भाई मतिदास और सतिदास के बलिदान की अमर गाथा

असंख्य बलिदानियों में भाई मतिदास और सतिदास के नाम भी शामिल हैं। जिन पर इस्लाम ग्रहण करने का दबाव था। नहीं मानने पर पहले मतिदास को आरे से चीरा गया और अगले ही दिन 10 नवंबर को सतिदास रुई में बांधकर जलाए गए

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आज यदि संसार में सनातन संस्कृति पुनः पुष्पित और पल्लवित हो रही है तो इसकी रक्षा के लिए वे असंख्य हुतात्माओं के बलिदान हैं। हम जिनके नाम तक नहीं जानते। इन्हीं में असंख्य बलिदानियों में हैं। भाई मतिदास और सतिदास। जिन पर इस्लाम ग्रहण करने का दबाव था। नहीं मानने पर पहले मतिदास को आरे से चीरा गया था। अगले ही दिन 10 नवंबर को सतिदास जी रुई में बांधकर जलाये गए। राष्ट्र, संस्कृति और धर्म रक्षा के लिए इस वंश के यह बलिदान पहले नहीं थे और न अंतिम । इस कुल की पीढ़ियों ने बलिदान देने का मानों कीर्तिमान बनाया है...

मतिदास और सतिदास सगे भाई थे

मतिदास और भाई सतिदास सगे भाई थे । मतिदास जी बड़े और उनसे लगभग डेढ़ वर्ष छोटे सतिदास जी थे । इस परिवार की पीढ़ियों का इतिहास राष्ट्र संस्कृति और धर्म रक्षा के लिए बलिदानों से भरा है । भाई मतिदास और सतिदास के पिता भाई हीरानंद जी पितामह भाई लख्खीदास जी और प्रपितामह भाई प्रयागा जी भी सिक्ख परंपरा से जुड़ गए थे। राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए अपना जीवन अर्पित किया बलिदान हुए । बाद की पीढ़ी में भाई बालमुकुन्द को अंग्रेजी काल में फांसी हुई और भाई परमानन्द को कालापानी जेल भेजा गया। इन्हीं के वंशज थे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डाक्टर भाई महावीर जो मध्यप्रदेश के राज्यपाल रहे।

कश्मीरी पंडित कुल से था परिवार

यह परिवार मूलतः यह कश्मीरी पंडित कुल है । जो  महर्षि भृगुकुल से संबंधित था । महर्षि भृगु के कुल में ही उत्पन्न हुये थे महर्षि दधीचि, शुक्राचार्य और भगवान परशुराम जी जैसी विभूतियां जिनके आख्यानों से पुराण भरे हैं । भाई मतिदास और इनके सभी वंशज भगवान परशुराम जी को अपना आदर्श मानते थे। इसलिए शस्त्र और शास्त्र दोनों का अनुपालन इस कुल की स्थाई परंपरा रही है। समाज को शास्त्रीय रहस्य का ज्ञान देना, सामाजिक जागरण के लिए सतत देशाटन करना और आवश्यकता पड़ने पर शस्त्र लेकर प्रत्यक्ष युद्ध करना इनकी जीवन शैली थी। काबुल से लेकर दिल्ली तक इस परिवार द्वारा स्थापित किए ज्ञान केन्द्रों के चिन्ह और युद्ध के विवरण इतिहास की पुस्तकों में मिल जाते हैं। राष्ट्र रक्षा के लिए जब सिक्ख पंथ की नीव पड़ी तो धर्म रक्षा के लिए अपने पूर्वजों की परंपरा के अनुरूप यह परिवार सिक्ख पंथ से जुड़ गया। इस वंश के लगभग सभी सदस्य सिक्ख गुरुओं की निजी टोली में रहे । कभी जत्थेदार तो कभी मंत्री या कभी निजी सेवक। भाई मतिदास और भाई सतिदास गुरू तेग बहादुर के शिष्य बने थे । 

पंजाब के झेलम में हुआ था जन्म

भाई मतिदास का जन्म 13 जनवरी 1641 को पंजाब के झेलम जिले के अंतर्गत ग्राम करियाला में हुआ था। यह क्षेत्र अब पाकिस्तान में है । दोनों भाइयों ने शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा अपने घर में ली । उनके पिता भाई हीरानंदजी को भी शस्त्र संचालन की महारथ हासिल थी। वे गुरु हरराय के सहायक रहे। भाई मतिदास और भाई सतिदास बालवय से ही गुरु परंपरा से जुड़ गये थे। समय के साथ औरंगजेब का शासन आया। सत्ता हथियाने की आंतरिक कलह पर नियंत्रण करके औरंगजेब ने छल बल और लालच से भारत के मतान्तरण का अभियान चलाया ।

गुरु सेवा में आए दोनों भाई

समय के साथ 1665 में गुरु तेग बहादुर जी ने गुरु गद्दी संभाली । दोनों भाई गुरु सेवा में आये । भाई मतिदास के पास समूचा सुरक्षा और धन प्रबंध था तो भाई सतिदास के साथ गुरुगाधि की भोजन व्यवस्था । औरंगजेब का दमन चक्र कश्मीर और पंजाब से आरंभ हुआ । कश्मीरी पंडितों और अन्य समाज जनों का एक दल भाई मतिदास के पास आया और उनके माध्यम से गुरु तेग बहादुर जी से मिला । गुरु तेग बहादुर जी ने रक्षा का वचन दिया और सिक्खों का सैन्य दल बनाकर रक्षा के लिये भेजा। सिक्ख रक्षकों ने पंजाब और कश्मीर ही नहीं अन्य स्थानों पर भी सनातन समाज और सनातन धर्म स्थलों की रक्षा का दायित्व संभाला। अनेक स्थानों पर टकराहट हुई । इसी अभियान के अंतर्गत गुरु तेग बहादुर जी ने कीरतपुर से पांच मील उत्तर में माखोवाल गांव के पास "चक नानकी" की स्थापना की जो अब गुरुद्वारा आनंदपुर साहिब नाम से  जाना जाता है । यह सतलज नदी के किनारे शिवालिक पर्वत माला की तलहटी में पंजाब और हिमाचल प्रदेश की सीमा पर स्थित है । इसके निर्माण में भाई मतिदास और भाई सतिदास की भूमिका महत्वपूर्ण थी

