गुरु गोविंद सिंह के साहिबजादों को दी गई क्रूर यातनाओं और बलिदान का स्मृति दिवस

गुरु गोविंद सिंह के चारों पुत्रों का बलिदान भारतीय इतिहास का गौरव है। 26 दिसंबर को वीर बाल दिवस के रूप में उनकी शौर्य गाथा याद की जाती है। आज साहिबजादों के बलिदान और उन्हें दी गई क्रूर यातनाओं की याद करते हैं।

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Vikram Jain
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26 दिसंबर: गुरु गोविंद सिंह के साहसी पुत्रों की शहादत का दिन Photograph: (BHOPAL)

दिसंबर माह का आखिरी सप्ताह भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण और भावुक समय है, क्योंकि इस दौरान गुरु गोविंद सिंह जी के चारों पुत्रों को दी गई क्रूरतम यातनाओं और उनके वीरतापूर्ण बलिदान की स्मृतियां हैं। 21 दिसंबर से लेकर 27 दिसंबर तक यह समय उन अत्यंत कष्टदायक घटनाओं को याद करने का है। ऐसा उदाहरण विश्व के किसी इतिहास में नहीं मिलता। इनमें 26 दिसंबर के दिन दो अबोध बालकों ने स्वत्व और राष्ट्र संस्कृति की रक्षा के लिए बलिदान दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत वर्ष इस दिन को "वीर बाल दिवस" के रूप में मनाने का आह्वान किया था। ताकि गुरु गोविंद सिंह के पुत्रों के बलिदान और उनकी वीरता को सम्मानित किया जा सके। 

वीर पुत्रों की युगों तक याद रहने वाली वीरता

सनातन संस्कृति, राष्ट्र और परंपराओं की रक्षा के लिए भारत में असंख्य बलिदान हुए हैं। इनमें कुछ परिवारों की तो पीढ़ियों का बलिदान हुआ। इसमें गुरु गोविंद सिंह की वंश परंपरा भी है जिनकी पीढ़ियों का बलिदान इतिहास पन्नों में दर्ज है। दिसंबर के अंतिम सप्ताह गुरु गोविंद सिंह के चारों पुत्रों को दी गई क्रूरतम यातनाएं और उनका बलिदान का विवरण आज भी रोंगटे खड़े कर देता है। इस बलिदान का स्मरण सामाजिक स्तर पर पूरा देश 21 दिसंबर से 27 दिसंबर के बीच करता है। गत वर्ष पहली बार केंद्र सरकार के स्तर पर आयोजन की घोषणा की गई थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 26 दिसंबर को वीर बाल दिवस के रूप में मनाने का आह्वान किया था। 

गुरु गोविंद सिंह के पुत्रों का बलिदान और चमकौर का युद्ध

सिख परंपरा में गुरु गोविंद सिंह दसवें गुरू थे। उनके पुत्रों का बलिदान ईस्वी सन 1705 में हुआ था। इनमें दो सबसे छोटे पुत्रों साहिबजादा जोरावर सिंह और साहिबजादा फतेह सिंह का बलिदान 26 दिसंबर को बहुत छोटी सी आयु में हुआ था। यह सिख पंथ के गरिमामयी गौरव परंपरा और राष्ट्र संस्कृति की रक्षा के लिए दी गई प्राणों की आहूति थी। उनके दो पुत्रों ने युद्ध भूमि में वीरता और अनोखे साहस का परिचय दिया, वहीं दो छोटे साहिबजादों ने जिंदा दीवार में दफन होना पसंद किया पर धर्मांतरण नहीं किया। उनके सबसे बड़े पुत्र की आयु सत्रह साल और सबसे छोटे पुत्र की आयु मात्र पांच साल थी। इनके साथ इनकी दादी माता गूजरी का बलिदान भी क्रूरतम यातनाओं के साथ हुआ। 

मुगल साम्राज्य और सिखों का संघर्ष

वह समय भारत में मुगल बादशाह औरंगजेब के शासन का अंतिम समय था। उसने सिख पंथ को जड़ से समाप्त करने का संकल्प कर लिया था। मुगल फौज पंजाब में फौज सिखों  की तलाश में लगी थी। सिखों को ढूंढ-ढूंढ कर यातनाएं दी जाने लगी। मतांतरण का दबाब बनाया, जो न मानें उनका बलिदान। उन दिनों सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह आनंदपुर किले में थे। मुगलों की फौज ने इस किले का घेरा डाला हुआ था। यह घेरा करीब छह माह तक पड़ा रहा। 

