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अगर आप पहले किसी की आँखों पर पट्टी बाँध दें और जब उसे कुछ नजर न आ रहा तो उसके गले में फूलों की माला डाल दें तो इस बात की पूरी संभावना है कि वह व्यक्ति उस माला को रस्सी या जिंदा अथवा मरा साँप समझ कर गले से झटके से उतार कर नीचे फेंक दें। जब कोई आदमी अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लेता है तो ऐसा ही होता है। उसे असली-नकली की, ठीक-गलत की, अच्छे-बुरे की तमीज खत्म हो जाती है। और जब सारा देश और पूरी जाति अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ले, या किसी से अपनी आँखों पर पट्टी बंधवा ले तो क्या होता है? तो वही होता है, जो विदेशी विद्वानों द्वारा पट्टी बंधवाए हम भारतवासियों ने मनु के साथ किया है।
मनु स्मृति को नारी और दलित विरोधी मान लिया गया
वह कैसे? वह ऐसे कि आज आप किसी भी सन्दर्भ में मनु का नाम थोड़ा ठीक ठाक तरीके से ले लीजिए तो आप दकियानूसी, अंधविश्वासी, नारीविरोधी, दलितविरोधी, जातपरस्त और न जाने क्या मान लिए जाएंगे। इसलिए कि मनुस्मृति नामक एक ग्रन्थ को नारीविरोधी और दलितविरोधी मान लिया गया है, इसे अंधविश्वास और जातपरस्ती फैलाने वाला मान लिया गया है और मान लिया गया है कि जिस मनु नामक घृणित प्राणी ने उसे लिखा है कि वह दलितों का दुश्मन था, शूद्रों को अस्पृश्य मानता था, वेदों के मंत्रों की ध्वनि भी पड़ जाए तो उनके कानों में पिघला सीसा डालने को कहता था, स्त्रियों को हमेशा पराधीन रखने का पक्षपाती था, जातपात फैलाने वाला था, ब्राह्मणवाद का पुरोधा था, वगैरह वगैरह।
कोई अपनी स्मृति में कैसे ग्रंथ लिख सकता है ?
मनुस्मृति में क्या लिखा है, यह बताना हमारा आज का विषय नहीं। पर पट्टी बाँधे इस देश के इतिहासकारों से पूछना पड़ेगा कि जिस ग्रन्थ का नाम मनुस्मृति है, अर्थात् जो ग्रन्थ मनु की स्मृति में लिखा गया, वह मनु द्वारा लिखा कैसे हो सकताहै? कोई व्यक्ति अपनी ही स्मृति में कोई ग्रन्थ कैसे लिख सकता है? कैसे कह सकता है कि मैं यह ग्रन्थ अपनी स्मृति में लिख रहा हूं? आज भी स्मृति ग्रन्थ अर्थात् कम्मेमोरेशनवाल्यूम लिखे जाते हैं और वे किसी की स्मृति में, किसी की याद में लिखे जाते हैं, न कि किसी व्यक्ति द्वारा अपनी ही याद में खुद अपने ही द्वारा लिखे जाते हैं। और जिस व्यक्ति की याद में वे ग्रन्थ लिखे जाते हैं, वह व्यक्ति खास ही होना चाहिए। नहीं होगा तो न केवल वह व्यक्ति भुला दिया जाएगा, बल्कि उसकी याद में लिखा वह ग्रन्थ भी काल का बस एकाध थपेड़ा ही सह पाएगा और खत्म हो जाएगा।
मनुस्मृति को आंबेडकर ने भी मान्यता प्रदान की
