डर मत, बाबू चुनाव तो हर हाल में होना...!

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डर मत, बाबू चुनाव तो हर हाल में होना...!

अजय बोकिल। धर्मराज युधिष्ठिर से यक्ष ने यदि यह प्रश्न किया होता कि हमारे देश में सबसे जरूरी क्या है, तो वो क्या जवाब देते? आज के संदर्भ में इस सवाल का एकमात्र उत्तर होता- चुनाव। खतरा चाहे कोराना का हो, दहशत किसी महामारी की हो, भय वोटयाचक अथवा वोटर की अकाल मौत का हो, लेकिन बाबू चुनाव तो हर हाल में होना। कुर्सी का खेल तहे दिल से खेले बगैर जीना भी क्या जीना..!



स्वास्थ्य से ज्यादा जरूरी है चुनाव

देश में ओमिक्रोन वेरिएंट के रूप में कोरोना वायरस की तीसरी लहर की गंभीर चेतावनियों के बीच जोश भरी खबर यह है कि देश में यूपी सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव तय समय पर होंगे, क्योंकि सभी सियासी पार्टियां यही चाहती हैं। यह कहना है देश के चुनाव आयोग का। चूंकि चुनाव आयोग राजनीतिक दलों की मर्जी के खिलाफ नहीं जा सकता, इसीलिए वो पूरी मुस्तैदी से चुनाव सम्पन्न कराएगा। बढ़ते संक्रमण के बीच चुनाव कार्यक्रम की घोषणा भी जल्द की जाएगी। फिर स्वास्थ्यगत नतीजे चाहे कुछ भी हों, राजनीतिक नतीजों का ध्यान रखना ज्यादा जरूरी है। 



ओबीसी आरक्षण की भेंट चढ़ा मध्यप्रदेश चुनाव

कुल मिलाकर परिदृश्य अजीब विरोधाभास से भरा है। एक तरफ देश के शीर्ष चिकित्सक, वैज्ञानिक और नेता भी देश में कोरोना की तीसरी लहर के आने और लोगों को इससे सावधान रहने की गंभीर चेतावनियां दे रहे हैं। तीसरी लहर से जूझने को लेकर की गई सरकारी तैयारियों के दावे किए जा रहे हैं। दूसरी तरफ पांच राज्यों में राजनीतिक उत्साह ठाठें मार रहा है। प्रधानमंत्री भी दोहरी जिम्मेदारी पूरी संजीदगी से निभा रहे हैं। दिन में वो लाखों की रैलियों को सम्बोधित कर रहे हैं और रात में लोगो से कोरोना प्रोटोकॉल का पालन करने की हिदायत दे रहे हैं। वो भी क्या करें। सत्ता ही सब कुछ है। वही नहीं रहेगी तो यह सब करने का क्या मतलब है। मध्यप्रदेश में भी नाइट कर्फ्यू के बावजूद पंचायत चुनावों का ‘उजाला’ होने वाला था, लेकिन भला हो ओबीसी आरक्षण के पेंच का कि चुनाव टालने पड़े। हालांकि ओमिक्रोन राज्य में इस ‘चुनाव बलि’ से भी खुश नहीं हुआ और कई शहरों में कोरोना संक्रमण की रफ्तार फिर तेज होती जा रही है। 



चुनावी महारोग उत्तर प्रदेश के लिए कोरोना से घातक

जाहिर है कि मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश नहीं है और न ही उत्तर प्रदेश मध्यप्रदेश है। वह ‘उत्तरदायी प्रदेश’ है, इसलिए चुनाव टलवाने की ऐसी कोई भी कोशिश नाकाम ही होगी। ओमिक्रॉन की तेज होती पदचाप के बीच एक एजेंडा यह भी चला कि भाजपा ओमिक्रोन की आड़ में चुनाव स्थगित करा सकती है और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा सकती है, लेकिन जब भाजपा सहित सभी राजनीतिक दलों ने बेखौफ अंदाज में कहा कि चुनाव हर कीमत पर होने चाहिए तो अब पूछा जा रहा है कि क्या चुनावी महारोग कोरोना महामारी से बड़ा है? इस ‘चित भी मेरी और पट भी मेरी’ एजेंडे से हटकर सोचें कि क्या चुनाव सचमुच इतने अपरिहार्य हैं? ये तय समय पर न हुए तो क्या पूरा निजाम लड़खड़ा जाएगा? क्या सत्ताधीश कुछ समय के लिए भी कुर्सी से नीचे नहीं उतर सकते? क्या निजी हित, राजनीतिक हित, सामाजिक हित और राजनीतिक हित इतने गड्डमड्ड हो चुके हैं कि कोई चुनाव टलने का खयाल भी दु:स्वप्न-सा लगने लगा है? 