सिख पंथ की रक्षा का अद्वितीय उदाहरण

एक समय ऐसा आया जब किले का राशन पानी सब खत्म हो गया था। गुरू गोविंद सिंह के सामने दो ही रास्ते थे, एक अंतिम युद्ध लड़कर बलिदान हो जाए दूसरा सुरक्षित निकलकर युद्ध जारी रखा जाए। गुरु गोविंद सिंह ने दूसरा मार्ग चुना। वे आनंदपुर से निकलकर चमकौर की ओर पहुंचे। यहां एक पुराना किला था वहां के निवासी सिख गुरु के प्रति श्रद्धा रखते थे। गुरु गोविंद सिंह ने अपने परिवार और विश्वस्त सैनिकों के साथ यहीं आए। वे 21 दिसंबर 1705 की रात थी,  जब वे चमकौर पहुंचे। गुरु गोविंद सिंह जी आनंदपुर से निकलने की खबर मुगल सेना को लग गई थी। मुगल फौज की एक टुकड़ी भी इस काफिले के पीछे चलने लगी।

सवा लाख से एक लड़ांऊ.... 

मुगलों की फौज का नेतृत्व सरहिंद के नवाब वजीर खां के हाथ में था। जब गुरु गोविंद सिंह चमकौर किले में पहुंचे तो मुगल फौज ने चमकौर किले पर घेरा डाल लिया। चमकौर की यह इमारत पुरानी थी। वह इस स्थिति में नहीं थी कि लंबे समय तक सुरक्षित रह सके। कुछ दीवारें तो केवल मिट्टी की थीं। इतिहास की पुस्तकों में मुगल फौज की संख्या तीन लाख अंकित है। जबकि किले के भीतर सिखों की संख्या मात्र दो हजार थी, जिसमें सामान्य नागरिक और स्त्री बच्चे अधिक थे, सैनिक कम थे। सैनिकों की संख्या तो मात्र कुछ सैकड़ा ही थी । लेकिन सिख सेनानियों ने संख्या बल कम होने की चिंता नहीं की। सभी सिख सैनिकों ने साहस से मुकाबला किया। यहीं से यह कहावत प्रसिद्ध हुई कि "सवा लाख से एक लड़ांऊ"। यहां दो निर्णय हुए जत्थों के साथ युद्ध किया जाए और गुरुजी यानी गुरु गोविंद सिंह को सुरक्षित निकाला जाए। 

गुरु गोविंद सिंह के साहसी पुत्रों ने लड़ा युद्ध

जत्था तैयार करके युद्ध लड़ने की रणनीति बनी। और प्रत्येक जत्थें में केवल दस ही सैनिक होंगे। पहले जत्थे का नेतृत्व साहबजादे अजीत सिंह को सौंपा गया। हालांकि अन्य सैनिकों ने साहबजादे को रोका पर अजीतसिंह न माने। गुरु गोविंद सिंह ने अपने बेटे को स्वयं हथियार दिए। साहबजादे निकले और शत्रु सेना पर टूट पड़े। वे बहुत अच्छे तीरंदाज थे। उनके पास तीर कमान और तलवार दोनों थी। दूसरी ओर मुगल सैनिकों के पास बंदूकें भी थीं। सभी सिख सैनिक जानते थे कि युद्ध का परिणाम क्या होगा पर भी उन्होंने युद्ध किया और अपने अंतिम तीर तक युद्ध किया। तलवार से भी तब तक युद्ध किया जब तक तलवार टूट न गई। कोई इस वीरता की कल्पना कर सकता है कि केवल दस सैनिकों को लेकर एक नायक ने युद्ध लड़ा हो फिर भी यह युद्ध दिन के तीसरे पहर तक चला।

