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एक अघटित को इतिहास बनाने का छल: जिस देश के इतिहास की किताब का पहला अध्याय यह कहता हो कि जिस देश में आप रहते हैं, वह देश आपका नहीं है तो उस किताब के बारे में आपकी क्या राय बनेगी? भारत के इतिहास की किताबों का यही हाल है। भारत का जो इतिहास हम इस देश के बच्चों और नौजवानों को स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ा रहे हैं, उस इतिहास का पहला अध्याय यह कहता है कि भारत में रहने वाले लोग आर्य हैं, जो भारत में बाहर से आए, और यहाँ आकर उन्होंने द्रविड़ों को, जो यहाँ के मूलनिवासी थे, मार भगाया और खुद उनके इलाकों पर काबिज हो गए।
हम बाहर से आए हैं, यह लिखना ऐतिहासिक छल
हम लोग आर्य हैं या नहीं, यानी आर्य कोई जाति थी या नहीं, इस पर चर्चा फिर कभी। कथित आर्यों और कथित द्रविड़ों में कोई संघर्ष हुआ या नहीं हुआ, इस पर भी किसी अगली लिखावट का हमें इंतजार करना होगा। पर हम जो भी हैं, इस देश के नहीं हैं, यह देश हमारा देश नहीं है, हम कहीं बाहर से आए और इस देश पर काबिज हो गए, इस सारे तामझाम के बारे में, जिसे हम छल कहना चाहते हैं, क्या राय बनती है? थोड़ा छानबीन कर ली जाए।
भारतीय शैली में जन का महत्व, पश्चिम में रिकार्ड का!
इतिहास लिखने की दो शैलियां हैं। एक भारत की शैली है जिसमें उन सब चीजों और घटनाओं का कथात्मक और गाथात्मक विवरण दिया जाता है जो हमारी जातीय स्मृतियों में अंकित हैं, वहाँ अपनी जगह कहीं गहरे तक बना चुकी हैं। पुराण आदि इस शैली में लिखे गए इतिहास ग्रन्थ हैं। एक शैली पश्चिम की है जिसमें तथ्यों और घटनाओं का सिलसिलेवार विवरण दिया जाता है और उस सिलसिले में अगर कहीं कोई छिद्र हो तो उसे भरने की जी तोड़ कोशिश की जाती है जिसे अनुसंधान कहा जाता है। इसलिए भारतीय शैली में जहां उस जन का महत्व है जिसने पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी जातीय स्मृतियों को आगे-आगे के लिए संजोया है, उसे जिया है और उसे अनुभव किया है, वहाँ पश्चिमी शैली में साहित्य, शिलालेखों, खुदाइयों ताम्रपात्र जैसे राजकीय रिकार्डों का महत्व होता है, जहां घटनाएं लिखी पड़ी होती हैं। वही स्मृति इतिहास का दर्जा पा सकती है जो काल के दुर्निवार घेरे को लांघकर जन-जन में व्याप्त हो, जन-जन को ज्ञात हो, वहाँ पश्चिमी शैली में इतिहास वह है जो पत्थर या किताब में दर्ज है। परिणाम क्या है? जहां भारतीय शैली में पलापुसा हर भारतवासी इतिहास को हर वक्त अपने हृदय में रखता है उसके साथ जीता है, मरता है, वहाँ पश्चिमी शैली में पले-पुसे को इतिहास पढ़ने के लिए किताब खरीदनी पड़ती है, या फिर उसे पुस्तकालय जाना पड़ता है।
हम बाहर से आए...ये हमारी स्मृति में कहीं नहीं है
