तीज त्योहारों की तरह हर साल शिक्षक दिवस भी आता है। पूजा आराधना में जैसे गोबर की पिंडी को गणेश बानकर पूज लिया जाता है। ठीक वैसे ही एक दिन के लिए सभी गोबर गणेश बन जाते हैं। यह एक अनिवार्य कर्मकांड है, जो हर साल यह अहसास दिलाता है कि अपने यहां शिक्षक भी पूजे जाते हैं। ऐसे ही एक दिन गुरु का होता है, गुरूपूर्णिमा। कभी-कभी गुरू और शिक्षक के बीच की विभेदक रेखा समझ में नहीं आती तो इसके लिए यह समझना जरूरी होता है कि किसे गुरू कहें, किसे शिक्षक! गुरु वह हुआ करता था, जो कान में मंत्र फूंककर नई जीवन दृष्टि देता था। जैसे स्वामी रामानंद ने कबीर के कान में फूंका- हरि को भजै सो हरि का होय, जाति पांति पूछे नहिं कोय, इस एक मंत्र ने कबीर को अमर कर दिया। एक गुरु हुए समर्थ रामदास जिन्होंने शिवाजी को छत्रपति बना दिया..। ऐसे गुरूओं के महात्म्य हम प्राय: प्रवचनों में सुनते हैं।
प्रवचन देने वाले गुरूबाबा आमतौर पर गुरू नहीं होते। वे गुरुमंत्र भी पूरी धंधेबाजी के साथ देते हैं। हाल ही में एक जगह प्रवचन सुनने का व्यवहार निभाने गया। घुसते ही गुरू बाबा की बाजार सजी मिली। यहां तरह-तरह की औषधियां, हर्बल सौंदर्य सामग्री, मसाले, जूस, पोषाकें आदि भक्तों को बेचने के लिए सजी थीं। जैसे सर्कस वाले तंबू और लाव लश्कर लेकर चलते हैं, वैसे ही अब गुरूबाबा लोगों का भी मूवमेंट होता है। जितना बड़ा पैकेज उतने ही बड़े गुरूबाबा। लेकिन इनकी भी चांदी कटती है। बड़े नेता, ठेकेदार, सेठ लोग इनके चेले होते हैं। नेताओं को फायदा यह होता है कि क्षेत्र की धर्मभीरु जनता उमड़ पड़ती है और नेताजी इसी को अपना जनबल दिखाकर टिकट झटक लाते हैं। अब तो ठेकेदारों और कारपोरेटियों के झगड़े यही लोग निपटाने लगे हैं, यह काम पहले इलाके के दादा लोग करते थे। ये गुरू लोग इतने खोखले होते हैं, यह पिछले साल पता चला जब एक गुरू ने अपनी कनपटी में रिवॉल्वर से गोली मारकर इहलीला समाप्त कर ली। ये गुरू भी कारपोरेटियों में पूजे जाते थे, उनके झगड़े निपटाते थे, लेकिन अपने घर का झगड़ा निपटाने में असफल रहे।
द्रोणाचार्य गुरू नहीं शिक्षक थे
शिक्षक गुरु नहीं वेतन भोगी कर्मचारी होते हैं। गुरु से इनका फर्क ऐसे समझिए, जैसे द्वापर में संदीपन और द्रोणाचार्य में था। द्रोणाचार्य गुरू नहीं शिक्षक थे। इसलिए जो जितनी ट्यूशन फीस देता उसे उसी मनोयोग से पढ़ाते। एकलव्य को पढ़ाने से मनाकर दिया। एकलव्य जुनूनी ठहरा। वह द्रोणाचार्य का ध्यान करके सेल्फ स्टडी करने लगा। जब द्रोणाचार्य को पता लगा कि यह तो बिना पढ़ाए ही धुरंधर बन गया, तो उन्हें अपने शिष्यों की चिंता हुई। वे कुरूवंश को उनके बच्चों को टॉप कराने का वचन दे चुके थे। जब एकलव्य उनसे आशीर्वाद लेने पहुंचा तो उन्होंने उसका अंगूठा मांग लिया।
