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जयराम शुक्ल, BHOPAL. ब्लिट्ज का नाम सुनते ही हमारी पीढ़ी के पत्रकारों और पाठकों में एक बिजली सी कौंध जाती है। धमाका, सनसनी, पर्दाफाश और ग्लैमर की चाशनी में लिपटे एक ऐसे टेब्लाइड की छवि सामने आ जाती है जिसके लाटसाहबियत से लबरेज कड़कमिजाज संपादक आरके करंजिया (रूसी करंजिया) ने सत्तर के दशक तक भारतीय पत्रकारिता को अपने हिसाब से हांका और खोजी पत्रकारिता के बेंचमार्क सेट किए। वही ब्लिट्ज अब 15 सितंबर 2022 को मुंबई से फिर से प्रकाशित होने जा रहा है।
दिग्विजय को ब्लिट्ज ने ही बनाया था 'दिग्गी राजा'
प्रकाशकों को हिन्दी दिवस का दूसरा दिन इसलिए सुहाया क्योंकि इस दिन रूसी की 110वीं जयंती पड़ती है। ब्लिट्ज प्रकाशन बोर्ड के चेयरमैन अनिल वोहरा और एडिटर इन चीफ दीपक द्विवेदी ने 9 सितंबर को इसकी घोषणा की। आइए जानते हैं ब्लिट्ज और उसके करिश्माई संपादक रूसी करंजिया के वे किस्से जिससे इस डिजिटल युग के मीडियाकरों और उसका टारगेट ग्रुप्स सर्वथा अपरिचित है। पूरी कहानी सुनाने से पहले लगे हाथ बताते चलें कि दिग्विजय को दिग्गीराजा बनाने श्रेय ब्लिट्ज को ही जाता है। इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि ब्लिट्ज और इसके संपादक का पॉलिटिकल एलीट क्लास में कितना रसूख रहा होगा।
ऐसे शुरू हुआ करंजिया का ब्लिट्ज
एक अमीर पारसी परिवार से ताल्लुक रखने वाले रूसी करंजिया ने शौकिया तौर पर पत्रकारिता शुरू की। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान वे पेन नेम से लेटर टू एडिटर लिखते थे जो टाइम्स ऑफ इंडिया मुंबई में छपा करता था। संपादक ने रूसी को ताड़ लिया और अखबार में काम करने का ऑफर दे दिया। शुरुआती असाइनमेंट फ्रीलांस जर्नलिस्ट का था। रूसी अपनी किताब 'थिएटर ऑफ एबसर्ड' में एक वाकये का जिक्र करते हैं-ताज होटल में 'इंडियन चैम्बर आफ प्रिंसेस' की गुप्त बैठक चल रही थी, मैं राजकुमार की पोषाक में उस बैठक में शामिल हो गया। दूसरे दिन उसका ब्योरा टाइम्स के पहले पन्ने पर मेरे नाम से छपा। मैं और मेरी रिपोर्ट दोनों चर्चाओं में थी।'
भारतीय पत्रकारिता के पहले खोजी पत्रकार
इस तरह मान सकते हैं कि रूसी करंजिया भारतीय पत्रकारिता के पहले खोजी पत्रकार थे। उनके इसी कल्ट ने ब्लिट्ज जैसे अखबार को निकालने के लिए प्रेरित किया लेकिन उनके इरादे को पुख्ता किया लंदन के 'डेली मिरर' ने। वे टाइम्स की ओर से वहां ट्रेनिंग करने गए थे। लंदन में टेब्लाइड्स की धमाकेदार और सनसनीखेज पत्रकारिता ने उन्हें खासा प्रभावित किया। जब वे भारत लौटे तो उनके पास ब्लिट्ज का धमाकेदार आइडिया था। रूसी ने टाइम्स की नौकरी छोड़ दी और अपने एक अंग्रेज पत्रकार मित्र बेन्जामिन गाई हार्नीमन के साथ शुरू किया..ब्लिट्ज का प्रकाशन।
ब्लिट्ज..फ्री फ्रैंक और फियरलेस
वो 1 फरवरी 1941 का दिन था जब रूसी ने मित्र बेंजामिन के साथ ब्लिट्ज का प्रकाशन शुरू किया। ये ब्लिट्ज टाइटल के पीछे की लंबी कथा है पर संक्षेप में ये कि दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था, ब्रिटेन पर जर्मनी ने एक बड़ा हवाई हमला किया। उस हमले के मिशन का नाम था 'ब्लिट्जक्रीग'। ब्लिट्ज शब्द यहीं से लिया। जाहिर है रूसी भारत में ब्रिटेन के उपनिवेशवाद से अंतरात्मा से नफरत करते थे। रूसी करंजिया स्वयं एक वॉर रिपोर्टर थे रूस पर जर्मनी के हमले की गोपनीय तैयारी की ब्रेकिंग न्यूज देकर दुनिया को चकित कर दिया जबकि इसकी भनक रूस व उसके साथी देशों की खुफिया एजेंसियों तक को नहीं थी। इसी तरह आजाद हिन्द फौज ने अंडमान पर तिरंगा ध्वज लहराकर उसे स्वतंत्र घोषित कर दिया, ये पहली खबर ब्लिट्ज में ही थी..।
