मीडिया की आजादी: अभिव्यक्ति पर राजनीति का फंदा कितना मजबूत-आलोक मेहता

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मीडिया की आजादी: अभिव्यक्ति पर राजनीति का फंदा कितना मजबूत-आलोक मेहता

अखबार, टीवी न्यूज़ चैनल, वेबसाइट के बाद अब ट्वीटर, फेसबुक पर भी कानून का नया फंदा| हर दूसरे, तीसरे हफ्ते अभिव्यक्ति की आजादी के दुरुपयोग अथवा सत्ता के दबाव का मुद्दा अदालत पहुँच रहा है।0 संयोग है कि इसी समय ब्लूम्सबरी पब्लिशर्स इंडिया ने मेरी अंग्रेजी भाषा की पुस्तक 'पावर प्रेस एन्ड पॉलिटिक्स' प्रकाशित कर बाजार और ऑनलाइन खरीदी के लिए उपलब्ध कराई। नतीजा यह है कि मीडिया के कई पत्रकार संपादक टीवी चैनल अथवा यूटूयूब चैनल के लिए तात्कालिक स्थितियों से जोड़कर मुझसे जवाब मांग रहे हैं।

क्या मीडिया पर आपातकाल से भी ज्यादा सत्ता का दबाव है?

अभिव्यक्ति के अधिकार के साथ उसकी सीमाओं का पाठ मेरे प्रेरक संपादकों से मिला होने के कारण मैं आज भी उन्मुक्त और अनुत्तरदायी पत्रकारिता के विरुद्ध हूं। इस पर मेरे कई नए पुराने साथी सोशल मीडिया पर अपनी नाराजगी भी व्यक्त कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि सीमाओं और लक्ष्मण रेखा की दुहाई का मतलब सत्ता का साथ देना है। पत्रकार ही नहीं विभिन्न वर्ग के परिचित अपरिचित भी सवाल उठाते हैं कि क्या इस समय मीडिया पर आपातकाल से भी अधिक सत्ता का दबाव है या सब बिकाऊ हो गए हैं?

न्याय पालिका पर तो भरोसा रखना होगा

टीवी इंटरव्यू या अन्य मंचों पर मेरा पहला उत्तर होता है - मेरी पुस्तक खरीदकर पढ़िये। मैंने अपने संबंधों और चुनौतियों से अधिक मुझसे वरिष्ठ रहे सम्पादकों के कार्यकाल में पिछले पचास वर्षों में रहे सत्ता के संबधों अथवा दबावों का प्रामाणिक विवरण लिखा है। पहले भी पत्रकारिता पर आई मेरी पुस्तकों में कुछ उल्लेख रहा है। इस कारण ट्वीटर और सोशल मीडिया के लिए नए नियम कानून को लेकर भी बहुत हद तक सहमत हूं। हाल के कई अदालती फैसलों ने यह विश्वास बढ़ा दिया है कि सत्ता या सरकार के संविधान में मिले अधिकार छीने जाने के प्रयासों को न्याय पालिका कड़ाई से रोक देती है। इसलिए न्याय पालिका पर तो भरोसा रखा ही जाना चाहिए।

जब ज्योतिषी से मुलाकात की खबर की सूचना वित्त मंत्री तक पहुंची!