शैली कौन-सी बेहतर है, यह बताना हमारा उद्देश्य यहाँ नहीं है। पर यह देश हमारा नहीं, हम कहीं बाहर से आए, यह तथाकथित इतिहास, जो छलपूर्वक हमें परोसा गया है, किस शैली के आधार पर इतिहास साबित होता है? पहले भारतीय शैली की बात करें। हमारी स्मृति में मनु तो हैं, जिन्होंने मानव जाति को मानव बनाया, हमारी स्मृति में प्रलय भी है, जिसमें से मनु ने हमारी जाति को उबारा, हमारी स्मृति में पृथु भी हैं, जिनके नाम पर इस धरती का नाम पृथ्वी पड़ा. हमारी स्मृति में प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत भी हैं, जिनके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। हमारे जहन में इतनी सारी प्राचीनतम स्मृतियाँ हैं, पर हम किसी और देश से, बाहर से अपने देश भारतवर्ष में आए, यह हमारी स्मृति में कहीं नहीं है।
हमारी स्मृति में देव से किन्नर तक सब हैं लेकिन आर्य नहीं
हमारी स्मृति में देव भी हैं, हमारी स्मृति में असुर भी हैं, हमारी स्मृति में देवासुर संग्राम भी हैं, हमारी स्मृति में यक्ष भी हैं, किन्नर भी हैं और गंधर्व भी हैं। पर हमारी स्मृति में वे आर्य नहीं हैं, जिन्हें कहीं बाहर से यहाँ आक्रमणकारी के रूप में आए बताया जा रहा है। हमारी स्मृति में श्रेष्ठ के अर्थ में आर्य शब्द है, दुराचारी के अर्थ में अनार्य शब्द भी है, हमारी स्मृति में पति अर्थ देने वाला आर्यपुत्र शब्द भी है। पर जातिवाची, नस्लवाची वह आर्य शब्द हमारी स्मृति में कहीं है नहीं, जिस तरह के आर्य हमारे पूर्वज और कहीं बाहर से आए बताए जा रहे हैं। वेद हों या ब्राह्मण ग्रन्थ हों, आरण्यक ग्रन्थ हों या उपनिषदें हों, रामायण और महाभारत जैसे प्रबंधकाव्य हों या अठारह पुराण और अठारह उपपुराण हों, तमाम वैज्ञानिक साहित्य हो, समाज शास्त्रीय ग्रन्थ हों या ललित साहित्य हो-संस्कृत के ऐसे किसी भी ग्रन्थ में कोई एक परोक्ष, प्रत्यक्ष की तो बात ही क्या है, सन्दर्भ तक ऐसा नहीं, जो हमारे बारे में कहता हो कि हम बाहर से आए।
प्रमाणों में भी कोई उल्लेख नहीं कि हम बाहर से आए
ब्राह्मण परंपरा के तमाम ग्रन्थ हों या श्रमण अर्थात जैन और बौद्ध परम्परा के कोई ग्रन्थ हों, ऐसी कोई स्मृति कहीं अंकित नहीं। भारत का पालि, प्राकृत, अपभ्रंश या आधुनिक भारतीय भाषाओं में लिखा साहित्य हो, हमारी भाषाओं का कोई मुहावरा हो, हमारे देश के किसी भी कोने में गाया जाने वाला कोई लोकगीत हो, यहाँ तक कि नाचा जाने वाला कोई लोकनृत्य हो, कोई झूठी-सच्ची अफवाह, कोरी गप्प या कोई बकवास हो, कहीं भी यह अंकित नहीं कि यह देश हमारा नहीं और हम कहीं बाहर से आए हैं। तो फिर पश्चिमी शैली में इतिहास लिखने वालों को कहाँ से मालूम पड़ गया कि हम बाहर से आए हैं? कहीं से नहीं। वे तो जन परम्परा को कोई महत्व नहीं देते और वे जिन प्रमाणों को प्रमाण मानते हैं, वहाँ भी तो ऐसा कोई उल्लेख नहीं।
ताम्रपत्र, शिलालेखों में भी उल्लेख नहीं
उन्हें पुरातात्विक प्रमाणों पर ज्यादा भरोसा है, पर पुरातत्व का कोई ऐसा प्रमाण नहीं, जहां से साबित हुआ हो कि हम बाहर से आए। जिन खुदाइयों पर उन्हें बड़ी श्रद्धा है, उन हड़प्पा मूअन जो दड़ो से और वैसी दूसरी खुदाइयों से भी साबित नहीं होता कि हम कहीं बाहर से आए। संस्कृत साहित्य को तो वे कुछ मानते नहीं। पर अलबेरूनी, ह्वेनसांग, फाह्यान सरीखे यात्रियों के वृत्तान्तों और जिन मध्यकालीन मुस्लिम इतिहासकारों पर वे फिदा है, उनकी किताबों में भी कहीं कोई संकेत तक नहीं कि इस देश के बाशिन्दे कहीं बाहर से आए हैं। जिन ताम्रपत्रों, सिक्कों, शिलालेखों आदि को वे देवता की तरह पूजते हैं, उनमें से कहीं भी इस बात का उल्लेख, संकेत या इशारा भर भी नहीं कि इस देश के लोग कहीं बाहर से आए हैं। यानी इतिहास लिखने की भारत की कालजयी शैली हो या पश्चिम की प्रमाण आधारित पुस्तक शैली हो, दोनों में किसी भी शैली में कोई भूले से भी संकेत नहीं मिलता कि हम भारतीयों का असली देश भारत से कहीं बाहर है और हम वहाँ से भटकते हुए भारत आए और बस, फिर यहाँ आकर बस गए।
