस बंगले में अभी तक आप रह रही थीं उसे खूनी बंगला कहते हैं और वहां भूतों का डेरा है। यह बात सुनकर पत्नी तनाव में आ गईं। जब पत्नी ने मुझसे इस संबंध में पूछा तो मैंने उनको आश्वस्त कर समझाया कि इस तरह की कोई बात नहीं है।



बैतूल में जब तेंदुए ने किया स्वागत



छ‍िंदवाड़ा वेस्ट फॉरेस्ट ड‍िवीजन में फरवरी 1965 से जून 1968 तक पदस्थ रहने के बाद डीएफओ नॉर्थ बैतूल के पद पर आमद दी। ऑपरेशन के बाद लंबी छुट्टी उपरांत बैतूल पहुंचा। नॉर्थ बैतूल ड‍िवीजन में पदभार ग्रहण करने के तुरंत बाद पहला दौरा बरेठा का हुआ। जीप से हम लोग जैसे ही बरेठा घाट के नीचे पहुंचे तो एक तेंदुआ दाईं ओर से प्रकट हुआ और जीप की रोशनी में कुछ देर रुकने और हम लोगों को दर्शन देने के बाद वह जंगल के भीतर ओझल हो गया। मुझे ऐसा आभास हुआ मानो वह मेरा इस फॉरेस्ट डिवीजन में स्वागत करने के लिए ही प्रकट हुआ था।



जंगल लगाव के कारण अंग्रेज फॉरेस्ट ऑफ‍िसर ने नहीं किया विवाह



बैतूल नॉर्थ फॉरेस्ट ड‍िवीजन में बहुमूल्य सागौन, सतकटा और बांस के घने जंगल, मिले-जुले रूप में विद्यमान थे। यहां कई मशहूर फॉरेस्ट ऑफ‍िसर पूर्व में पदस्थ रह चुके थे। सीई हैविटसन नाम के एक अंग्रेज फॉरेस्ट ऑफ‍िसर भी यहां पदस्थ रह चुके थे। उनके सीनियर ऑफ‍िसर हैविटसन को 'जंगली' नाम से पुकारते थे, क्योंकि वे कुंवारे अध‍िकारी थे और उनका अध‍िकांश समय जंगलों के भीतर ही गुजरता था। उन्होंने फॉरेस्ट संबंधी कई लेख लिखे थे। उन्होंने जंगल के प्रति समर्पण एवं लगाव के कारण नौकरी में रहते हुए विवाह नहीं किया। उन्होंने रिटायरमेंट के उपरांत ही विवाह किया। बैतूल में मेरे पदस्थ रहने के दौरान हैविटसन अपनी पत्नी के साथ इंग्लैंड से भारत आए और बैतूल के उन जंगलों के भ्रमण पर भी आए जहां शासकीय सेवाकाल में उन्होंने अपना काफी वक्त बिताया था। उनकी बैतूल यात्रा के दौरान हमने पाया कि उनको जंगल के भीतरी हिस्से में बसे हुए कई गांवों के नाम जैसे कांटावाड़ी, मेंढाखेड़ा, कांजीतलाव, सेल्दा इत्यादि अभी भी याद थे, जो हम लोगों के लिए आश्चर्य की बात थी। हैविटसन ने अपनी यात्रा के समय वनों के रखरखाव एवं वनों की वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखते हुए भारतीय फॉरेस्ट ऑफ‍िसरों द्वारा किए गए कार्यों की सराहना की।



बैतूल में बंद ड‍िस्टलरी में बना नीलामी के लिए ड‍िपो



नॉर्थ बैतूल फॉरेस्ट ड‍िवीजन में कटाई किए जाने के लिए मॉर्क किए गए खड़े पेड़ों के कूपों का नीलाम किया जाता था। मेरी बैतूल पदस्थिति के समय ही शासन द्वारा इमारती लकड़ी का राष्ट्रीयकरण किया गया। जंगलों के बाहर ड‍िपो स्थापित कर फॉरेस्ट महकमे द्वारा कूपों में इमारती पेड़ों की कटाई और लॉगिंग कर लट्ठों की ढुलाई डिपो में कर वहीं से इमारती लकड़ी की नीलामी शुरू की गई। बैतूल में पहला ड‍िपो रेलवे स्टेशन के पास बंद पड़ी ड‍िस्टलरी के प्रांगण में स्थापित कर नीलामी की प्रक्र‍िया शुरू की गई। बाद में यह ड‍िपो लट्ठों की मात्रा के लिए छोटा पड़ने लगा इसलिए कालापाठा से लगे हुए जंगल क्षेत्र में एक बड़ा हमलापुर ड‍िपो स्थापित किया गया।