रूसी का चर्चित कोट.. 'पत्रकारिता में सनकी होना मदद करता है'
3 हजार रुपए की पूंजी के साथ शुरू हुआ ब्लिट्ज तीन भाषाओं अंग्रेजी, हिन्दी और उर्दू में छपता था। ब्लिट्ज का आदर्श वाक्य था..फ्री..फ्रैंक और फियरलेस। रूसी जीवन भर इसे ब्लिट्ज की आत्मा के साथ चिपकाए रखे। संपादक रूसी करंजिया के चेंबर में बोर्ड पर चिपका एक कोटेशन उनके जुनून को व्यक्त करता रहा-'यहां काम करने के लिए तुम्हें सनकी होने की जरूरत नहीं है, पर वैसा होना बहुत मदद करता है'।
ब्लिट्ज..प्रेस का टेब्लाइड रिवॉल्यूशन
लंबे चौड़े आठ कॉलम के अखबारों के मुकाबले उसकी आधी साइज वाले हैन्डी और मारक हैडिंग वाले ब्लिट्ज को पाठकों ने हाथोंहाथ लिया। पहले पेज में कभी-कभी तो आधे पेज की मोटी हेडिंग पाठकों की आंखों में बिजली की भांति कौंधती। आखिरी पन्ना भी पहले पेज की तरह ही दमदार रहता। अंग्रेजी टेब्लाइड्स की भांति किसी चर्चित महिला की खूबसूरत तस्वीर के साथ ख्वाजा अहमद अब्बास का कालम छपता था, अंग्रेजी में लास्ट पेज और हिन्दी में आजाद कलम के साथ।
स्वतंत्र अखबार था हिंदी ब्लिट्ज
खास बात ये थी कि हिन्दी संस्करण अंग्रेजी का अनुवाद भर ही नहीं बल्कि स्वतंत्र था। बड़ी और खोजी खबर सभी भाषाओं में अनुवाद होकर छपती थी। जबकि उर्दू और हिन्दी संस्करणों की आधी सामग्री मौलिक होती थी। अंग्रेजी में रमेश सांघवी, ए.राघवन जैसे खांटी वामपंथी स्तंभकार छपते थे। उर्दू में कैफी आजमी का कॉलम जाता था। महेंद्र वेद व पी.साईनाथ जैसे पत्रकारों का करियर बतौर उप संपादक ब्लिट्ज से ही शुरू हुआ। उनके हिस्से ग्रामीण भारत की रिपोर्टिंग भी थी। जिसके चलते उन्हें आगे चलकर रेमन मैग्ससे पुरस्कार मिला। हिन्दी संस्करण को पहले-पहल मुनीश नारायण सक्सेना ने संवारा फिर नंदकिशोर नौटियाल ने। ब्लिट्ज की हिन्दी खास थी। जहां उस समय के अखबार क्लासिक हिन्दी, क्लिष्ट शैली और वर्तनी के चक्कर में उलझे रहते थे वहीं ब्लिट्ज ने सीधी-सरल-बोधगम्य और आम आदमी की समझ में आने वाली भाषा को चुना।
ब्लिट्ज ने आपातकाल की ज्यादतियों का किया खुलासा
शुरुआती दिनों में आरके लक्ष्मण और बाद में अबू अब्राहम के कार्टून ब्लिट्ज की धड़कन हुआ करते थे। इमरजेंसी लगने पर अबू के कार्टूनों की श्रृंखला आज भी उस दौर के पाठकों को याद होगी। यद्यपि खांटी वामपंथी होने के नाते रूसी करंजिया ने इंदिरा गांधी के आपातकाल के ऐलान का समर्थन किया था फिर भी। ब्लिट्ज में आपातकाल के खिलाफ सामग्री छपती थी। इमरजेंसी हटने के बाद यदि उस दौर की ज्यादतियों का सबसे ज्यादा और सिलसिलेवार किसी ने पर्दाफाश किया तो वो ब्लिट्ज ही था।
नानावटी केस...देश का पहला मीडिया ट्रायल
ब्लिट्ज किसी मुद्दे को उठाकर उसे मुकाम तक पहुंचाने के लिए जाना जाता था..। नानावटी केस ने ब्लिट्ज को घर-घर पहुंचा दिया। इसके चलते 60 के शुरुआती दशक में ब्लिट्ज की प्रसार संख्या 10 लाख पार कर गई थी जो कि उस समय का एक दुर्लभ आंकड़ा था। नानावटी केस एक तरह से देश का पहला मीडिया ट्रायल था जिसने राजनीति और न्यायपालिका को अच्छा खासा प्रभावित किया। यह अपने किस्म का पहला ऐसा मामला था जिसने पीड़क (आरोपी) को नहीं अपितु पीड़ित को कठघरे में खड़ा किया और उसके पक्ष में भीषण जनमत तैयार किया। ये मोहब्बत और दगा की मर्डर मिस्ट्री थी जिसने सबको हिलाकर रख दिया।
मोहब्बत और दगा की मर्डर मिस्ट्री था नानावटी केस
