राजनीति की खींचतान में ओबीसी आरक्षण की भैंस गई पानी में..!

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The Sootr CG
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राजनीति की खींचतान में ओबीसी आरक्षण की भैंस गई पानी में..!

सरयूसुत मिश्र. मुंह की खाने वाले के लिए एक प्रसिद्ध कहावत है “चौबे जी गए थे छब्बे जी बनने और दुबे जी बनकर लौटे” मध्यप्रदेश में ओबीसी आरक्षण की राजनीति पर, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश ने घड़ों पानी फेर दिया है। मध्य प्रदेश का तो यही हाल हुआ कि “खुद भी डूबे और देश के बाकी राज्यों में भी ओबीसी आरक्षण की लुटिया डुबा दी” अब पूरे देश में स्थानीय निकायों में ओबीसी आरक्षण की बात अभी तो दूर की कौड़ी हो गई है।



राजनीति का सबसे बड़ा मुद्दा OBC आरक्षण



जब तक राज्य सरकारें आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक मापदंडों का ट्रिपल टेस्ट पूरा नहीं करेंगी, तब तक ओबीसी आरक्षण की बात बेमानी होगी। प्रदेश में पिछले तीन-चार सालों से ओबीसी आरक्षण का मुद्दा राजनीति का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया था। बीजेपी या कांग्रेस में इसका श्रेय लेने की होड़ मची हुई थी। अब एक-दूसरे पर ठीकरा फोड़ने की दौड़ लग गई है। दलों की राजनीतिक खींचातानी में ओबीसी आरक्षण की भैंस पानी में चली गई गई है।



ट्रिपल टेस्ट के मापदंडों का आधार



सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रिपल टेस्ट के मापदंडों का जो आधार बनाया है, वह आरक्षण की राजनीति को नई दिशा में मोड़ सकता है। ट्रिपल टेस्ट का मापदंड सभी तरह के आरक्षण को भविष्य में प्रभावित कर सकता है। एक बार एक वर्ग के लिए आधार तय हो गया तो आरक्षण के लाभार्थी दूसरे समुदायों पर भी इस मापदंड को लागू किया जा सकता है। सरकारी नौकरियों में मिल रहा ओबीसी आरक्षण भी इससे प्रभावित हो सकता है। ट्रिपल टेस्ट के निष्कर्ष सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए भी मापदंड बन सकते हैं। इन वर्गों को नौकरियों में 14 प्रतिशत आरक्षण मिल रहा है। इसे बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने की कोशिशें भी खटाई में पड़ सकती हैं।



आरक्षण के मामले में सामने आएगी नई दिशा



एक तकनीकी प्रश्न ये खड़ा होता है कि जब ओबीसी आरक्षण में नौकरियों के लिए क्रीमीलेयर की व्यवस्था है, तब पूरी ओबीसी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण देना क्या गलत नहीं होगा ? इस वर्ग में क्रीमीलेयर की सीमा के अंतर्गत आने वाली जनसंख्या के अनुपात में ही आरक्षण देना क्या न्याय संगत नहीं लगता है ? ओबीसी की जो जनसंख्या, रिजर्वेशन की परिधि से बाहर है वह आरक्षण के संदर्भ में गणना के लिए कैसे स्वीकार की जा सकती है ?। जब भी सरकारें ट्रिपल टेस्ट के मापदंडों को पूरा कर विस्तृत आंकड़े न्यायालय के सामने रखेंगे तब आरक्षण के मामले में एक नई दिशा और दृष्टिकोण सामने आ सकता है।



'राजनीति ही सब माया, राजनीति ने सबको नचाया'



प्रजातंत्र में “राजनीति की ही सब माया है, राजनीति से किसी ने सुख नहीं पाया है, राजनीति ने सबको नचाया है। अब ओबीसी का नंबर आया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा राजनीतिक दलों को स्थानीय निकायों में ओबीसी के लोगों को अधिक टिकट देने का रास्ता दिखाया गया है। इसके बाद मध्यप्रदेश के दोनों दल कांग्रेस और बीजेपी यह ऐलान कर रहे हैं कि इन चुनावों में 27 प्रतिशत प्रत्याशी इसी वर्ग से उतारे जाएंगे। राजनीति का दोगलापन देखिए कि सर्वोच्च न्यायालय से 35 प्रतिशत आरक्षण की मांग की जा रही थी और जब राजनीतिक प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने की बात आई तब 27 परसेंट पर ही रुक गई। राजनीतिक दलों को भी चुनाव में टिकट देने की प्रक्रिया में भारी मशक्कत करनी पड़ेगी। किस क्षेत्र में किस सीट पर किस वर्ग का प्रत्याशी उतारा जाए इसका विस्तृत अध्ययन और परिक्षण राजनीतिक दलों को भी करना होगा अन्यथा जातीय राजनीति के चक्कर में कहीं राजनीतिक नुकसान न हो जाए। ओबीसी रिजर्वेशन पर सर्वोच्च न्यायालय में रिव्यू पिटिशन दायर करने की भी बात सामने आ रही है। प्रदेश के मुख्यमंत्री ने निवेश के लिए आयोजित अपने विदेश दौरे भी निरस्त कर दिया है।