जाहिर है कि जिस मनु की स्मृति में यह ग्रन्थ लिखा गया, और वह भी मनु के करीब छह हजार साल बाद, वह कोई खास ही व्यक्ति रहा होगा। और लिखे जाने के करीब दो हजार साल बाद भी वह ग्रन्थ जीवित है, बाद के अनेक विद्वानों ने उसमें अपने अपने विचार जोड़ने का लालच पाला है, हमारा नागरिक कानून, जो ‘मिताक्षरा' नामक टीका के आधार पर टिका है, सदियों से टिका है और आजाद भारत में भी बाबा साहेबआम्बेडकर सहित तमाम संविधान निर्माताओं ने जिसे मान्यता प्रदान की है, तो यकीनन मनु कोई वैसा फूहड़, हँसोड़, दकियानूस, जातपरस्त या नारीविरोधी बौना आदमी नहीं हो सकता। वह कोई विराट् पुरुष रहा होगा, भव्य व्यक्तित्व रहा होगा, महामानव रहा होगा, अद्भुत रहा होगा, अति असाधारण और विलक्षण रहा होगा, जिसने इस देश को इतना कुछ दिया होगा कि उसके छह हजार साल बाद भी उसकी स्मृति में मनुस्मृति नामक ग्रन्थ लिखा गया और लिखे जाने के दो हजार साल बाद भी वह ग्रन्थ, अपनी तमाम खामियों के बावजूद, अस्पृश्यता और नारी-परतंत्रता के कुछ मनुष्य विरोधी बयानों के बावजूद हमारे समाज का नियामक बना हुआ है।
मनु के कारण ही मनुष्य कहलाए,उसे कैसे भूलें ?
तो कौन था वह मनु जिसके कारण हम सभी आज भी खुद को मनुष्य (मनु+स्य, और संस्कृत में 'स्य' प्रत्यय 'का' 'के' 'की' अर्थ देता है) कहते हैं, मानव (मनोः अपत्यम् मानव; यानी मनु की संतान) कहते हैं, मनुज (मनु+ज अर्थात् मनु से पैदा हुआ) कहते हैं? जिस मनु से हमारा गर्भ का रिश्ता जुड़ गया, जो हम सबका लक्कड़दादा बन गया, जिसने हमें हमारा नाम दे दिया, वह मनु कौन था? कौन था भला? क्यों हमें कहा जा रहा है कि हम उसे कोसें, उसे भूल जाएँ? पर कैसे भूल सकते हैं? जो मनु विलक्षण वजहों से भारत राष्ट्र की स्मृति में अविभाज्य रूप से बसा है, रचा-पगा है, उस मनु को कैसे भूल सकते है?
मनु को आदि पुरुष माना गया है
अथर्ववेद पढ़ जाइए, शतपथब्राह्मण पढ़ जाइए, महाभारत पढ़ जाइए, मत्स्य पुराण पढ़ जाइए, जयशंकर प्रसाद की कामायनी'पढ़ जाइए, सभी एक बात समान रूप से कहते हैं कि एक बार इस धरती पर बड़ी भारी बाढ़ आई थी, जलौघ (जल+औघ यानी बाढ़) आया था, प्रलय आ गया था, चारों तरफ पानी ही पानी फैला था, सभी चेतन और जड़ सभी उसमें डूब कर खत्म हो गए थे, पर एक मछली की कृपा से मनु बच गए, उसी के कहने पर वे ऊँचे हिमालय पर रहने लगे और उन्हें एक नाव पर तैराकर उस बड़ी मछली ने बाढ़ के पानी में डूबने से बचा लिया और उस अकेले बचे मनु ने फिर पूरी सृष्टि पैदा की, और संसार को चलाया। क्या यह कहानी अपने दिमाग को कहीं स्पर्श करती है? नहीं करती न? कैसे एक व्यक्ति पहाड़ पर रहकर, जिसे बाकी सभी ग्रन्थ उत्तर का हिमालय पर्वत कहते हैं पर मत्स्यपुराण दक्षिण का मलय पर्वत कहता है, उस पहाड़ पर रहकर नाव चला सकता है? कैसे कोई एक मछली उसकी सहायता को आ सकती है? कैसे एक अकेला पुरुष सारी सृष्टि को फिर से पैदा कर सकता है? पर दिक्कत यह है कि जल प्लावन (प्लावन यानी बाढ़) यूनान, बेनीलोन की माइथोलोजी में, बाइबल में, कुरान शरीफ में, चीन, मलाया आदि की पुरानी कहानियों में एक कहानी ही नहीं, बतौर घटना मिलता है। भारत में भी मिलता है और उसके साथ मनु का सम्बंध जुड़ा है तो जाहिर है कि मनु को किसी न किसी रूप में आदि पुरुष माना गया है जिसने सृष्टि अर्थात समाज को बचाने के लिए कोई अद्भुत कर्म किया होगा।