आईएनएस मैसूर के सेकंड इन कमान कमान्डर नानावटी की खूबसूरत अंग्रेज पत्नी थी सिल्विया। सिल्विया किसी प्रेम आहूजा के इश्क के चक्कर में फंस गई। एक बार महीनों बाद नानावटी मुंबई अपने घर पहुंचे तो उन्हें आभास हुआ कि उनकी पत्नी अब उनकी नहीं रही। नेवी के यूनीफॉर्म में ही वे प्रेम आहूजा के घर जा पहुंचे और अपनी सर्विस रिवॉल्वर से उसे शूट कर दिया। नानावटी ने खुद को पुलिस के हवाले कर दिया। ब्लिट्ज ने इसे इश्यू बनाया और पत्नी की दगाबाजी और गद्दार दोस्त को निशाने पर रखा। ये घटना 27 अप्रैल 1959 की है। मामला इतना सुर्खियों में आया कि जब ट्रायल कोर्ट ने नानावटी को आजीवन कैद की सजा सुना दी तो महाराष्ट्र के राज्यपाल को लिखित आदेश देना पड़ा कि जब तक नानावटी की अपील का फैसला न आ जाए तब तक सजा को मुल्तवी रखा जाए। इस हाई प्रोफाइल केस पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन रक्षामंत्री को भी हस्तक्षेप करना पड़ा। ब्लिट्ज ने इस केस को 3 साल तक लगातार गर्म रखा। बाद में नानावटी केस पर कई किताबें लिखी गईं और फिल्में बनीं।
गांधी जी के खिलाफ रिपोर्ट के लिए लिखा माफीनामा
रूसी करंजिया कमाल के संपादक थे उनकी दोस्ती और दुश्मनी उनके टेब्लाइड में साफ झलकती थी। वे पंडित नेहरू के मुरीद थे। इस बात को स्वीकार करते हुए उन्होंने अपनी बायोग्राफी में लिखा-एक बार मैं वर्धा आश्रम जाकर महात्मा गांधी से मिला और लौटते ही उनके खिलाफ एक जोरदार रिपोर्ट लिखी। जब उस रिपोर्ट पर नेहरू ने पढ़ा तो मुझे जमकर खरीखोटी सुनाई। नेहरू की बातों में दम था। मैंने गांधी जी को रिपोर्ट के लिए माफीनामा भेजा और उस रिपोर्ट के पारिश्रमिक में मिले 250 रुपए आश्रम के हरिजन फंड में जमा कर दिए। रूसी की नेहरू विरोधियों से कभी नहीं पटी। उनके निशाने पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और बाद में देश के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई बने रहे। गुटनिरपेक्ष के सभी नेताओं.. नासिर, टीटो, सुकर्णो, अराफात और फिडेल कास्त्रो रूसी के भी वैसे ही मित्र थे जैसे कि नेहरू के। ईरान के शाह रजा पहलवी से उनकी इतनी गाढ़ी दोस्ती थी कि अमेरिका ने आरोप लगाया कि ब्लिट्ज ईरान के शाह के पेरोल पर है और अकारण ही अमेरिका की आलोचना करता है।
भारतीय पत्रकारिता के प्रतीक बना ब्लिट्ज
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के जितने भी समाजवादी कांग्रेसी थे वे सब ब्लिट्ज से जुड़े थे। वे यहीं पनाह लेते छद्म नाम से लिखते। इनमें जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, नरेंद्र देव, अच्युत पटवर्द्धन, अरुणा आसफ अली, अशोक मेहता और मीनू मसानी थे। ब्लिट्ज इंदिरा गांधी के प्रति नरम-गरम रहता पर राजीव गांधी को लेकर साफ्टकार्नर रखता था। 1990 के उदारीकरण और टीवी चैनलों के उदय के साथ ब्लिट्ज की चमक धीमी पड़ने लगी। उम्र के चौथेपन में रूसी करंजिया बीजेपी के साथ जुड़ गए। 1996 में ब्लिट्ज का प्रकाशन बंद हो गया। ब्लिट्ज का आंकलन करते हुए प्रसिद्ध पत्रकार वीर सिंघवी लिखते हैं-आजादी के समय भारतीय प्रेस पर ब्रिटिश कंपनियों व जूट मालिकों का कब्जा था, बकौल नेहरू वह झूठ प्रेस था, तब ब्लिट्ज ने भारतीय पत्रकारिता की वैकल्पिक तस्वीर पेश की।
आगे की चुनौतियां..
ब्लिट्ज के प्रकाशन का बीड़ा उठाने वाले अनिल वोहरा और दीपक द्विवेदी ने फिलहाल भविष्य का खाका सामने नहीं रखा है। आज की पत्रकारिता डिजिटल हो चुकी है। प्रिंट संस्करण तेजी से सिकुड़ रहे हैं। अखबार मल्टीमीडिया के फ्रेम में आ चुके हैं ऐसे में ब्लिट्ज क्या पुराने ही तेवर और कलेवर में रहेगा या फिर समय के अनुरूप स्वयं को ढालते हुए कोई नया मॉडल खड़ा करेगा ये देखना होगा।