/sootr/media/post_banners/25f030f7f1d1f59c4ed58c17d3dffd15db20645c605ddb08738449006516bc3d.png)
(अनिल कर्मा) घूंघट प्रथा वाले देश की बेटियां टोक्यो ओलंपिक में कमाल कर रहीं हैं। यह बड़ा खुशनुमा बदलाव है। सदियों की तपस्या का सुफल। मगर इधर खेल को लेकर कुछ और सवाल खड़े हो रहे हैं। या कहना चाहिए खेल में हो रहे ‘खेल’ को लेकर। क्या खेल भी ‘फैशन’ होते जा रहे हैं? या ‘फैशनपरस्त?’ या फैशन जैसा ही बाजार खेलों में भी पसर रहा है? या बाजार का ही खेल चल रहा है? सवाल इसलिए क्योंकि खेलों में भी ‘आकर्षक उघाड़ेपन’ का दुराग्रह बढ़ता जा रहा है। बेशक सिर्फ महिलाओं के लिए। और खासतौर से अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में। इन मुकाबलों में महिला खिलाड़ियों की पोशाक आम तौर पर ऊंची, छोटी और तंग रखने के पीछे आखिर क्या तर्क है? और फिर उसकी अनिवार्यता? दबाव? जबकि पुरुष उसी खेल को अपनी सहूलियत की ड्रेस में खेल पाते हैं। क्या यह खेल मैदान पर भी ग्लैमरस दिखने का महिलाओं पर लादा गया अतिरिक्त दबाव नहीं है? क्या इसे सलवार या ट्राउजर में स्वीमिंग कराने की सोच का ‘अदर एक्सट्रीम’ नहीं माना जाना चाहिए? ताजा-ताजा दो घटनाओं ने इन सवालों को फिर हरा कर दिया है।
बिकिनी बॉटम नहीं पहना तो 11,500 रु.जुर्माना !
पहला मामला ‘यूरोपियन बीच हैंडबॉल चैंपियनशिप’ का। नॉर्वे की महिला बीच हैंडबॉल टीम पर प्रति खिलाड़ी 129.50 यूरो (करीब 11500 रुपए) के हिसाब से जुर्माना लगा दिया गया। कारण- उन्होंने बिकिनी बॉटम्स पहनने से इंकार कर दिया। उसकी बजाय निकर (शॉर्ट्स) पहना। इस चैंपियनशिप में महिला टीम के लिए ड्रेस कोड बिकनी है, जबकि पुरुष टीम के लिए ड्रेस कोड टाइट-फिटिंग टैंक टॉप और शॉर्ट्स है। दूसरा मामला टोक्यो ओलंपिक का। यहां जर्मनी की महिला जिमनास्टिक टीम ने छोटी पोशाक 'लियोटार्ड' को नकारने की हिम्मत जुटाई। इसकी जगह पूरा बदन ढँकने वाली 'यूनीटार्ड' पहनने का फ़ैसला किया। यानी टॉप उनकी बाहों और पेट को ढके था और लेगिंग उनकी एड़ियों तक। मंशा यह कि जिम्नास्टिक में महिलाओं के 'सेक्सुअलाइज़ेशन' के विरोध का इससे बेहतर तरीका नहीं हो सकता। साथ ही वे महिला खिलाड़ियों में अपनी पंसद और सुविधा के हिसाब से कपड़े पहनने की आज़ादी को आवाज देना चाहती हैं। शुक्र है, इस पर किसी जुर्माने की कोई खबर अभी तक नहीं है। साथ ही सोशल मीडिया पर महिला टीमों को उनके इस कदम के लिए काफी समर्थन मिल रहा है। लेकिन इन सबसे इस तरह की ड्रेस तय करने के पीछे की मानसिकता पर सवाल खत्म नहीं हो जाते।
पूरा समाज महिलाओं पर अपनी मर्जी थोपना चाहता है