हमारे कालवैज्ञानिकों ने भी मनु को आदिपुरुष माना
अब आदिपुरुष की इस भारतीय धारणा को कृपया हमारे ही देश के कालविज्ञान के साथ जोड़ कर देखिए। धरती के तमाम देशों में शायद भारत ही अकेला ऐसा देश है जहां बहुत ही पुराने समय से काल अर्थात् 'टाइम' ('टाइम' एंड 'स्पेस'वाला टाइम) को ठोस वैज्ञानिक दृष्टि से देखा गया है। निमेष को यानी पलक झपकने को चूँकि हमारे यहाँ समय की न्यूनतम गिनने लायक इकाई माना गया है, इसलिएवहाँ से शुरू करते हैं। 25 निमेष 1 काष्ठा। 30 कष्ठा 1 कला। 30 कला 1 मुहूर्त। 30 मुहूर्त = 1 अहोरात्र यानी एक दिन रात। 15 दिनरात = 1 पक्ष या पखवाड़ा। 2 पक्ष (कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष) = 1 महीना। 6 महीना = 1 अयन। 2 अयन (दक्षिणायन और उत्तरायण) = 1 वर्ष। 43 लाख 32 हजार वर्ष = 1 पर्याय यानी एक महायुग (सत्य, त्रेता, द्वापर और कलियुग को मिलाकर एक महायुग बनता है।) 31 पर्याय = 1 मन्वन्तर। 14 मन्वन्तर 1 कल्प। हमारा मन्तव्य यहाँ आपको भारत का कालविज्ञान समझाना नहीं जो एक बड़ा ही गहन शोध का विषय है और इस गाथा में उस पर विचार असंभवऔर अव्यावहारिक है। इस कालविज्ञान में कुछ सचाइयाँ हैं तो कुछ बातों को कुछ लोग अतिशयोक्ति कहना चाहेंगे। हमारा मकसद यहाँ सिर्फ यह बताना है कि कैसे कालविज्ञान की अब तक की सबसे बड़ी इकाई अर्थात् मन्वन्तर (मनु+अन्तर यानीदो मनुओं का आपस में अंतर यानी दूरी, फर्क, गैप) के साथ मनु का नाम जुड़ा है। हमारा कालविज्ञान कहता है कि एक कल्प में चौदह मन्वन्तर होते हैं। हर मन्वन्तर का एक नाम है जो उस वक्त के मनु के नाम के आधार पर है। जो कल्प इस समय चल रहा है, उसके चौदह में से छह मन्वन्तर बीत चुके हैं। सातवाँ चल रहा है और सात अभी आने हैं। जो चल रहा है उसका नाम स्वयंभू के पुत्र मनु के आधार पर स्वायंभुव मन्वन्तर दिया गया है। यानी हर मन्वन्तर की शुरूआत मनु से होती है और इस तरह हमारे कालवैज्ञानिकों ने भी मनु को आदिपुरुष माना है।
यज्ञ संस्था शुरू करने का सबसे पहला विचार मनु का ही था