अंग्रेजों ने आय की दृष्ट‍ि से करवाया सागौन का वृक्षारोपण



बैतूल कार्यकाल के दौरान पूरे प्रदेश के सभी वरिष्ठ फॉरेस्ट ऑफ‍िसरों की एक कॉन्फ्रेंस बैतूल में आयोजित की गई थी। इसकी व्यवस्था बैतूल में पदस्थ हम सभी डीएफओ ने की। कॉन्फ्रेंस के दौरान सीनियर फॉरेस्ट ऑफि‍सरों द्वारा प्रतिदिन जंगलों का निरीक्षण कर मैनेजमेंट और मेंटेनेंस को सुदृढ़ बनाए रखने के संबंध में विस्तृत चर्चा की जाती थी। यह काफ्रेंस फॉरेस्ट के कनिष्ठ अध‍िकारियों के लिए काफी लाभदायक सिद्ध हुई। नॉर्थ बैतूल फॉरेस्ट ड‍िवीजन में सागौन प्रजाति का वृक्षारोपण नियमित रूप से बड़े पैमाने पर किया जाता रहा है। सागौन की इमारती लकड़ी से बहुत अच्छी आय होती थी इसलिए अंग्रेजों के जमाने से ही, इस तरह के वृक्षारोपण बड़े पैमाने पर तैयार करने का चलन प्रारंभ किया गया। इसके लिए स्वाभाविक रूप से तैयार ह‍ुए सबसे उत्तम गुणवत्ता के मिसलेनियस जंगलों के सभी खड़े पेडों का सफाया कर उसी स्थान पर सागौन प्रजाति का वृक्षारोपण कर शुद्ध सागौन के जंगल तैयार कि‍ए जाते थे, लेकिन इनसे पेड़ों में होने वाली बीमारी और आग पूरे क्षेत्र में आसानी से फैलने की संभावना बनी रहती थी।



अल्ला मियां अपने गधों को हलवा ख‍िलाएं तो आप को क्या



फॉरेस्ट गार्ड ट्रेनिंग स्कूल बैतूल साउथ ड‍िवीजन के अधीन था। हर बैच का जब पॉसिंग आउट होता, तब इस सेरेमनी के लिए एक मुख्य अत‍िथ‍ि को आमंत्र‍ित करने की परम्परा थी, जो पुरस्कारों का वितरण कर प्रशिक्षणार्थियों को संबोधित करते थे। रिटायर्ड आईएएस अध‍िकारी मथुरा प्रसाद द्विवेदी कम‍िश्नर पद से रिटायर होने के बाद बैतूल में रहते थे। क्लब में उनके साथ प्रतिदिन ब्रिज खेला करता था। मैंने उनसे पूछा कि आप पॉसिंग आउट सेरेमनी में अक्सर मुख्य अति‍थ‍ि के रूप में दिखाई देते हैं, इसका क्या कारण है? द्वि‍वेदी साहब ने बताया कि डीएफओ साउथ बैतूल हर बार आकर उन्हें जानकारी देते कि कई जानी-मानी हस्त‍ियों से मुख्य अतिथ‍ि के रूप में आने के लिए निवेदन करने के बाद भी वे आने से मना कर देते हैं, इसलिए आपके पास इस आशा से आता हूं कि आप मुझे निराश नहीं करेंगे। रिटायर्ड द्व‍िवेदी साहब भी उन्हें कभी निराश नहीं करते और हर बार मुख्य अतिथि बनने के लिए सहर्ष अपनी सहमति दे देते। मथुरा प्रसाद द्विवेदी का सलाह के रूप में हमेशा कहना रहता था कि सरकारी नौकरी में एक बात अवश्य याद रखना 'अल्ला मियां अपने गधों को हलवा ख‍िलाएं तो आप को क्या।'



( लेखक मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक रहे हैं )


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