जहां तक दबावों की बात है मैं आपात काल और सेंसर काल के पहले या बाद भी सम्पादकों द्वारा झेले जाते रहे दबावों का उल्लेख करता हूं| एक दिलचस्प उदहारण देश के बड़े अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस और स्टेट्समेन में संपादक रहे एस निहाल सिंहजी ने मुझे बताया था। नेहरू के सत्ता काल में वह स्टेट्समैन में रिपोर्टर थे। उन्होंने ज्योतिषी से बातचीत कर एक रिपोर्ट लिखी कि वित्त मंत्री कृष्णमाचारी ज्योतिष पर बहुत भरोसा करते हैं और दक्षिण भारत का एक ज्योतिषी दिल्ली में आकर पांच सितारा होटल में ठहरता है और मंत्रीजी बराबर उसके पास जाकर मिलते, सलाह मशविरा करते हैं।यह रिपोर्ट अखबार के साप्ताहिक स्तम्भ 'यस्टरडे इन दिल्ली' में जानी थी। छपने से पहले किसी वरिष्ठ सहयोगी से ये सूचना मंत्री तक पहुंच गई। तब वित्त मंत्री ने अखबार पर बहुत दबाव डाला कि यह रिपोर्ट न छापें, क्योंकि इससे नेहरू उनसे बहुत नाराज हो जाएंगे। सामान्यतः उस अखबार में दबाव नहीं माना जाता था, लेकिन वित्त मंत्री के दबाव में वह छोटी रिपोर्ट तक नहीं प्रकाशित हो सकी| हाँ निहाल सिंह जब संपादक रहे, उन्होंने सत्ता या प्रबंधन के दबाव को नहीं स्वीकारा और इस कारण उन्हें दो तीन बार नौकरी भी छोड़नी पड़ी।

तब टाटा-बिड़ला भी दबाव में रहते थे

आपातकाल से भी बहुत पहले सत्ता और प्रबंधन के दबाव का एक मामला कुलदीप नैयर जी ने मुझे सुनाया था| तब स्टेट्समैन के बोर्ड में जेआरडी टाटा हुआ करते थे। उन्होंने एक बार बुलाकर कहा कि इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई के झगड़ों की खबरें छपने से बहुत समस्याएं आ रही हैं| नैयर जी ने उनसे कहा कि वे केवल सही तथ्य लिख रहे हैं | फिर टाटा ने बोर्ड के अपने खास पालकीवाला से बात की। अखबार में वैसी खबरें चलती रहीं, तब टाटा ने स्वयं अपने शेयर वापस लेकर खुद अलग होना उचित समझा। मतलब दबाव में टाटा, बिड़ला भी रहते थे| इसलिए आजकल मालिकों और सरकार के दबावों को नया क्यों समझा जाना चाहिए ?

पत्रकारों को निर्भीक होकर खतरे तो उठाने होंगे

कुलदीप जी और बीजी वर्गीज जैसे सम्पादकों ने पहले शास्त्रीजी इंदिरा गांधी के साथ काम किया, लेकिन बाद में उनकी सबसे अधिक आलोचना की। इसलिए जो पत्रकार दस साल पहले कांग्रेस राज की नीतियों और नेताओं के काम को सही मानते थे और अब राहुल की कांग्रेस को बर्बाद एवं मोदी सरकार की नीतियों और कदमों को उचित मानते हैं, तो उन्हें बिका और अवसरवादी क्यों कहा जाए? अभिव्यक्ति की उनकी अपनी स्वतंत्रता है। मैंने अपनी पुस्तक में ऐसे कई सम्पादकों को सत्ता या प्रबंधन के दबाव में नौकरी छोड़ने या निकाले जाने के प्रामाणिक उदाहरण दिए हैं। इनमें हिरण्मय कार्लेकर, अजीत भट्टाचार्जी, राजेंद्र माथुर, मनोहर श्याम जोशी, विनोद मेहता जैसे दिग्गज संपादक शामिल हैं। कुछ सम्पादकों के तो कैबिन तक सील हुए। जबकि हाल के सात वर्षों में दिल्ली के किसी प्रधान संपादक को हटाने की खबर नहीं हैं।प्रबंधन अपनी मजबूरी या किसी दबाव में किसी पत्रकार को हटाता है तो यह उसका अधिकार है। मीडिया में अपना स्वतंत्र काम करने के लिए व्यक्ति नौकरी न करे, तब भी जीवन यापन या चैनल अखबार चलाने के लिए धन चाहिए। अब किसी विचार, पार्टी के समर्थन और विरोध के लिए अभियान चलना हो तो फिर निष्पक्षता का दावा कैसे किया जा सकता है। असली बात यह है कि सेना के सिपाही या सेनापति की तरह पत्रकारों को निर्भीक होकर खतरे तो उठाने होंगें। इसी लोकतंत्र और संविधान के नियम कानून के अनुसार अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा करनी होगी।

अभिव्यक्ति का आधार
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