बाढ़ की पुरानी कहानी हो या विज्ञान की कसौटी पर कसने लायक हमारा कालचिंतन हो, इन दोनों पहलुओं से जोड़ कर देखें तो बात यह उभरती है कि मनु इस देश के आदिपुरुष हैं। चूँकि अपनी परम्पराओं और संस्थाओं का उपहास करने की पलायनवादी बहादुरी हमारे चरित्र का अंग बनती जा रही है और हम उनका गहन शोध कर ठीक निष्कर्ष निकालने से कतराने लगे हैं, इसलिए अपने देश की यज्ञ संस्थाके बारे में हम खत्म हो रही बीसवीं सदी के महावैज्ञानिक और महातार्किक माहौल में भी न कुछ जानते हैं और न ही जानने को तत्पर हैं। पर जो जानते हैं, वही जानते हैं कि यज्ञ संस्था हमारे देश की पर्यावरणचिंता ही नहीं, पर्यावरण से मानसिक एकरूपता कायम करने का अद्भुत प्रतीक रही है और यह सूचना कि इस यज्ञ संस्था को शुरू करने का विचार सबसे पहले मनु को आया था, मनु के प्रति हमारी दीवानगी को औरबढ़ा सकती है।
मनु ही राजशासन व्यवस्था के जनक
तो क्या है इस सबका मतलब? यह कि इस देश के ज्ञात इतिहास में पहले राजा हैं जिन्होंने अव्यवस्था में डूबे हमारे समाज को पहली बार राजशासन प्रदान किया, उसके लिए नियम बनाए, संस्थाएँ कायम की, तोड़ने वालों के लिए सजा का इंतजाम किया। मनु से पहले किसी राजा का उल्लेख नहीं मिलता और मनु के साथ ही देश का सिलसिलेवार इतिहास मिलना शुरू हो जाता है तो हमें ब्राह्मणग्रंथों की एक पुरानी कहानी मनु से जुड़ी मालूम पड़ने लगती है जिसमें आता है कि एक बार अव्यवस्था और गड़बड़ से तंग आकर लोग ब्रह्मा के पास कहने गए कि हमें एक राजा दीजिए जो हम परशासन कर सके। ब्रह्मा अर्थात् स्वयंभू ने उन्हें राजा दिया और अगर मनु स्वायंभुव अर्थात् स्वयंभू के बेटे माने जाते हैं तो हमारा पहला शासक मनु के अलावा और कौन हो सकता है।और जिस व्यक्ति को राजा बनाया गया उस मनु ने शासन करने के, समाज चलाने के, प्रकृति के उचित दोहन के, व्यवस्था तोड़कों को सजा देने के नियम बनाए। पीढ़ी दर पीढ़ी भारतवासियों को यह बात याद रही कि समाज मनु के बनाए नियमों में चल रहा है और मनु के छह हजार साल बाद, यानी आज से करीब दो हजार साल पहले किसी ने मनु की स्मृति में उस समय (यानी लिखने वाले के समय) प्रचलित नियमों को उस समय की यानी लिखने वाले के समय की क्लासिकल भाषा सस्कृत में लिखकर अपनी पुस्तक को मनुस्मृति कह दिया जिसमें आगे चलकर कुछ ने अपनी अपनी बातें भी जोड़ दी। इसलिए एक ही मनुस्मृति में परस्पर विरोधी विचार कम नहीं।
मनु हमारे ज्ञात इतिहास के पहले मीलपत्थर
लेकिन इसमें मनु का कसूर क्या है? इसलिए जब हम मनु को कोसते हैं तो मानों आँखों पर पट्टी बाँधकर फूलों की माला को जहरीला साँप समझ लेते हैं जबकि समाज को अव्यवस्था के प्रलय से निकाल कर हमारे ज्ञात इतिहास के प्रथम सम्राट मनुमहाराज ने समाज को हर तरह की व्यवस्था दी और फिर भारत की चारों दिशाओं में राजशासन की स्थापना के लिए अपने पुत्रों को अपने अपने राजवंश चलाने के लिए भेज दिया। तो इस मनु के बारे में, हमारे इतिहास के इस पहले मीलपत्थरके बारे में हमारी वाणी क्या ज्यादा जानकर, ज्यादा जिम्मेदार, गरिमा से ज्यादा सराबोर नहीं होनी चाहिए?
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