सल्तनत और अंग्रेजीकाल के घोर अंधकार के बीच भी यदि भारतीय संस्कृति और परंपराएँ आज पुनर्प्रतिठित हो रहीं हैं तो इसके पीछे कुछ ऐसी विभूतियाँ के जीवन का समर्पण हैं, जो अपने लिये नहीं अपितु संपूर्ण समाज के लिए जिये, उनके जीवन का प्रत्येक पल राष्ट्र, संस्कृति और परंपराओं की पुनर्स्थापना के समर्पण में रहा। ऐसे ही जीवनदानी थे ठाकुर लालसिंह। स्वतंत्रता से पहले भोपाल रियासत काल में वे नागरिक अधिकार एवं समानता के संघर्ष में जेल गए और स्वतंत्रता के बाद भोपाल रियासत के भारतीय गणतंत्र व्यवस्था के अंतर्गत मध्यभारत में विलीनीकरण के लिए भी जेल यात्रा की। 4 दिसंबर 1951 को चुनाव के लिये जीप से अपना नामांकन भरने सीहोर के लिये रवाना हुए। वे जैसे ही रायल मार्केट पार करके आगे बढ़े कि अगले चौराहे पर जीप दुर्घटना ग्रस्त हो गई और इस दुर्घटना ठाकुर लालसिंह न बच सके।
राजस्थान से आया था ठाकुर लालसिंह का परिवार
ऐसे जीवन बलिदानी ठाकुर लालसिंह का परिवार मूलतः राजस्थान में भरतपुर क्षेत्र अंतर्गत सिनसिनी गांव का रहने वाला था। इस क्षेत्र के मूल निवासी जाट क्षत्रिय सिनसिनवार गोत्र के कहे जाते है। भरतपुर के इतिहास प्रसिद्ध शासक सूरजमल जाट इसी "सिनसिनवार" गोत्र से थे। अठारहवीं शताब्दी भरतपुर क्षेत्र के लिए बहुत उथल पुथल से भरी हुई थी। पहले औरंगजेब के हमले, और फिर अंग्रेजों के। लगातार हमलों के बीच सिनसिनी से एक शाखा मालवा आई। आगे चलकर इनमें से एक परिवार भोपाल रियासत में आया। यह परिवार पहले इछावर और फिर बैरसिया आया। इसी परिवार में ठाकुर लालसिंह का जन्म हुआ। जन्मवर्ष 1889 माना जाता है। पिता हीरा सिंह आर्य समाज से जुड़े थे। आर्यसमाज के ये संस्कार ठाकुर लालसिंह जी में जीवन भर रहे। पढ़ने के लिये इंदौर भेजा गया। इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज से उन्होंने बीए किया और 1913 में भोपाल के अलेक्जेंडर कॉलेज में शिक्षक हो गए।
सामाजिक वातावरण से व्यथित थे ठाकुर लालसिंह
शिक्षक के रूप में जब ठाकुर लालसिंह भोपाल लौटे तब भोपाल रियासत में नबाब बेगम सुल्तान जहां का शासन था। नबाब बेगम यद्यपि सुधारवादी और प्रगतिशील थीं लेकिन अपने धर्म के प्रति बहुत कट्टर। इसके चलते पूरी रियासत के सामाजिक वातावरण में असहजता बढ़ रही थी। पंजाब उत्तर प्रदेश आदि स्थानों से मुस्लिम परिवारों का भोपाल आने का क्रम तेज हो गया था। इन मुस्लिम परिवारों को नवाब प्रशासन द्वारा राजकीय पद अथवा जमीन जायदाद देकर बसाया जा रहा था। इसके साथ बाहर से आये इन तत्वों द्वारा असामाजिक गतिविधियाँ भी की जा रहीं थीं। जिससे हिन्दु समाज में भय और असुरक्षा का भाव बढ़ने लगा। हिन्दु समाज में एक तो कुछ आंतरिक विषमताएं, दूसरे इन घटनाओं का तनाव बढ़ने लगा था। इस सामाजिक वातावरण से ठाकुर लालसिंह बहुत व्यथित हुए । इन्ही दिनों नबाब बेगम ने एक ईशनिंदा कानून बनाया जिसके अंतर्गत इस्लाम की आलोचना करने पर गैर जमानती गिरफ्तारी का प्रावधान था।
एकजुटता और भय रहित जीवन का दिया संदेश