इतिहास के नाम पर रिश्तों को जड़ से काटने की कोशिश
जब कोई ऐसी घटना घटी ही नहीं, ऐसा वाकया हुआ ही नहीं, ऐसी हलचल कभी महसूस ही नहीं हुई, फिर एक अघटित को हमारे इतिहास की पुस्तक का पहला अध्याय बनाने की कोशिश क्यों हुई? क्यों इस देश के साथ हमारे शरीर और आत्मा के, हृदय और बुद्धि के, राग और मोहब्बत के, माता और पिता के, भाई और बहन के रिश्तों को जड़ से काटकररख देने की कोशिश इतिहास के नाम पर की गई? इस हद तक की गई कि बाल गंगाधर तिलक जैसे महाउद्भट विद्वान भी इस फंदे में फँस गए और आर्यों को कहीं बाहर से आया बताने लगे? इस पर भी तुर्रा क्या है? तुर्रा यह है कि यही इतिहासकर कहते हैं कि वैदिक आर्यों को ऊँट का पता नहीं था, क्योंकि उनके साहित्य में ऊँट का वर्णन नहीं। कभी वे कहते थे कि ऋग्वेद के ऋषियों को गंगा-यमुना का पता नहीं था।
एक महाअसत्य को इतिहास का अध्याय बना दिया
वे कहते हैं कि तब भारत में कई आर्य वर्ग थे, मसलन, मत्स्य, द्रुह्य, तुर्वसु, यदु, पुरू आदि क्योंकि वेदों में इनका उल्लेख है। यानी प्राचीन भारतीयों के ज्ञान-अज्ञान, चाल-चलन, पसन्द-नापसन्द, विजय-पराजय आदि के बारे में वे एक भी ऐसी बात नहीं मानेंगे, जिसका लिखित प्रमाण उन्हें कहीं से न मिल जाए। पर भारत आर्यों अर्थात भारतीयों का मूल देश नहीं, यह सिद्ध करने के लिए उनके पास कुछ नहीं। पर तुर्रा यह है कि एक अघटना को, झूठ को, एक महाअसत्य को उन्होंने एक सच्ची, तथ्यपूर्ण वास्तव में घटी घटना बता कर उसे हमारे इतिहास का पहला अध्याय बना दिया, फिर बाकी इतिहास इस झूठ को बढ़ाते हुए लिखा, नेहरू ने इस आधार पर 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' लिख कर महान इतिहासकार का खिताब पा लिया, श्याम बेनेगल ने इस पर 'भारत की खोज' सीरियल बनाकर उसे हर घर में परोस दिया। पर झूठ के पांव नहीं होते, इसलिए इस महत प्रयास के बावजूद यह अघटना इतिहास नहीं बन सकी, हमारी जातीय स्मृति का हिस्सा नहीं बन सकी।
इसे इतिहास कहें या कूटनीति?
तो क्यों किया गया छल? ताकि सिद्ध किया जा सके कि भारत एक धर्मशाला है। यहाँ अंग्रेज आए, मुगल आए, तुर्क-अफगान आए। अरब आए, कुषाण आए, हूण आए। शक आए, यवन आए, आर्य आए। सब बाहर से आए। यह देश किसी का नहीं, जो आता गया, बसता गया। इस देश की अपनी कोई संस्कृति नहीं, कोई इतिहास नहीं, कोई सभ्यता नहीं, बस सब यूं ही चलता रहा। एक अघटित को इतिहास बनाने का छल इसलिए हुआ। इसे इतिहास कहें या कूटनीति? (भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्रामाणिक और तथ्यपरक इतिहास जानने के लिए पढ़ें सूर्यकांत बाली की भारतगाथा...!)
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