SC में रिव्यु की कोई संभावना नहीं



अदालत के निर्णय को समझने के बाद यह स्पष्ट रूप से लग रहा है कि किसी भी प्रकार की रिव्यू की कोई संभावना नहीं है। निर्णय अपने आप में परिपूर्ण और सभी संभावनाओं को देखते हुए तुरंत चुनाव के लिए दिया गया है। मध्य प्रदेश राज्य निर्वाचन आयोग चुनाव प्रक्रिया शुरू भी कर चुका है। कलेक्टरों को आदेश दिए जा चुके हैं। चुनाव सर्वोच्च अदालत के निर्देश के मुताबिक कराए जाएंगे। इसमें एक ही बाधा हो सकती है, वह मौसम और बारिश है। सामान्यतः वर्षा के मौसम में चुनाव कराने से बचा जाता है।



MP में OBC वर्ग की कई जातियां प्रभावशाली



मध्य प्रदेश में ओबीसी वर्ग की कई जातियां अत्यंत प्रभावशाली हैं। इन वर्गों की आरक्षण के प्रतिशत से अधिक स्थानीय निकायों में भागीदारी होती रही है। पंचायत और नगरीय निकायों के चुनाव में 14 प्रतिशत आरक्षण इन वर्गों को मिलता था, जो अब पूरी तरह खत्म हो गया है। वैसे इन वर्गों की भागीदारी पूर्व में आरक्षण से कहीं ज्यादा होती रही है। वर्ष 2009 के चुनाव में जिला पंचायतों के 34 प्रतिशत पद इन वर्गों के पास थे। जनपद अध्यक्ष में 32 प्रतिशत पद ओबीसी के पास थे। 2014 के चुनाव में जिला पंचायत अध्यक्ष के 55 परसेंट और जनपद अध्यक्ष के 45 प्रतिशत पदों पर ओबीसी का कब्जा था। कमोबेश ऐसी ही स्थिति महापौर, पालिका अध्यक्ष और परिषद अध्यक्ष के मामलों में भी रही है। इन वर्गों का समाज में प्रभुत्व इसी बात से प्रमाणित हो रहा है कि आरक्षित सीटों से अधिक सीटों पर इन वर्गों द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाता रहा है।



आज प्रलोभन की राजनीति हावी



जिस ओबीसी समाज को  स्थानीय संस्थाओं के पिछले दोनों चुनाव में आरक्षण से अधिक हिस्सेदारी मिली है उस वर्ग को आरक्षण के नाम पर केवल प्रलोभन दिया जा रहा था। आरक्षण नहीं भी होगा तब भी इन वर्गों का प्रतिशत स्थानीय संस्थाओं के चुनाव में कम नहीं होगा। लालच अगर पाप है तो प्रलोभन महापाप है। आज प्रलोभन की राजनीति ही हावी है। जिसमें पाने का लालच नहीं हो उसमें खोने का डर भी नहीं होता। अनुभवी लोग अक्सर बताते हैं, लालच करने वाले हमेशा पछताते हैं।



आरक्षित वर्ग को लाभ देने के लिए नए विचार की जरूरत



लगता ऐसा है कि राजनीति नहीं स्वार्थ के लिए ओबीसी समुदाय के आरक्षण की अवधारणा निर्मित की गई है। ओबीसी कोई अलग समुदाय नहीं था, सभी जातियां एससी, एसटी, हिंदू और मुस्लिम के बीच में विभाजित हैं। हिंदू जातियों को वोटों के लिए ओबीसी वर्ग में बांटा गया। इस वर्ग में बहुत सारी जातियां हैं। जिनमें “रोटी-बेटी” के संबंध नहीं होते। सामाजिक रूप से इन जातियों में बहुत अंतर है लेकिन राजनीति के लिए इसे एक वर्ग के रूप में पहचान दिलाई गई है। आरक्षित वर्गों एससी, एसटी, ओबीसी में यह बात तेजी से विचार में है कि इन समुदायों की कुछ खास जातियां ही आरक्षण का अधिकतम लाभ ले रही हैं, आरक्षित वर्गों की सभी जातियों को लाभ सुनिश्चित करने के लिए नए विचार की जरूरत है।



किसी भी इंसान को कुछ भी मिल जाए लेकिन संतोष नहीं होता। हर दिन कुछ पाने का संघर्ष चलता ही रहता है। किसी ने कहा है “मिल जाए तो खुशी, खो जाए तो गम” पद और धन जितना मिले उतना ही कम।


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