हम जब हाइयर सेकंड्री पढ़ने शहर गए तो शिक्षक द्रोणाचार्य टाइप के ही मिले। वे पहले कक्षा में छात्रों की बल्दियत पूछते थे। इसी आधार पर उनकी शिक्षा और स्नेह तय होता था। सिविल लाइन्स में रहने वाले बच्चों पर उनकी खास कृपा रहती थी। अपन लोग सही भी उत्तर दें तो भी डांट मिलती थी। समय ने शिक्षकों से पूरा बदला भंजा लिया। सफाई कर्मी की तरह ये भी शिक्षाकर्मी बने। अब और भी कई कैटेगरी हैं। जो परमानेंट हैं, वे ताउम्र वेतन विसंगति और समयबद्ध पदोन्नति के लिए लड़ते हैं। जो दिहाड़ी हैं उनका संघर्ष परमानेंट होने के लिए है। पढ़ाने का संघर्ष उनके हिस्से में है, जो कुशल श्रमिकों से भी कम मजूरी पाकर प्रायवेट स्कूलों में नौकरी करते हैं। इन सबकी पीएचडी, शोध अनुसंधान यहीं खपता है.. जहां का संचालक आठवीं फेल भी हो सकता है, वही शिक्षकों को श्योर सक्सेस के टिप्स देता है।
शिक्षा बेईमानी से कमाई पूंजी को पवित्र करने का एक मात्र तरीका
शिक्षा एक धंधा है। ठेकेदारी में, नेतागिरी में या अफसरी में बेईमानी से कमाई गई पूंजी को पवित्र बनाने का एक मात्र तरीका है। शिक्षा में निवेश। अवसरवंचित, अवसादग्रस्त टीचर इनके स्कूलों में पढ़ाता है और आठवीं फेल संचालक बैंग्कॉक-पटाया-सिंगापुर में फसली छुट्टी मनाता है। लेकिन शिक्षक दिवस एक अनिवार्य कर्मकांड तो है ही, जो हर साल डॉ. राधाकृष्णन के जन्मदिन पर रचाया जाता है। नेहरू, डॉ. राधाकृष्णन को इसलिए महान मानते थे, क्योंकि वे उनके महान दार्शनिक गुरू के शिष्य थे। उन्होंने नेहरू को डॉ. राधाकृष्णन की प्रतिष्ठा का ताउम्र ध्यान रखने का वचन लिया था।
20% कर्म, 80% कांड, शिक्षा के भी कुछ ऐसे ही हाल हैं...
बहरहाल जहां कर्म जड़ हो जाता है, वहीं से कांड शुरू होता है। अपने यहां कर्म और कांड का रेशियो 20-80 का होता है। 20% कर्म 80% कांड। इसी औसत में हमारे शिक्षा संस्थानों में पढ़ाई होती है। गणेश विसर्जन के दूसरे दिन से पितृपक्ष शुरू होता है। यह भी कर्मकांड ही है। माता-पिता की सेवा 20% शेष उनका कांड। बेटा विलायत में था, डेढ़ साल पहले मां से बात करके अपने दायित्व का कोटा पूरा कर लिया था। लौटा तो यहां घर में कांड हो चुका था। मां की हड्डी की ठटरी मिली। अब वो पितर बन चुकी है। बेटा गया जाकर मां की आत्मा का तर्पण कर आया इति श्री कर्मकाण्डम्। सच्चे सपूतों यही गुणधर्म है। देश में शिक्षा भी कर्मकांडी है। यहां कर्म कम कांड ज्यादा होते हैं। जेएनयू का कन्हैया कांड, हैदराबाद का बेमुला कांड। फिर ऐसे ही कई लोकल कांड। ना पढ़ाई की फुर्सत, ना पढ़ाने का वक्त।
रागदरबारी वाले श्रीलाल शुक्ल कह गए.. भारत की शिक्षानीति.. चौराहे पर खड़ी ऐसी कुतिया है कि हर राहगीर लतिया के निकल जाता है..। आजादी के बाद से उस बेचारी कुतिया को मुकाम नहीं मिला। वो आए तो बोले ऐसा भोंको.. वह ऐसा भोंकने का अभ्यास कर ही रही थी कि ये आ गए। इन्होंने कहा भोकने में कुछ राष्ट्रवादी लय-सुर मिलाओ तब चलेगा.. कुतिया बेचारी भौचक खड़ी है, वहीं उसी चौराहे में नीति-नियंताओं से लात खाते हुए।
सवा अरब की आबादी में शिक्षा जैसे अंधेर नगरी चौपट राजा
