हिंदू-मुस्लिम मुद्दों पर राजनीति के लिए जिम्मेदार कौन, जनता नहीं चाहती झगड़े

author-image
The Sootr CG
एडिट
New Update
हिंदू-मुस्लिम मुद्दों पर राजनीति के लिए जिम्मेदार कौन, जनता नहीं चाहती झगड़े

आलोक मेहता. कांग्रेस और कुछ अन्य राजनीतिक पार्टियां इन दिनों कुछ राज्यों और मीडिया में मुस्लिम-हिन्दू के धार्मिक अथवा पारम्परिक मुद्दों के उठने पर चिंता व्यक्त करते हुए आरोप लगाते हैं कि केंद्र में भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद यह प्रवृत्ति बढ़ी है। छोटी-छोटी बातों को लेकर सड़कों पर हंगामा होने लगा। अधिक तनाव और हिंसा होने पर सरकारें, पुलिस, प्रशासन के साथ राजनीतिक नेता या रातोंरात स्व घोषित धार्मिक नेता परस्पर आरोप लगाकर वातावरण को विषाक्त बना देते हैं। वास्तव में सामान्य जनता को अपनी धार्मिक भावना से लगाव है, लेकिन वह किसी तरह के सामाजिक तनाव और झगड़ों को नहीं देखना चाहती है। एक समय था, जब किसी बड़े शहर, कस्बे या गांव में कोई साम्प्रदायिक तनाव या हिंसा होती थी, तो देर सबेर जागरुक सामाजिक संस्थाएं और विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता सामूहिक रूप से प्रभावित क्षेत्र और मोहल्लों में जाकर शांति स्थापना के प्रयास करते थे। महत्वपूर्ण अवसरों पर सही अर्थों में धार्मिक नेता प्रतिष्ठित शंकराचार्य, महामंडलेश्वर, इमाम - मौलाना, पादरी भी अपील जारी कर देते थे। अब आधुनिक मीडिया संसाधनों और सोशल मीडिया के कारण अधिकृत से अधिक अनजाने से नेता और कथित धार्मिक ठेकेदार दिन रात सही-गलत प्रचार और विवाद पैदा करते हैं।



अपने विवादित लोगों पर नियंत्रण नहीं कर पातीं पार्टियां



केंद्र या राज्यों में भाजपा की सरकार हो या कांग्रेस अथवा किसी अन्य दल की, वे अपने या पराए कहे जाने वाले विवादास्पद लोगों पर नियंत्रण नहीं कर पातीं। घटनाएं किसी भी प्रदेश में हों, बदनाम केंद्र को किया जाता है।  कुछ राज्यों तक सीमित रह जाने के बावजूद कांग्रेस को आज भी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी माना जाता है। इसलिए राहुल गाँधी और अन्य कांग्रेसी नेता अधिक मुखर होकर मुस्लिम-हिन्दू मुद्दों के विवादों पर समाज को बांटने के लिए भाजपा पर निरंतर आरोप लगाते हैं। कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों की दुहाई देती है। राहुल गांधी की नई टीम को भले ही पिछले दशकों की घटनाओं और उनके अपने नेताओं द्वारा की गई गति​विधियों की जानकारी नहीं होगी और बहुत सी बातें उनके गूगल खोज से नहीं मिलेंगी, लेकिन पुराने दिग्गज नेता और पत्रकारों के पास तो उनका रिकार्ड मिल सकता है।



तब एकजुट हो गए थे कांग्रेस के मुस्लिम सांसद



आजादी के बाद कांग्रेस में ही रहे विभिन्न कट्टरपंथी नेताओं या हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग की बात तो अधिक पुरानी है, लेकिन 1981 के बाद के इंदिरा युग में बने खेमों को वर्तमान समस्याओं की जड़ें कहना होगा। इस सन्दर्भ में मुझे कांग्रेस नेताओं द्वारा ही मुस्लिम और हिन्दुओं के दो बड़े मोर्चे बनाए जाने की गतिविधियों को याद दिलाना आवश्यक लगता है। तब मैं देश के प्रमुख समाचार संस्थान में राजनीतिक संवाददाता था और विभिन्न दलों के नेताओं से भी बराबर संपर्क रखना होता था। बात सितम्बर-अक्टूबर 1982 की है। पहले इंदिरा कांग्रेस कार्यसमिति ने एक प्रस्ताव पारित कर सांप्रदायिक गतिविधियों के विरुद्ध संघर्ष का आव्हान किया। प्रस्ताव में पार्टी के सदस्यों से कहा गया कि वे सांप्रदायिक सद्भाव बनाने के लिए हर संभव प्रयास करें और सरकार भी समाज - राष्ट्र विरोधी साम्प्रदायिक तत्वों के विरुद्ध कठोर से कठोर कार्रवाई करे। इसके केवल दो सप्ताह बाद अक्टूबर में कांग्रेस के ही वरिष्ठ संसद सदस्य असद मदनी ने अपने निवास पर कांग्रेस सहित विभिन्न दलों के मुस्लिम सांसदों की बैठक बुलाई। इस बैठक में इंदिरा गांधी सरकार के चार मुस्लिम मंत्री भी शामिल हुए। ये मंत्री थे - जेड ए अंसारी, जाफर शरीफ, ए रहीम और आरिफ मोहम्मद खान। करीब पचास सांसदों ने असद मदनी की दावत स्वीकार की थी। इस बैठक में मुस्लिम सांसदों ने यह निर्णय लिया कि देश का मुस्लिम समाज इस समय गंभीर संकट से गुजर रहा है और मुस्लिम सांसदों को मिलकर इस स्थिति से निपटना होगा।