कुर्सी है तो जहान है

यूपी में विधानसभा चुनाव टालने की अपील भी इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक जज इस बिना पर की थी कि ‘जान है तो जहान है। ‘हालांकि इसे ‘कुर्सी है तो जहान है’ के रूप में पढ़ा गया। जज की इस अपील के बाद तरह-तरह की सियासी शंकाएं राजनेताओं के मन में थीं। चुनाव करवाने को लेकर भी और न करवाने को लेकर भी। शंका की सुई नीति नियंताओं की मंशा पर अटकी थी, जिसे मुख्य चुनाव आयुक्त ने अपने बयान से फिर चालू कर ‍दिया है।  



लोकतंत्र के लिए और कितनी आहुतियां 

देश के मुख्यक चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा ने कहा कि चुनाव हर हाल में होंगे, क्योंकि राजनीतिक दल ऐसा चाहते हैं। आशय ये कि जो पांच साल से विपक्ष में बैठकर घास खोद रहे हैं, वो भी और जो पांच साल से मलाई खा रहे हैं और आगे भी खाते रहना चाहते हैं, वो भी चाहते हैं ‍कि चुनाव हो जाएं। दूध का दूध और पानी का पानी हो। भले ही पब्लिक का दम क्यों न ‍निकल जाए। वैसे भी सत्ता की चमड़ी इतनी मोटी होती है कि उस पर किसी महामारी का खास असर नहीं होता। अगर यूपी की ही बात करें तो इस साल कयामती डेल्टा वेरिएंट की लहर के बीच भी राज्य में पंचायत चुनाव बिंदास तरीके से हुए। वो भी हाई कोर्ट के आदेश पर। इन चुनावों में ड्यूटी करने वाले सरकारी कर्मचारी बड़े पैमाने पर कोरोना से संक्रमित हुए थे। कई की मौत भी हुई थी। उत्तर प्रदेश शिक्षक संघ ने तो इस दौरान 1621 शिक्षकों की मौत का दावा किया था। उन दिवंगत शिक्षको के परिजनों को मुआवजा भी राज्य सरकार ने हाई कोर्ट की फटकार के बाद दिया था। माना गया कि लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए इतनी ‘आहुतियां’ कुछ भी नहीं है। 



चुनाव आयोग के फैसले से राजनीतिक दलों में जश्न

बहरहाल खुशी की बात यही है कि चुनाव आयोग के फैसले से हर छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टी और निर्दलीय भी खुश हैं। क्योंकि जिस परीक्षा की तैयारी वो पांच साल से कर रहे थे, वो परीक्षा ही रद्द हो जाए, इससे ज्यादा मायूस करने वाली बात कोई और नहीं हो सकती। चुनाव हमारे लोकतंत्र की दिवाली, ईद और क्रिसमस है। अब चुनाव हो ही रहे हैं तो सत्ता में वापसी की आस भी बनी हुई है। कौन वापस आएगा, कौन नहीं, यह तो नतीजे ही बताएंगे। लेकिन दावों और तिकड़मों में कहीं कोई कमी नहीं है। चुनाव आयोग भी चुनाव टालकर लोकतंत्र विरोधी होने का इल्जाम अपने सिर नहीं लेना चाहता। आयोग ही क्यों, कोई पार्टी भी चुनाव टलवाने का मंगल दोष अपनी कुंडली में नहीं लिखवाना चाहती। क्योंकि कोई भी पार्टी जनता से यह पूछने नहीं जा रही कि भाई कोरोना की तीसरी लहर में आप में से कितने बचेंगे बल्कि रायशुमारी तो इस बात की होने जा रही है कि हम में ‍से कितने बचेंगे, कितने सत्ता में लौटेंगे?