इस कानून की विशेषता थी इसमें आरोप लगाने वाले को अपना आरोप साबित नहीं करना होता था, बल्कि आरोपी को अपने आपको निर्दोष होना प्रमाणित करना होता था। इन सभी परिस्थियों में ठाकुर लालसिंह को लगा कि वाह्य समस्याओं का सामना करने से पहले समाज को अपनी आंतरिक विसंगितियों से मुक्त होना होगा। उन्होंने पहले इसी दिशा में अपना काम आरंभ किया। पारिवारिक पृष्ठभूमि के चलते वे आर्यसमाज के संपर्क में थे। उन्होंने अपने समाज के सुधार और समाज सशक्तीकरण उद्देश्य की पूर्ति के लिए आर्यसमाज का ही मार्ग अपनाया। वे विभिन्न सेवा बस्तियों में गए सबको एकजुटता और भय रहित जीवन तथा शिक्षा से जुड़ने का संदेश दिया। यही संदेश उन्होंने अपने विद्यालय के छात्रों को भी दिया और सामाजिक एकजुटता के लिए सक्रिय किया।
उन्ही दिनों गांधीजी ने अंग्रेजों से मुक्ति के लिए असहयोग आंदोलन का आह्वान किया। भोपाल में अंग्रेजों का सीधा शासन नहीं था। इसलिए भोपाल रियासत के बुद्धिजीवियों ने जन जाग्रति के लिये केवल प्रभात फेरी निकालने का निर्णय लिया। भोपाल नगर में बच्चों की जो प्रभात फेरी निकाली गई, उसमें प्रत्यक्ष रूप से किशोरवय उद्धवदास मेहता थे लेकिन परदे के पीछे ठाकुर लालसिंह की भूमिका महत्वपूर्ण थी। चूँकि अधिकांश बच्चे अलेक्जेंडर कॉलेज के ही थे। 1922 में आर्य समाज ने लड़कियों की शिक्षा के लिए जो विद्यालय आरंभ किया उसमें भी ठाकुर लालसिंह की भूमिका महत्वपूर्ण थी।
शिक्षक पद छोड़ समाज सेवा में आए ठाकुर लालसिंह
ठाकुर लालसिंह ने 1932 में शिक्षक पद से त्यागपत्र दिया और खुलकर समाज सेवा में आ आए। वे हिन्दू समाज की कुरीतियों के निवारण के लिए भोपाल में गठित हिन्दू सेवा संघ और सीहोर में गठित यंग मैन एसोसिएशन के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। हिन्दू सेवा संघ ने हिन्दू समाज की समस्याओं के निराकरण केलिये एक ज्ञापन नवाब प्रशासन को सौंपा और विभिन्न स्थानों पर जाग्रति के लिए सम्मेलन किए, इसी अभियान के अंतर्गत उनकी पहली गिरफ्तारी 1932 में हुई।
समाचार पत्र "प्रजा पुकार" का किया प्रकाशन
समाज जागरण के लिए भोपाल के शाहजहांनाबाद में हुये सम्मेलन में सुप्रसिद्ध समाज सुधारक ठक्कर बाबा भी आए थे। भोपाल रियासत में हिन्दू महासभा की इकाई गठित करने में भी ठाकुर लालसिंह की भूमिका महत्वपूर्ण थी। उन्होंने लाहौर और नासिक,पुणे सम्मेलनों में भाग लिया और वे हिन्दु महासभा की भोपाल इकाई के पहले अध्यक्ष बने। 1934 में भाई उद्धवदास मेहता के साथ मिलकर एक समाचार पत्र "प्रजा पुकार" का प्रकाशन आरंभ किया। डॉ. लालसिंह इसके संपादक बने। बाद में उनके मार्ग दर्शन में 2-3 और हिंदी समाचारपत्र निकले गए जिनमे प्रजा मित्र और किसान प्रमुख है। 1937 में जन आंदोलन के चलते वे दूसरी बार गिरफ्तार हुए। इस बार उन्हें 6 माह की सजा हुई। जेल से लौटकर पुनः अपने अभियान में लगे। इसी साल आर्यसमाज ने हैदराबाद आंदोलन आरंभ किया । इसमें भाग लेने के लिये हिन्दु महा सभा ने भोपाल से जत्थे भेजे। निजाम हैदराबाद के संकेत पर भोपाल नबाब ने जत्थों की रवानगी पर प्रतिबंध लगा दिया। ठाकुर लालसिंह को जत्थे रवानगी की तैयारी में गिरफ्तार किया उन्हें 15 दिन जेल में रखा गया।
प्रजा मंडल के पहले अध्यक्ष बने ठाकुर लालसिंह