युद्ध में साहसी साहबजादों की शहादत

यह 23 दिसंबर का दिन था जब साहबजादे अजीत सिंह का बलिदान हुआ। अगले दिन का युद्ध दूसरे साहबजादे फतेह सिंह के नेतृत्व में सिख जत्थे ने लड़ा। तब फतेह सिंह की आयु मात्र 15 साल थी। वे भी वीरता पूर्वक बलिदान हुए। तब पंच प्यारों ने गुरूजी से सुरक्षित निकल जाने का आग्रह किया। उनका आग्रह मानकर गुरु गोविंद सिंह अपने परिवार और कुछ सैनिकों के साथ किले के गुप्त मार्ग से निकलना स्वीकार कर लिया। यह संख्या कुल 51 थी। कहीं कहीं यह संख्या साठ भी लिखी है। बाकी लोगों ने किले में ही रहकर मुकाबला करने का निर्णय लिया ताकि मुगल सैनिकों को यह संदेह न हो कि गुरुजी निकल गए। 

गुरु गोविंद सिंह के छोटे साहिबजादों की दुखद कहानी

चमकौर के पास सरसा नदी बहती थी। यह 24 और 25 दिसंबर 1705 की दरम्यानी रात थी। भयानक ठंड और मावट का मौसम। पानी बर्फ की तरह ठंडा था। अभी गुरू गोविंद सिंह का काफिला नदी पार भी न कर पाया था कि वजीर खान को खबर लग गई। उसकी सेना नदी पर टूट पड़ी। इस दौरान मची अफरा तफरी में गुरु गोविंद सिंह का परिवार बिखर गया। 

चमकौर युद्ध का दर्दनाक पल

सबसे छोटे दो साहबजादे जोरावर सिंह (7 साल) और जुझार सिंह (5 साल) दादी माता गुजरी के साथ बिछुड़ गए, इनके साथ न कोई सेवक और न कोई सैनिक। अंधेरी रात और भीषण सर्दी के बीच दादी दोनों बच्चों ने नदी पार की। दादी अंधेरे में ही दोनों बच्चों को लेकर जहां राह मिली उसी ओर चल दी। कितना चलीं कितनी राह निकली कुछ पता नहीं।

सेवक गंगू ने किया बड़ा धोखा...

सबेरा हुआ और सूरज निकला। एक स्थान पर थकान मिटाने रुकीं, बच्चों को भोजन भी जुटाना था। तभी एक व्यक्ति दिखा। जिसका नाम गंगू था। वह गुरू गोविंद सिंह का पुराना सेवक था। उसने माता गुजरी को पहचाना और विश्वास दिलाकर अपने घर ले गया। उसके गांव का नाम खैहैड़ी था। उसने भोजन दिया विश्राम कराया। और घर से निकल लिया। यह 25 दिसंबर का दिन था। उसने खबर वजीर खान को दी और इनाम में सोने की मुहर प्राप्त की। शाम तक मुगल सैनिक आ धमके। माता गुजरी और दोनों बच्चो को पकड़ ले गए। उन्हें रात भर बिना कपड़ों के बुर्ज की दीवार पर बांधकर रखा गया। अगले दिन वजीर खान के सामने पेश किया गया। वह 26 दिसंबर 1704 का दिन था।

वीर जोरावर सिंह और जुझार सिंह का बलिदान

वजीर खान ने माता गुजरी और दोनों बच्चों से इस्लाम कबूल करने को कहा। बच्चों ने इस्लाम अपनाने से साफ इनकार कर दिया। वजीर खान ने आदेश दिया कि यदि बच्चे इस्लाम कुबूल न करें तो इन्हे जिंदा दीवार में चुन दिया जाए। बच्चों को भूखा रखा गया। रात भर फिर बुर्ज पर पटका। लेकिन दोनों साहबजादे अडिग रहे। उन्हें 27 दिसंबर को जिंदा दीवार में चुनवा दिया गया। और माता गुजरी के प्राण भी भीषण यातनाएं देकर लिए गए। इस तरह दिसंबर का यह अंतिम सप्ताह गुरु गोविंद सिंह के चारों साहबजादों और माता गुजरी के बलिदान की स्मृति के दिन हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 26 दिसंबर वीर बाल दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। और पिछले साल से 26 दिसंबर को वीर बाल दिवस के रुप में मनाया जाता है।

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