यह पहली बार हो या नया हो, ऐसा भी नहीं है। 2011 में बैडमिंटन वर्ल्ड फेडरेशन ने महिला खिलाड़ियों को शॉर्ट्स के बजाय स्कर्ट पहनने का निर्देश दिया था। हालांकि विरोध के कारण उसे यह फ़ैसला वापस लेना पड़ा। यह सब बावजूद इस तथ्य के हुआ कि पिछले कुछ सालों में खेल प्रतियोगिताओं में यौन और शारीरिक शोषण के कई मामले सामने आए हैं। यानी बदस्तूर बार-बार, लगातार यह कोशिशें जारी हैं कि शुद्ध प्रतिभा वाले मैदानों में भी स्त्री को पूर्ण लावण्यता के साथ पेश किया जा सके। ताकि दर्शकों की रुचि बनी रहे, बढ़ती रहे। और इसके सहारे बाजार की सेहत भी। खेल तो जीवन का एक पक्ष हुआ, असल में पूरा समाज संपूर्ण परिवेश में महिलाओं पर अपनी मर्जी थोपना चाहता है। कभी पूरी तरह ढकने के नाम पर, तो कभी पूरी तरह उघाड़ने के इरादे से। गलत दोनों हैं। बराबर। पिछले दिनों अपने पति की अर्थी को जिंस-टीशर्ट में कंधा देने वाली मंदिरा बेदी को ट्रोल किया जाना इस हावी होने की प्रवृत्ति से अलग बिलकुल नहीं है। ठीक इसी तरह, सानिया मिर्ज़ा पर शुरुआती दौर में हुई पोशाक आधारित टिप्पणियां या फतवे भी इसी कड़ी की हरकतें रहीं हैं। दूसरी तरफ, राज कुंद्रा के एक के बाद एक सामने आ रहे कुत्सित कर्म इसी दूषित दिमाग का दूसरा सिरा थामे है।
यदि घूंघट प्रथा बुरी है तो उघाड़ने वाले लिबास भी उतने ही बुरे हैं !
लगता है ‘स्त्री स्वातंत्र्य ’अपनी मूल परिभाषा में ही गड़बड़ हो गया है। इसका अर्थ स्त्री को थोड़ी या अधिक छूट देना कतई नहीं है (अहसान मत कीजिए।) न ही सरेआम निर्वस्त्र किया जाना या होना इसके अर्थ को शोभता है। स्त्री के मन की उड़ान को खुला आसमान दिए बिना सारी ‘आधुनिकता’ और ‘खुले विचार’ बेमतलब हैं। बिना संपूर्ण वैचारिक औऱ आर्थिक आजादी के सब व्यर्थ। अगर घूंघट प्रथा बुरी है, तो उभार दिखाने वाले परिधान पहनाने के नियम भी उतने ही बुरे हैं। अगर दकियानुसी को परंपरा का मान नहीं मिलना चाहिए तो बेवजह के उघाड़ेपन को भी ‘ट्रेंडी’ का लिबास मत पहनाइए।
बाजार के लिए स्त्री लुभाने वाला उत्पाद क्यों ?
दरअसल फैशन हो, सिनेमा हो, थोथी आधुनिकता के हक में खड़े सामाजिक प्लेटफार्म हों या पैसा बरसाने वाले खेल आयोजन, जहां भी बाजार घुसा है, वहां स्त्री प्रकारांतर में ‘लुभाने वाले उत्पाद’ में तब्दील होती जा रही है। चाहे, अनचाहे। उस पर ठसक ये कि बरसों से दबी नारी शक्ति को न्याय दे रहे हैं, आगे बढ़ा रहे हैं, बंधनों से मुक्ति दे रहे हैं। यह पूरा सोच-शास्त्र जर्मन लेखक फ़्रेंज़ काफ़्का की कहानी की उस बिल्ली की सलाह की तरह है,जो वह चूहे को देती है-तुम अपने दर में घुसे हुए हो।मैं आज़ादी दिलवाऊंगी , तुम मेरे पास आओ।आधी दुनिया के सामने मुश्किल यह है कि दर से निकलना भी है और बिल्ली के झांसे से बचना भी है। हल इन दोनों के बीच ही कहीं छुपा है। बेशक इसे खोजना बहुत मुश्किल है। मगर कोई भी खोज आसान कहां होती है। आप क्या सोचते हैं?(लेखक प्रजातंत्र अखबार के संपादक हैं।)
/sootr/media/agency_attachments/dJb27ZM6lvzNPboAXq48.png)
Follow Us