अक्टूबर 1938 में प्रजा मंडल की भोपाल इकाई गठित हुई। ठाकुर लालसिंह इसके पहले अध्यक्ष बने। प्रजा मंडल वस्तुतःपंडित मदन मोहन द्वारा स्थापित राजनैतिक इकाई थी । भारत के जिन क्षेत्रों में अंग्रेजों का सीधा शासन था वहां कांग्रेस थी। लेकिन जहां अंग्रेजों के आधीन रियासतों का शासन था वहां प्रजा मंडल काम करता था। ठाकुर लालसिंह को लगा था अंग्रेजों और अंग्रेज नियंत्रित नवाब के अत्याचारों से मुक्ति के लिये हिन्दुओं और मुसलमानों को मिलकर साथ आना चाहिए। इसलिए वे प्रजा मंडल के संस्थापक बने। पर यह ठाकुर लालसिंह के व्यक्तित्व और उनके द्वारा किए गए समाज जागरण के कार्यों का प्रभाव था कि हिन्दु महासभा ने उन्हें यह सुविधा दी थी कि ठाकुर लालसिंह प्रजा मंडल के साथ हिन्दु महासभा के सदस्य भी रह सकते हैं। 1942 में आरंभ हुआ भारत छोड़ो आंदोलन के लिये ठाकुर लालसिंह ने पूरी रियासत की यात्रा की। 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ लेकिन भोपाल में स्वतंत्रता न आ सकी । भोपाल में स्वतंत्रता आँदोलन आरंभ करने के लिये 1947 में सीहोर में एक सर्वदलीय बैठक बुलाई गई। इस बैठक की अध्यक्षता ठाकुर लालसिंह जी ने की।
भोपाल में पहुंचे दस लाख मुस्लिम शरणार्थी
इसी बीच भोपाल नबाब ने एक चाल चली। उत्तरदायी शासन के लिए प्रजा मंडल से चर्चा की और एक अंतरिम मंत्रीमंडल बनाकर प्रशासन चलाने का सुझाव रखा नवाब ने आश्वस्त किया कि सभी नागरिकों को समान अधिकार होंगे। ठाकुर लालसिंह इससे सहमत हो गये और एक सर्वदलीय मंत्रीमंडल बन गया। लेकिन भारत विभाजन के समय आसपास से मुस्लिम परिवार भोपाल रियासत आने लगे। ठाकुर लालसिंह को यह स्थिति असहज लगी फिर भोपाल नवाब यात्रा पर चले गये इसलिए कोई समाधान न निकल सका। नवम्बर 1947 में इस संबंधी समाचार टाइम्स ऑफ इंडिया में छपा। इसके अनुसार लगभग दस लाख मुस्लिम शरणार्थी भोपाल में आ गये थे। उन्हें वापस भेजने के लिये वीपी मेनन और सरदार वल्लभभाई पटेल की भोपाल नबाब से भी चर्चा हुई।
हिन्दु महासभा के नेताओं की हुई गिरफ्तारी
इन्हीं तनावो के बीच दिल्ली में गांधी जी की हत्या हुई। भोपाल नवाब को अवसर मिला। हिन्दु महासभा सहित वे तमाम नेता गिरफ्तार कर लिए गए जो नवाब विरोधी थे। इससे भोपाल रियासत को भारतीय गणतंत्र में विलीन करने का अभियान ठंडा पड़ा। लेकिन नबाब की कूटनीति को ठाकुर लालसिंह ने समझा और प्रजा मंडल के सदस्यों से मंत्रीमंडल छोड़ने को कहा। उन दिनों मौलाना तरजी मशरीकी प्रजा मंडल के अध्यक्ष थे। वे सहमत नहीं हुए। जून 1948 आते आते प्रजा मंडल में विभाजन जैसी स्थिति बनी।
इछावर से विलीनीकरण आंदोलन का उद्घोष
अंत में ठाकुर लालसिंह ने हिन्दु महा सभा तथा अन्य सामाजिक संगठनों के सदस्यों से चर्चा की और अक्टूबर 1948 में इछावर से विलीनीकरण आँदोलन का उद्घोष कर दिया। पुलिस ने लाठीचार्ज किया, सभा को तितर वितर किया। ठाकुर लालसिंह द्वारा विलीनीकरण आंदोलन की घोषणा कर देने से प्रजा मंडल में नबाब समर्थक कुछ सदस्य नाराज हुये और अध्यक्ष तरजी मशरीकी ने ठाकुर लालसिंह जी के इस कार्य को अनुशासनहीनता माना और उन्हें प्रजा मंडल