सवा अरब की आबादी। एक लाख से ज्यादा शैक्षणिक संस्थान। दुनिया के श्रेष्ठ दो सौ संस्थानों में एक भी नहीं। हम चल पड़े हैं विश्वगुरु बनने। हालत ढांक के तीन पात। सगोत्रीय शिक्षाविदों की तलाश में पढ़ाई ठप्प। लड़कों को पढ़ाई चाहिए भी कहां। डिग्रियां मिल रही हैं। इंन्जीनियर बने दुबई में कारपेंटरी कर रहे। मां बाप खुश कि बेटा बडे़ पैकेज में है। एमबीए किया इटली पहुंचे पिज्जा बेचने लगे। 90% शिक्षा संस्थानों के यही हाल हैं। शेष 10% में आधों का ब्रेन ड्रेन होकर समुंदर पार हो गया। जो बचे उन्हें नेताओं ने अपने पीछे लगा लिया। अंधेर नगरी चौपट राजा, टकेसेर भाजी टकेसेर खाजा।
84 साल के स्वतंत्रता संग्रामी का भाषण
शिक्षक दिवस समारोह के मुख्य अतिथि बने 84 साल के पंडिज्जी बिना थके, बिना रुके यही सब बोले जा रहे थे। मंच पर बैठे नेताजी अध्यक्षता कर रहे थे। नेताजी चैनलिया बसहबाजों की भांति उठकर बीच में बोल पड़े- पंडिज्जी देश में सब बुरई-बुरा नहीं हो रहा। अच्छा भी हो रहा है। हम तरक्की कर रहे हैं। आगे बढ़ रहे हैं। ग्रोथ की रफ्तार देखिए। दूसरी आंख भी खोलिए। आज पंडिज्जी का दिन था, वे फिर बमके.. कैसी ग्रोथ? भ्रष्टाचार में एशियाई लायन, भूख के सूचकांक में अफ्रीकियों से अंगुल भर ऊपर,आर्थिक विषमता ऐसी कि 5% लोगों के पास देश की 90% दौलत, महिला दमन के मामले में अरब मुल्क लजा जाएं। बड़े चले आए दुनिया की महाशक्ति बनने.. दादा के माथे नौ-नौ मेहर...। एक तमंचा तक तो आयात करते हो। पूरी दौलत लुटाए दे रहे हो हथियार खरीदने में, कहते हो हम बड़ी ताकत हैं।
पंडिज्जी भारत छोडो आंदोलन के संग्रामी थे। आजादी के बाद अध्यापक हो गए। शिक्षक दिवस के दिन वरिष्ठ शिक्षाविद के नाते उनका नाम तय किया गया था। पंडिज्जी के सिर पर गांधी टोपी, मध्यकाल के नेताओं को भी मात दे रही थी। पंडिज्जी उपसंहार करते हुए मुद्दे पर आए.. देश में सामाजिक विषमता का अध्ययन करना है, तो शिक्षकों की स्थिति पर करिए। दो हजार पाने वाला भी शिक्षक, दो लाख पाने वाला भी। जो कम पाए वो हाड़तोड़ पढ़ाए, जो ज्यादा पाए मटरगस्ती करे। अरे जो शिक्षा की बुनियाद रख रहे हैं, उन्हें कम से कम मजूरों के बराबर मजूरी तो दो। एक ने सफाई कर्मियों की तरह शिक्षाकर्मी बना दिया, दूसरे ने तरक्की देकर गुरु बना दिया, पहले तदर्थं शिक्षक थे, अब वही अतिथि विद्वान हो गए।
ग्रोथ, सिर्फ लफ्फाजी की ग्रोथ। शिक्षकों की यह फ्रस्ट्रेट पीढ़ी से गढ़कर कैसी पौध निकलेगी और निकल रही है, सब सामने है। मैं इसलिए कह रहा हूं कि ये कर्मकांड बंद करिए और फिर जो मरजी हो करिए। हमने अपना जमाना जिया तुम लोग जियो या मरो अपना क्या..? पडिज्जी ने यह सवाल छोड़ते हुए जयहिंद कर लिया। नेता ने पंडिज्जी के भाषण को ऐतिहासिक बताते हुए कहा सहिष्णुता ऐसी ही हो कि कोई कटु से कटु कहे तो कान में कड़वे तेल की तरह डालो फिर खूंट समेत नकाल दो। स्कूल के बच्चों ने लयबद्धता के साथ तलियां पीटीं।
प्राचार्य महोदया ने शाल श्रीफल, पत्रम् पुष्पम् के साथ पंडिज्जी का सम्मान किया। फिर आभार मानते हुए बोलीं- बाय द वे आपका स्पीच वंडरफुल रहा। पंडिज्जी अपने वंडरफुल स्पीच से मुदित थे। दिहाड़ी वाले गुरू और अतिथि विद्वान नाश्ते के दोने लगाने में मस्त थे। संचालक ने घोषणा की कि आज का यह समारोह यहीं समाप्त हुआ। अगली साल इसी दिन फिर मिलेंगे। पंडिज्जी, नेता की सफारी में बैठकर बच्चों को टाटा बाय-बाय करते हुए चले गए।