अन्य देशों के चुनावों पर कोरोना का असर 

वैश्विक परिदृश्य पर नजर डालें तो कई देशों ने कोरोना के चलते चुनाव टाले हैं तो कई ने कराए भी हैं। इंस्टीट्यूट फॉर डेमोक्रेसी एंड इलेक्टोरल असिस्टेंस’ की स्टडी के मुताबिक 21 फरवरी 2020 से 21 नवंबर 2021 के बीच कोरोना की वजह से दुनिया भर में 79 देशों ने राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय चुनाव टाले हैं। लेकिन 146 देशों ने चुनाव कराए भी हैं। 124 देशों में राष्ट्रीय चुनाव या जनमत संग्रह हुआ है। सो इनसे प्रेरणा ले।



ओमीक्रोन के साये में चुनाव

इस बात की फिक्र न कर कि कोरोना और ओमीक्रोन वैरिएंट 22 राज्यों में फैल चुका है। दिल्ली और महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा केस सामने आ रहे हैं। दिल्ली 'मिनी लॉकडाउन' में है। स्कूल-कॉलेज बंद हैं। कई कंपनियों को वर्क फ्रॉम होम फिर से शुरू करना पड़ा है। यूपी में 12वीं तक के स्कूल बंद हैं। सवा महीने बाद कोरोना के 10 हजार से ज्यादा मामले मिले हैं। नए साल के जश्न पर कोविड का साया है। बावजूद इसके समय पर चुनाव करवाना चुनाव आयोग और समूचे तंत्र की संवैधानिक बाध्यता है। हमारे संविधान निर्माताओं ने भी शायद नहीं सोचा होगा कि कभी कोई वैश्विक महामारी आ जाए तो भी चुनाव कराना कितना लोकहित में होगा? वोटर का जिंदा रहना ज्यादा जरूरी है या ‍वोट देकर ‘शहीद’ हो जाना? जब चौतरफा त्राहि-त्राहि हो तब भी राजनीतिक रैलियों में सियासी आत्म स्तुति और पराए की आलोचना की पुंगी बजाना प्रभाती गाने की माफिक क्योंकर होगा? 



लाइलाज है कुर्सी का मर्ज

एक मजेदार नसीहत कोरोना प्रोटोकॉल के साथ चुनावी प्रहसन खेलने की है। कहा जा रहा है कि मास्क लगाओ और वोट मांगने के काम पर लग जाओ। बुजुर्गों को घर से वोट देने की बात कही जा रही है। कार्यकर्ताओं से कहा जा रहा है कि भीड़ भी जुटाओ और सोशल डिस्टेसिंग भी रखो। क्योंकि चुनाव लड़ने और हर कीमत पर जीतने की ‍जिद ही कोरोना की सबसे प्रभावी वैक्सीन है। कहीं कुछ नहीं होने वाला। जिनका होने वाला है, उनकी हैसियत महज एक वोट से ज्यादा नहीं है। इसलिए हे कार्यकर्ता तू किसी झांसे या चेतावनी में न आ। चल उठ पार्टी का झंडा थाम। झोला टांग और प्रचार पर ‍निकल। भीड़ जुटेगी तो अपनी भी हिम्मत खुलेगी। राजनीतिक चिकित्साशास्त्र में भीड़ सियासी रक्तचाप का स्फिग्मोमैनोमीटर है और भीड का उमड़ना नेता की लोकप्रियता का थर्मामीटर। सो, लोगों से जयकारा लगवा, नए सब्ज बाग दिखा। खुद भी जमकर नारेबाजी कर। हमारे लिए कोरोना की घातकता से ज्यादा अहमियत वोटों की प्रतिशतता की है। सत्ता मिलेगी तो अपने दुख दूर होंगे। कुर्सी बचेगी तो लोकतंत्र ( जहां जितना भी बाकी है) भी बचा रहेगा। कोरोना का वेरिएंट तो हर तीन चार महीने में बदल जाता है, लेकिन यहां तो सवाल पूरे पांच साल का है। इस वेरिएंट के आगे ‘वो’ वेरिएंट कुछ भी नहीं है। इसलिए डर मत। ईश्वर की तरह कोरोना भी तेरे दुस्साहस की परीक्षा लेगा ही। सत्तारोहण की तैयारी कर। ध्यान रख कुर्सी का मर्ज लाइलाज है, कोरोना इसके आगे कुछ नहीं। वैसे भी कल से नया साल शुरू हो रहा है। 

(लेखक राइट क्लिक में वरिष्ठ संपादक हैं)


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