से निलंबित कर दिया । पर ठाकुर लालसिंह ने इसकी परवाह नहीं की और पूरी रियासत की यात्रा की । उनके अभियान का हिन्दु महासभा और अनेक सामाजिक संगठनों ने सहयोग किया। अक्टूबर 1948 को ठाकुर लालसिंह द्वारा इछावर में किया गया विलीनीकरण आंदोलन का यह उद्घोष पूरी रियासत में फैला। दिसंबर 1948 तक आंदोलन पूरे राज्य में फैल गया था। कोई गांव, कोई कस्बा ऐसा नहीं जहां नौजवान विलीनीकरण के लिये उठकर खड़े न हुये हों। ठाकुर लालसिंह अलेक्जेंडर कॉलेज में शिक्षक रहे थे। यह भोपाल रियासत का एक मात्र कॉलेज था। रियासत के अधिकांश शिक्षित लोग इसी कॉलेज के थे। इसलिए जब ठाकुर लालसिंह ने विलीनीकरण आंदोलन का आह्वान किया तो युवा शक्ति उठ खड़ी हुई। इनमें सबसे प्रमुख भाई रतन कुमार भी थे जो उनके छात्र रहे थे जिनके समाचारपत्र "नई राह" ने चिन्गारी को ज्वाला में बदला। सीहोर बरेली उदयपुरा आदि अनेक स्थानों में गोलियाँ भी चलीं बलिदान हुए। अंत में 1 जून 1949 को भोपाल रियासत भारतीय गणतंत्र का अंग बनी।
ठाकुर लालसिंह का निधन आज भी बना हुआ है रहस्य?
भोपाल रियासत एक स्वतंत्र राज्य के रूप में अस्तित्व में आ गई। समझौते के अंतर्गत पुलिस सहित नबाब का पूरा प्रशासनिक अमला यथावत रहा। अक्टूबर 1951 में चुनाव प्रक्रिया आरंभ हुई। ठाकुर लालसिंह भावी नेतृत्व के लिए एक स्वाभाविक चेहरा थे। लेकिन भोपाल नवाब और नवाब समर्थक लॉवी उन्हें कतई पसंद नहीं करती थी। वे 4 दिसंबर 1951 को चुनाव के लिये जीप से अपना नामांकन भरने सीहोर के लिये रवाना हुये । वे जैसे ही रायल मार्केट पार करके आगे बढ़े कि अगले चौराहे पर जीप दुर्घटना ग्रस्त हो गई और इस दुर्घटना ठाकुर लालसिंह न बच सके। उन दिनों भोपाल में ट्रैफिक भी न था, उस रास्ते भीड़ भी न रहती थी। जीप की स्पीड भी न थी फिर भी ऐसी दुर्घटना? यह रहस्य आज भी बना हुआ है कि वह दुर्घटना कैसे इतनी भीषण हुई कि ठाकुर लालसिंह न बच सके।
समाज सेवा और मानवीय मूल्यों के प्रेरणास्त्रोत
इतिहास के पन्नों में ठाकुर लालसिंह को उतना स्थान नहीं मिला जैसी उन्होंने समाज की सेवा की। उनका पूरा जीवन सामाजिक, सांस्कृतिक, सनातन परंपराओं और मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिये समर्पित था। भोपाल में पहली कन्या शाला और पहला अनाथालय आरंभ करने वाले ठाकुर लालसिंह ही थे। छुआछूत के विरुद्ध सामाजिक जाग्रति और मतान्तरण करने वालों की घर वापसी और मंदिर में प्रवेश कराने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी। दंगों में अपहृत कुछ बालिकाओं को मुक्त करा कर उनका कन्यादान उन्होंने स्वयं किया था। बैरसिया में उनके द्वारा बनवाई गई एक कन्या शाला,और एक बालक विद्यालय, भोपाल में उनकी स्मृति में एक पार्क, एक हॉस्पिटल और एक विद्यालय आज भी है। यह जन मन में ठाकुर लालसिंह का सम्मान और लोकप्रियता थी कि जब उनके असामयिक निधन का समाचार आया तब न केवल पूरे भोपाल रियासत के क्षेत्र अपितु विदिशा से धार तक स्वप्रेरणा से बाजार बंद हो गये थे। कहीं कहीं तो शोक में तीन दिन तक दुकानें नहीं खुलीं थीं।
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