मतिदास और सतिदास अपने गुरु के साथ रहे

औरंगजेब ने 1669 में दो आदेश निकाले । एक उसके राज्य की सीमा में बने सभी हिंदू मंदिरों को गिराने का और दूसरा सिक्ख गुरु तेगबहादुर को उनके सभी सहयोगियों को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने का । औरंगजेब ने अपने राज्य की सीमा में हिंदुओं की धार्मिक प्रथाओं के सार्वजनिक पालन तथा सार्वजनिक रूप से त्योहार मनाने पर भी रोक लगा दी थी। औरंगजेब के इस आदेश का पालन करने के लिए मुगल सेना की टुकड़ियां निकल पड़ी। गुरु तेग बहादुर को पकड़ने के लिए भी घेराबंदी शुरु हुई। इसकी बिना परवाह किए गुरु तेग बहादुर अपने अभियान में लगे रहे उनके साथ भाई मतिदास, भाई सतिदास, भाई दयाला और अन्य सेवादार साये की भांति अपने गुरु के साथ रहे और पूरे भारत के धर्म स्थलों की सुरक्षा के लिए जन जागरण अभियान चलाते रहे। अपने इस अभियान के अंतर्गत उनकी यात्रा केवल कश्मीर या पंजाब ही नहीं अयोध्या, काशी, मथुरा उज्जैन आदि स्थानों पर भी गये ।

मुगल ने गुरु तेग बहादुर को किया था गिरफ्तार

सनातन धर्म रक्षा अभियान के अंतर्गत जब गुरु तेग बहादुर रोपड़ के पास मलिकपुर रंगहारन में थे तब मुगल सैन्य टुकड़ी ने अचानक धावा बोलकर गिरफ्तार कर लिया गया । यह गिरफ्तारी धोखे से की गई थी । वस्तुत इन्हे बातचीत के लिए आदर सहित दिल्ली आने का निमंत्रण दिया गया। गुरु तेगबहादुर ने आमंत्रण पर भरोसा कर सहमति दे दी और दिल्ली की ओर चल दिए उनकी सेवा सुरक्षा के बहाने मुगल टुकड़ी साथ चल रही थी । अवसर देखकर बंदी बना लिए गए । यह औरंगजेब की रणनीति थी। वह गुरु तेगबहादुर और उनकी निजी टोली को जीवित पकड़ना चाहता था ताकि भय लालच अथवा यातनाओं से उनका धर्मान्तरण कराकर पूरे सनातन समाज का मनोबल तोड़ सके । गुरु तेग बहादुर के साथ भाई मतिदास, भाई सतिदास, भाई दयाला, भाई उदय, और भाई जैता सहित अन्य सिक्ख सेवादार भी थे । सभी को बंदी बनाकर पहले सरहिन्द लाया गया । सरहिन्द में धर्मान्तरण के लिए दबाव डाला गया । लालच दिया, भय दिखाया पर बात न बनीं तब सबकों लोहे के पिंजरों में कैद करके दिल्ली भेजा गया। 

मौत कबूल थी धर्मान्तरण नहीं 

दिल्ली में यातनाएं देने का क्रम चला। कठोरतम यातनाओं के बाद भी कोई न झुका और किसी ने भी मतान्तरण करना स्वीकार न किया । तब 9 नवम्बर 1675 को सबसे पहले भाई मतीदास को लकड़ी के पटियों में बांधा गया । फिर जल्लादों ने सिर पर आरा रखा और धीरे धीरे चीरना आरंभ किया । उनके शरीर को कमर तक चीरकर दो भागों में बांट दिया गया । भयभीत करने के लिये यह दृश्य सभी बंदियों को दिखाया गया । फिर भी कोई न डिगा । अगले दिन 10 नवम्बर 1675 को भाई सतीदास को पहले रुई में लपेटकर गट्ठर नुमा बनाया गया और आग लगाई गई। यह दृश्य भी सबको दिखाया गया ताकि अन्य को भयभीत किया जा सके । तीसरे दिन भाई दयाला को कढ़ाई में डालकर धीमी आंच से गरम करके क्रूरतम मौत दी गई। इन क्रूरतम प्रताड़ना के दर्द की कल्पना भी नहीं की जा सकती जो इन हुतात्माओं ने राष्ट्र, संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिये । सभी बलिदान हुये किसी ने अपना धर्म न त्यागा। अंत में 24 नवम्बर को गुरु तेग बहादुर का बलिदान हुआ। जहां इन हुतात्माओं का बलिदान हुआ वह दिल्ली का चांदनी चौक क्षेत्र है । वहां गुरुद्वारा शीशगंज का निर्माण हुआ। भाई मतिदास और भाई सतिदास के बलिदान का उल्लेख अमृतसर स्वर्ण मंदिर सहित भारत के विभिन्न गुरुद्वारों में है। और चांदनी चौक दिल्ली  में स्थिति गुरुद्वारा सीसगंज साहिब के सामने भाई मतिदास, भाई सतिदास स्मृति संग्रहालय का निर्माण भी गया है।

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