समय-समय पर गर्माती रही है मुस्लिम राजनीति



उस समय संसद में मुस्लिम सांसदों की संख्या लगभग 65 थी, जिनमें से 42 लोक सभा और 23 राज्य सभा के सदस्य थे। दलीय दृष्टि से इंदिरा कांग्रेस के 41, लोकदल के 6, नेशनल कांफ्रेस के 5, मुस्लिम लीग के 3, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के 5, जनता पार्टी, अन्ना द्रमुक, कांग्रेस (एंटनी) और जनवादी पार्टी के एक - एक सांसद थे। यों तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट सांसद इस बैठक में नहीं थे, लेकिन पश्चिम बंगाल के वाम मोर्चे के प्रतिनिधि विधान सभा के उपाध्यक्ष कलीमुद्दीन सेम्स शामिल हुए। इस मुस्लिम मोर्चे ने पुलिस प्रशासन में हिन्दुओं के वर्चस्व, मेरठ के दंगों में मरने वालों में मुस्लिमों की अधिक संख्या पर रोष के साथ सरकार पर दबाव बनाने का फैसला किया। कुछ सांसदों ने तो संसद के अगले सत्र के बहिष्कार का आग्रह तक किया। इस बैठक का अगला दौर जनता पार्टी के सांसद सैयद शहाबुद्दीन के निवास पर हुआ। बाद में 45 सांसदों के हस्ताक्षर वाला ज्ञापन भी प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को दिया गया। इस तथ्य से यह समझा जा सकता है कि इंदिरा युग में भी मुस्लिम राजनीति गर्माती रही और उनके ही सांसद प्रमुख भूमिका निभाकर हिन्दुओं और संगठनों के विरुद्ध सक्रिय अभियान चला रहे थे।



जब कांग्रेस नेताओं ने ही कराया हिंदू संगठनों का सम्मेलन



इससे भी अधिक दिलचस्प तथ्य यह है कि कांग्रेस के ही कुछ अन्य नेताओं ने अगले महीने 7 नवम्बर को हिन्दू संगठनों और नेताओं का एक बड़ा सम्मलेन आयोजित करा दिया। यह सम्मेलन पटना में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डॉ. कर्ण सिंह, शंकर दयाल सिंह, कृष्ण बहादुर, विधायक तारा गुप्ता और रणजीत बहादुर सिंह की भूमिका प्रमुख थी। इस सम्मेलन में पुराने कांग्रेसी और फिर लोकदल के वरिष्ठ नेता श्याम नंदन मिश्रा, कांग्रेस (स) के फणीन्द्र नाथ त्रिपाठी और जनता पार्टी के नेता शामिल हुए। कांग्रेस भले ही उस समय भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का विरोध करती थी, लेकिन कांग्रेसी नेताओं के वर्चस्व वाले इस सम्मेलन में संघ के बौद्धिक प्रमुख के सी सुदर्शन ( बाद में सरसंघचालक ) भी अन्य हिन्दू संगठनों के साथ शामिल हुए। इसे विराट हिन्दू सम्मलेन कहा गया था। पटना के गांधी मैदान में यह सचमुच विशाल आयोजन था। मैं स्वयं रिपोर्टिंग के लिए जिस विमान से गया, डॉ. कर्ण सिंह और अन्य कांग्रेसी नेता भी उसी से पहुंचे थे। सर्वाधिक आक्रामक भाषण डॉ. कर्ण सिंह का था। सम्मेलन में हिन्दुओं के हितों पर खतरे, उनकी रक्षा, धर्म परिवर्तन की गतिविधियों के विरोध और प्रस्ताव पारित हुए। सम्मेलन की विशालता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इस आयोजन के लिए 15000 परिवारों से भोजन के एक लाख पैकेट लाए और बांटे गए।



गलत धारणा... वर्तमान दौर सबसे खराब



इस तरह मुस्लिम हिन्दू राजनीति का सिलसिला बढ़ता गया | इधर पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद सिर उठाने लगा। यह भी एक तथ्य है कि अकाली और अन्य दलों से निपटने के लिए कांग्रेस के ही कुछ नेताओं ने भिंडरावाले को आगे बढ़ाया था। बाद में उसे पाकिस्तान से समर्थन मिलने लगा। स्वर्ण मंदिर में उसका अड्डा बनने पर सैनिक कार्रवाई हुई और फिर श्रीमती गांधी की हत्या हुई। दो वर्ष बाद राजीव गांधी की भारी बहुमत वाली सरकार ने अरुण नेहरू की सलाह पर अयोध्या में मंदिर के दरवाजे खुलवाकर हिन्दुओं को प्रसन्न करने, शाह बानो मामले में मुस्लिम नेताओं को खुश करने का प्रयास किया। वीपी सिंह और नरसिंह राव के सत्ता काल में अयोध्या विवाद चरम पर पहुंचा और विवादास्पद ढांचा ही गिरा दिया गया। इसके बाद दंगे और सामाजिक विभाजन तथा पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद बढ़ने लगा। इसलिए यह धारणा एक हद तक गलत है कि वर्तमान दौर ही सर्वाधिक ख़राब और हिन्दू मुस्लिम राजनीति से प्रभावित है। उम्मीद ही नहीं अपेक्षा भी रहना चाहिए कि जिम्मेदार राजनेता और मीडिया भी अनावश्यक सांप्रदायिक मुद्दों को हवा न दे।



( लेखक आई टीवी नेटवर्क इंडिया न्यूज और दैनिक आज समाज के संपादकीय निदेशक हैं )


CONGRESS कांग्रेस BJP बीजेपी vichar manthan विचार मंथन आलोक मेहता Muslim Hindu हिंदू Alok Mehta Hindu-Muslim issues issue हिंदू-मुस्लिम मुद्दे